उन्नीसवीं सदीं में सती प्रथा - Sati practice in the nineteenth century

उन्नीसवीं सदीं में सती प्रथा - Sati practice in the nineteenth century


राजाराम मोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलन चलाया अमेरिकी मिशनरियों ने इसे 18वीं सदी की हिंदू पशुता की संज्ञा दी जबकि अंग्रेज़ शासकों ने इसे भारत में शासन करने का कारण माना (सभ्यता मिशन) बहरहाल कुछ वर्षों तक ब्रिटिश संसद ने सती प्रथा के खिलाफ कानून बनाने से यह कहते हुए इनकार कर दिया की इसे हिंदुओं के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप माना जाएगा। अंग्रेजों की भारत में जागरण लाने की आत्मपरिभाषित भूमिका और समय की मांग के बीच तनाव के कारण उन्नीसवी सदी के आरंभिक वर्षों में अंग्रेजों को कई विषयों पर समझौतावादी रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया।

उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध जो नियम बनाए उसमें जबरन सती किए जाने और स्वेच्छा से सती होने में भिन्नता थी। सती के बारे में अंग्रेजों द्वारा किए गए इस भेद ने सती प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाने वालों को झकझोर कर रख दिया। एडवर्ड थापसन के अनुसार अनेक आंदोलनकारियों ने अंग्रेजों के इस कदम को सती प्रथा को कानूनी जामा पहनाने की उनकी कोशिश के रूप मरीन देखा है। 1817 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य पंडित मृत्तुंजय विद्यालंकार ने घोषणा की कि स्त्री की कोई शास्त्रीय मान्यता नहीं है। इसके एक वर्ष बाद 1818 में बंगाल के तत्कालीन प्रांतीय गवर्नर विलियम बैंटिक ने प्रांत में सती प्रथा पर रोक लगा दी। सारे भारत में इस निषेध को फैलने में 11 वर्ष लगे।

विलियम बैंटिक 1829 में जेबी भारत के गवर्नर जनरल बने तो उन्होंने सती निर्मूलन एक्ट पास किया। सरकार ने स्त्री को बलपूर्वक जलाये जाने की हत्या के बराबर अपराध घोषित कर दिया तथा इस प्रथा को प्रोत्साहित करने वालों पर फौजदारी मुकदमा चलाने की घोषणा की। 1829 में सती प्रथा के विरुद्ध एक कानून पास करके इसके 17वें नियम के अनुसार विधवाओं का जीवित जलाना बंद कर दिया गया। सबसे पहले यह नियम बंगाल में लागू किया गया फिर 1830 में यह मद्रास एवं बंबई में भी लागू कर दिया गया।


अगर हम देखें तो पाएंगे कि बड़े पैमाने पर सती होने की घटनाएँ 19वीं सदी के आरंभिक दशकों में बंगाल में हुई जहां लगभग हर रोज एक स्त्री सती होती थी।

यह हाल तब था जबकि बंगाल के तात्कालिक गवर्नर विलियम बैंटिक ने सती को सूबे में गैरकानूनी घोषित किया हुआ था। बैंटिक ने यह दिखाने के लिए कि सती होना आवश्यक नहीं और यह भी कि यह कोई मान्यता प्राप्त धार्मिक गतिविधि नहीं है शास्त्रीय धार्मिक प्रतिकों को क्रमबद्ध करने की रणनीति अपनाई। यही रणनीति राममोहन राय ने अपनी पुस्तक ए कान्फ्रेंस बिटवीन एन एडवोकेट फॉर एण्ड एन अपोनेंट टू दि प्रैक्टिस ऑफ बर्निंग विडोज़ अलाइव' में भी अपनाई। यह पुस्तक श्री राय ने 1815 में तब लिखी जब उन्होंने देखा कि उनके भाई की मृत्यु के बाद उनकी भाभी को उनके भाई की चिता मीन जबरन झोक ददिया गया। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद उन्होंने तीन वर्ष बाद यानी 1818 में किया।


यदि सती उन्मूलन आंदोलन स्त्रियों की दशा को सुधारने के एक कारण' के रूप में आगे बढ़ा तो स्त्रियों की शिक्षा का आंदोलन दूसरा कारण था। लड़कियों के लिए स्कूल सबसे पहले अंग्रेज़ तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा 1810 में शुरू किए गए। स्त्रियों की शिक्षा से संबन्धित पहली पुस्तक किसी भारतीय भाषा [बंगाली में 1819 में एक भारतीय गुरुमोहन विद्यालंकार द्वारा लिखी गई जिसे कलकत्ता की कन्या बाल समिति ने 1820 में प्रकाशित किया। 1827 तक मिशनरियों द्वारा हुगली जिले में 12 कन्या पाठशालाएं चलाई जाने लगी। एक वर्ष बाद लेडीज सोसायटी फॉर नेटिव फ़ीमेल एजुकेशन इन कैलकटा एण्ड इट्स विसिनिटी' ने स्कूल खोले जो मिस कुक द्वारा चलाये गए। ऐसा देखा गया कि गरीब इलाको में खुले स्कूलों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम स्त्रियाँ भी दिलचस्पी ले रहीं थीं। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक बंगाल, खासतौर से कलकत्ता में स्त्रियों की शिक्षा का मुद्दा उदार हिंदुओं ब्राह्मणों और प्रगतिशील छात्रों के लिए आंदोलन का विषय बन गया।