आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य - Man is the goal of literature of Acharya Hazariprasad Dwived

द्विवेदी जी साहित्य को मनुष्य जीवन से अलग वस्तु नहीं मानते हैं। उनकी दृष्टि में विराट् मानवीयता है। वे मानते हैं कि मनुष्य के महान कार्यों के पीछे संस्कारगत प्रयोजन से ऊपर उठे हुए कुछ व्यक्तिगत और समूहगत विश्वास होते हैं। उन्होंने समस्त मानवीय क्रिया व्यापारों को परस्पर सम्बद्ध माना है। अपने भाषण 'साहित्य का मर्म' में अपने इस दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है कि "काव्य और विज्ञान एक ही मानवीय चेतना के दो किनारों की उपज हैं; वे परस्पर विच्छिन्न नहीं हैं, परस्पर विरुद्ध तो नहीं ही है। सौन्दर्यशास्त्र का आलोचक इसी परस्पर असम्बद्ध और विच्छिन्न-सी लगने वाली रस-प्रेरणा के स्रोतों में सामंजस्य खोजता है।" मनुष्य के जीवन को पशुओं के जीवन से अलगाने वाली बातों को रेखांकित करते हुए इसी भाषण में द्विवेदी जी कहते हैं कि "आहार, निद्रा आदि पशु- सामान्य घरातल से जो ऊपर की चीज है,

संयम से, तप से, औदार्य से और त्याग से प्राप्त होती है वह मनुष्य की अपनी विशेषता है; यही मनुष्य की मनुष्यता है।" द्विवेदी जी के अनुसार मनुष्य के कार्यों का लक्ष्य मनुष्य और उसका कल्याण ही होना चाहिए। साहित्य के उद्देश्य पर बात करते हुई द्विवेदी जी कहते हैं कि लोगों में ज्ञान का प्रसार करना, उनमें आत्मगौरव की भावना जगाना तथा उनके कष्टों के निवारण का मार्ग बताना ही साहित्य का कार्य है। काव्य की अनुभूति का विश्लेषण करते हुई उन्होंने लिखा है कि "कवि का सुख-दुःख जब कल्पना की सहायता से छन्द, अलंकार आदि के संयोग से तथा अखिल विश्व की मर्म व्यथा की चिन्ता करके सर्वसाधारण के ग्रहण करने योग्य बन जाता है तब उसे हम काव्यानुभूति की अवस्था कहते हैं।" (- 'विचार और वितर्क')


आचार्य द्विवेदी की समीक्षा -दृष्टि का आधार व्यापक मानवता के सुख-दुःख हैं इसलिए वे | मनुष्य को साहित्य का केन्द्र और अन्तिम लक्ष्य मानते हैं "मनुष्य ही मुख्य है बाकी सब बातें गौण हैं। अलंकार, छन्द, र का अध्ययन इस मनुष्य को समझने का ही साधन है, ये अपने आप में कोई स्वतन्त्र चरम मान नहीं हैं। मनुष्य को- अर्थात् पशु-सुलभ वासनाओं से ऊपर उठाने के लिए प्रयत्नशील उस प्राणी को जो त्याग, प्रेम, संयम और श्रद्धा की छीना-झपटी, मारा-मारी, लोलुपता और घृणा द्वेष से बड़ा है उसके लक्ष्य की ओर ले जाना ही साहित्य का मुख्य उद्देश्य है।" (- 'कल्पलता') द्विवेदी जी के लिए मानव समाज और मानव-जीवन सत्य है और मानवीय मूल्य सर्वोपरि ।


द्विवेदी जी की स्पष्ट मान्यता है कि मनुष्य को मनुष्य के सुख-दुःख के प्रति संवेदनशील बनाने वाले साहित्य की आवश्यकता समाज में सदैव बनी रहेगी। इसलिए साहित्य केवल वाग्विलास का साधन नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे मानवता का उन्नायक होना चाहिए। द्विवेदी जी के अनुसार मनुष्य एक है। उसके सुख-दुःख को समझना, उसे मनुष्यता के पवित्र आसन पर बैठाना ही हमारा कर्तव्य है। सभी तरह के सामाजिक भेदभावों को भुलाकर ही मनुष्यता के असली मार्ग पर अग्रसर हुआ जा सकता है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण समाज को सचेतन बनाना आवश्यक है और साहित्य को यही कार्य करना चाहिए।