स्तूप और वेदिका-स्तंभ - Stupa and Plinth
स्तूप और वेदिका-स्तंभ - Stupa and Plinth
मथुरा के कलाकारों ने भरहुत और सांची की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए जैन और बौद्ध स्तूपों का निर्माण किया, किंतु दुर्भाग्यवश ये स्तूप नष्ट हो चुके हैं। लेखों और मूर्तियों से यह ज्ञात होता है कि मथुरा में जैनों के दो स्तूप थे। इनके अवशेष कंकाली टीले से मिले हैं। इसी प्रकार बौद्धों के भी संभवत: दो स्तूप थे, एक हुविष्क का, मथुरा में वर्तमान कचहरी के पास और दूसरा भूतेश्वर पर बना हुआ था। इन दोनों के अवशेषों से विदित होता है कि मथुरा के स्तूपों के द्वार तोरण और वेदिका स्तंभ भरहुत और साँची की अपेक्षा नाप में कम और छोटे थे। इन स्तूपों के स्वरूप का परिचय हमें कई शिलापट्टों पर अंकित चित्रों से • मिलता है। इनमें सबसे पुराना स्तूप संभवतः अर्धचंद्राकार होता था।
यह ऊपर की ओर आकार में घटता चला जाता था। इस पर तीन वेदिकायें और हर्मिका पर चौथी छत्रयुक्त वेदिका बनी होती थी। ऐसे स्तूपों का समय ई. पू. दूसरी शताब्दी माना जाता है। इसके लगभग दो सौ वर्ष बाद के स्तूप का स्वरूप लोणशोमिका के आयाग-पट्ट (प्रथम सदी ई.) पर बने चित्र से स्पष्ट होता है। इसका गोलाकार अंडभाग बुलबुले जैसा लंबोदरा प्रतीत होता है। यह स्तूप भूमि से ऊँचाई पर पक्के चबूतरे पर बनाया जाता था। पर पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी होती थीं। उपर्युक्त आयाग पट्ट में भूमितल पर वेदिका और ऊँचा तोरण द्वार स्पष्ट रूप से दिखाया गया है।
इसमें साँची की भाँति द्वारस्तंभों के ऊपर तीन आड़ी बडेरिया, कोनों में शालभंजिकायें और प्रदक्षिणापथ बने हुए हैं। इसके मध्य भाग पर दो वेदिकाएँ और शिरोभाग पर हर्मिका, वेदिका और छत्र बने हुए हैं। इन दो जैन स्तूपों के अतिरिक्त एक तोरण पर बौद्ध स्तूप का भी चित्र मिलता है। इसकी बड़ी विशेषता कई वेदिकाओं वाली अनेक मंजिलें हैं, इसके दोनों ओर दो भक्त हाथ जोड़े खड़े हैं। इस प्रकार के कई मंजिलों वाले स्तूपों का गंधार में अधिक प्रचलन था। इन स्तूपों के वेदिका स्तंभों का नाना प्रकार के अलंकारों के साथ अनेक काल्पनिक अभिप्राय भी बनाए जाते थे, जैसे- गज-मच्छ, नर- मच्छ, पंखवाले शेर, हाथी, हिरण, नाना प्रकार की लताएँ, किंतु सबसे सुंदर अलंकरण विभिन्न भाव भंगिमायों वाली स्त्रियों के हैं।
मथुरा के शिल्पियों ने वेदिका स्तंभों पर नये-नये दृश्य दिखाने के लिए नारियों के सौंदर्य का बड़ा सुभग और ललित चित्रण नाना रूपों में किया है। इनमें इन्हें विभिन्न प्रकार की जल क्रीड़ाओं और उद्यान क्रीड़ाओं में संलग्न दिखाया गया है। जल क्रीड़ाओं के कुछ दृश्य इस प्रकार हैं-दो स्तंभों पर पहाड़ी झरनों के नीचे स्नान करती हुई स्त्री, स्नान के बाद सूर्य की ओर पीठ करके अपने बालों से जल की बूंदों को निचोड़ने वाली स्त्री, इसमें पैरों के पास बना हुआ हंस इन बूँदों को मोती समझ कर पी रहा है। स्नान के बाद शृंगार के लिए दर्पण में मुख देखती हुई दायें कान के कुंडल ठीक करती हुई स्त्रियों के चित्र मिले हैं। उस समय घरों के उद्यानों में तोतों से मनोविनोद किया जाता था।
एक स्तंभ में एक स्त्री अपने हाथ में पिंजरा लिए खड़ी है। उसके बायें कंधे पर सुग्गा बैठा हुआ है। इसी प्रकार स्त्रियों के आभूषण पहनने और प्रसाधन के भी अनेक दृश्य मिलते हैं। उद्यान -क्रीड़ाओं में अर्थात् शालभंजिका का खेल लोकप्रिय था। अतः मथुरा मे शालभंजिका की अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं। इस समय का एक अन्य लोकप्रिय मनोरंजन अशोकदोहद अर्थात् अशोक वृक्ष के नीचे एक युवती द्वारा उसे पुष्पित करने के लिए दायां हाथ शाखा पर झुका कर बायें पैर से पेड़ पर आघात या स्पर्श करना था। कंदुक क्रीड़ा करती हुई और पुत्र को गोद में लिए हुई और अँगड़ाई लेती हुई स्त्रियों की सुभग मुद्राएँ यहाँ स्तंभों पर पाई जाती हैं। इन मूर्तियों में तत्कालीन सामाजिक जीवन के सभी पक्षों का अंकन मिलता है।
वार्तालाप में शामिल हों