सामाजिक सुधार आंदोलनों का स्त्री-जीवन पर प्रभाव एक आकलन - An assessment of the impact of social reform movements on women's lives
सामाजिक सुधार आंदोलनों का स्त्री-जीवन पर प्रभाव एक आकलन - An assessment of the impact of social reform movements on women's lives
भारत में सुधारवादी आंदोलनों में स्त्रियों के मुद्दों का शामिल होना एक प्रकार से फ्रांस की राज्यक्रांति तथा इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी के बुद्धीजीवियों के नारीवादी विचारों के प्रभावस्वरूप था 19 वीं सदी में यूरोप में भी 'महिला प्रश्न' वहाँ के सुधारवादियों के एजेंडे में आ गया था. भारत में इन सबके प्रभावस्वरूप स्वतंत्रता, समानता, बन्धुत्व इत्यादि का नारा बुलंद हुआ. कालान्तर में स्त्री-पुरुष संबंधों के संदर्भ में स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व इत्यादि की बात उठने लगी और इसने जोर पकड़ा. इसके परिणामस्वरूप स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व और स्त्री- अस्मिता जैसे प्रत्यय उभरे, जिन्होंने आगे चलकर एक गम्भीर विमर्श का रूप ग्रहण किया.
सुधारवादी आंदोलनों के एजेंडे में स्त्री-प्रश्नों का सम्मिलित होना इसी के परिणामस्वरूप सम्भव हुआ. 19 वीं सदी के समाज सुधार आंदोलनों में स्त्रियों से जुड़े मसले पर्याप्त प्रमुखता से उभरे थे, हालाँकि वस्तुस्थिति यह भी है कि इनका संबंध अधिकतर उच्च वर्गीय हिंदू समाज से ही था. किंतु चूँकि ये मुद्दे स्त्रियों से जुड़े थे, अतः इनसे समस्त स्त्रियों का प्रभावित होना स्वाभाविक था. उक्त समाज सुधार आंदोलनों के परिणामस्वरूप जो उपलब्धियाँ प्राप्त हुई, उन्हें निम्नानुसार आकलित किया जा सकता है-
1. स्त्री-शिक्षा का मार्ग प्रशस्त हुआ.
2. स्त्री की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक भूमिका में वृद्धि हुई.
3. जातिवादी व्यवस्था और अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष तथा दलित आंदलनों का उदय.
4. लिंग-भेद सम्बन्धी सचेतनता तथा लैंगिक भेदभाव के प्रति सजगता का उदय.
5. महिला संगठनों का उदय.
6. मुस्लिम समाज सुधारक महिलाओं का उदय, उक्त उपलब्धियों में से सबसे बड़ी उपलब्धि महिला संगठनों का उदय मानी जा सकती है. महिला संगठन एक सामूहिक और समेकित आवाज़ में अपनी बात रख सकते हैं.
खियों के मुद्दों को जितनी शिद्दत और स्पष्टता के साथ महिलाओं के संगठन उठा सकते हैं, उस तरह से कोई और नहीं उठा सकता. समाज सुधार आंदोलनों में स्त्रियों की भागीदारी और कई जगह नेतृत्व ने खियों को अलग से संगठित होने की प्रेरणा दी. इन्हीं के परिणामस्वरूप पूरे देश में विभिन्न प्रकार के महिला संगठन व महिला संस्थाएँ उभरकर सामने आई, जिन्होंने आगे चलकर स्वाधीनता आंदलनों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. डा. राधा कुमार का यह कथन इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य है- "बीसवीं सदी के आरंभ में महिलाओं के स्वायत्त संगठन बनने शुरू हो गए तथा कुछ ही दशकों में मसलन तीस और चालीस के दशक तक 'नारी सक्रियता की एक विशेष श्रेणी का निर्माण हो गया.” (कुमार, राधा, स्त्री संघर्ष का इतिहास, अनुवाद एवं सम्पादन रमा शंकर सिंह दिव्यदृष्टि'; वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-2; पृष्ठ-12).
वार्तालाप में शामिल हों