भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों की परंपरा और स्त्रियों के मुद्दे - Tradition of social reform movements in India and women's issues
भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों की परंपरा और स्त्रियों के मुद्दे - Tradition of social reform movements in India and women's issues
भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों की शुरुआत 19 वीं सदी में होती है, जब स्त्रियों की समस्याएँ केंद्र में आने लगती हैं. 19 वीं सदी में कानूनी और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर स्त्रियों की स्थिति विश्व स्तर पर मजबूत होना शुरू होती है 19 वीं सदी में बंगाल और महाराष्ट्र प्रांतों में सुधारवादी समूह अधिक सक्रिय थे. इस समय इन आंदोलनों में स्त्री सम्बन्धी जो मुद्दे उठे, वे इस प्रकार थे- 1. सतीप्रथा, 2. कन्या भ्रूण हत्या, 3. बहुविवाह, 4. बालविवाह, 5. बेमेल विवाह, 6. दहेज प्रथा, 7. पर्दा प्रथा, 8. देवदासी प्रथा, 9. बेटियों को न पढ़ाने की प्रथा 10. पितृसत्तामूलक संयुक्त परिवार
19 वीं शताब्दी के इन आरम्भिक सुधार आंदोलनों की विशेषता यह है कि इनमें नेतृत्व पुरुष ब्राह्मणों के हाथ में था, जिसका यह नतीजा सामने आया कि ये सुधार केवल उच्च जाति की स्त्रियों के लिए किये गए. इनके चलाए जाने का तरीका भी पर्याप्त शांतिपूर्ण व अहिंसात्मक था. हस्ताक्षर अभियान, जनसभा व बैठक बुलाकर, अंग्रेज़ सरकार के साथ सुधार की बातचीत जारी रखना; इत्यादि तरीके प्रमुख थे.
normal; font-variant-numeric: normal; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">आगे चलकर इन आंदोलनों में अनेकानेक वर्गों के लोग शामिल हुए और इनका प्रभाव क्षेत्र भी काफी व्यापक हुआ, आगे इनमें स्त्रियाँ भी पर्याप्त संख्या में सम्मिलित हुई पुरुषों के साथ स्त्रियों के आने से आंदलनों का स्वरूप बदला और उसमें स्त्रियों की आवाज़ बुलंद हुई इन आंदोलनों में शामिल अनेक स्त्री कार्यकर्ता आगे चलकर राष्ट्रीय नेताओं के रूप में उभरी.
इन राष्ट्रीय नेत्रियों ने भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदलनों में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लिया और उच्च पदों पर रहीं.
स्त्री-केंद्री सामाजिक सुधार आंदोलनों पर सिलसिलेवार प्रमुखतः निम्नानुसार विचार किया जा
सकता है-
1. सती प्रथा उन्मूलन आंदलनों
2. विधवा पुनर्विवाह आंदलनों
3. बाल विवाह विरोधी आंदलनों
4. स्त्री शिक्षा हेतु आंदलनों
5. देवदासी प्रथा के विरुद्ध आंदलनों
16. मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा हेतु आंदलनों
1. सती प्रथा उन्मूलन आंदलनों
ऐतिहासिक तौर पर यह कुप्रथा भारत के कुछ खास प्रांतों में ही प्रचलित थी. जहाँ पर उच्च वर्णों में संपत्ति में विधवा स्त्रियों को अधिकार था,
वहीं पर यह प्रथा प्रचलित थी." (शुक्ला, प्रो. आशा, कुसुम त्रिपाठी, उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद और जेंडर, महिला अध्ययन विभाग, बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल: 2014: ISBN 978-81-905131-7-19, पृष्ठ-09). इससे यह स्पष्ट होता है कि सती प्रथा का संबंध आर्थिक कारणों से रहा है. पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी को उसका वैध साम्पत्तिक हिस्सा न देना पड़े, इसलिए उसी को समाप्त कर दो! यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था में ही सम्भव है! मूलतः यह हत्या है लेकिन यह हत्या न लगे, इसके लिए इसके चारों ओर धर्म की कोटिंग की गई कि पति की चिता के साथ सती होना स्त्री के पतिव्रता होने का प्रमाण है. जो स्त्री ऐसा करती है, वह अखंड सौभाग्यवती कहलाती है.
मृत्यु के उपरान्त परमधाम को प्राप्त करती है. वही नहीं, उसके सारे कुटुंब का ही उद्धार हो जाता है; इत्यादि इत्यादि. इस धार्मिक वैधता के तहत सती प्रथा चल निकली. प्रारंभ में यह विधवा स्त्रियों के संपत्ति में अधिकार वाले उच्च वर्णों में रही होगी, लेकिन बाद में यह एक आम परंपरा बन गई.
सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलनों और इस प्रथा को कानूनन समाप्त करने का श्रेय राजा राममोहन राय को जाता है. राजा राममोहन राय ने निरंतर इस आदलनों को आगे बढ़ाया और सबसे ज्यादा सक्रियता दिखाई. सती प्रथा के विरुद्ध चलाए गए आंदलनों और इस संबंध में अंग्रेज सरकार,
हिंदूवादी समुदाय, ईसाई पादरियों तथा अन्य अनेक लोगों व वर्गों की क्या भूमिका रही तथा किस-किसने क्या-क्या स्टैंड लिए और पैंतरे बदले इस सबके विस्तृत विवरण के लिए डा. राधा कुमार की 'स्त्री संघर्ष का इतिहास 1800-1990' देखी जा सकती है. (कुमार, राधा स्त्री संघर्ष का इतिहास; अनुवाद एवं सम्पादन
- रमा शंकर सिंह दिव्यदृष्टि'; वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-2, पृष्ठ- 26-38).
2. विधवा पुनर्विवाह आंदलनों
सती प्रथा की तरह विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध भी सिर्फ उच्च जातियों में ही प्रचलित था. किंतु यह भी एक गलत प्रथा थी, जिसके विरुद्ध समाज सुधारकों ने आंदलनों चलाए.
विधवा पुनर्विवाह पर लगे प्रतिबन्ध को समाप्त करने के लिए ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने 1850 ई. में अभियान चलाया. इस संबंध में कई स्तरों पर उन्होंने प्रयास किए. एक तरफ उन्होंने विधवा पुनर्विवाह को शास्त्रसम्मत ठहराते हुए बंगला भाषा में एक पुस्तिका लिखी दूसरी ओर हिंदूपंडितों के साथ इस विषय पर संस्कृत में शास्त्रार्थ किया. तीसरी तरफ अपनी पुस्तिका का अंग्रेजी अनुवाद कर उसे अंग्रेजों तक पहुँचाया. इस सब के अतिरिक्त उन्होंने 1855 में विधवा पुनर्विवाह के लिए कानून बनवाने के लिए भारत के गवर्नर जनरल को देने को एक याचिका तैयार की. इस सबका परिणाम यह हुआ कि 1856 में विधवा पुनर्विवाह का कानून पारित हो गया.
विधवा पुनर्विवाह के लिए वास्तविक आंदलनों महाराष्ट्र में चला जहाँ महात्मा फुले के सत्यशोधक समाज ने अनेकानेक विधवा पुनर्विवाह करवाए,
3. बाल विवाह विरोधी आंदलनों
बाल विवाह का मुद्दा विवाह की उम्र तथा सहमति की उम्र से जुड़ा मुद्दा भी है बाल विवाह एक ऐसी कुरीति रही है, जिसने स्त्रियों के लिए मुसीबतें ही मुसीबतें पैदा की हैं. बाल विवाह प्रकारान्तर से लड़की से सहवास की उम्र भी तय करता है, जिसके अन्य दूरगामी परिणाम होते हैं.
इस मुद्दे को भी ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने उठाया और उन्हीं के प्रयासों से 1860 में 10 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की शादी को गैर-कानूनी करार दिया गया था. उम्र सहमति कानून के अंतर्गत 10 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ सहवास को बलात्कार बताया गया. बाद में इन कानूनों में बराबर फेरबदल होते रहे और विवाह तथा सहमति की उम्र बढ़ती रही. अनेक लोगों ने हिंदू धर्म की संरचना का हवाला देते हुए बाल विवाह पर लगाई जाने वाली रोक का विरोध किया किंतु अनेक लोगों ने बाल विवाह पर प्रतिबन्ध का समर्थन किया. अंततः अक्टूबर 1929 में शारदा एक्ट पारित हुआ, जो 30 में लागू हुआ.
4. स्त्री शिक्षा हेतु आंदलनों
स्त्री शिक्षा की शुरुआत उन्नीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में अग्रेजों तथा ईसाई मिशनरियों ने की. 19 वीं सदी के मध्य तक आते-आते उदार हिंदुओं,
ब्राह्मणों तथा कुछ प्रगतिशील छात्रों का ध्यान स्त्रियों की शिक्षा की ओर आकर्षित हुआ. इसका कारण यह भय था कि ईसाई मिशनरियाँ शिक्षा के बहाने स्त्रियों का धर्म न परिवर्तित करा दें. 19वीं सदी के मध्य में स्त्री शिक्षा आंदलनों पूरे देश में फैल गया.
इस संबंध में महात्मा ज्योतिबा फुले को याद करना आवश्यक है, जिन्होंने पहले अपनी पत्नी सावित्रीबाई को शिक्षित प्रशिक्षित किया और फिर अपने स्कूल में शिक्षिका बनाया. सावित्रीबाई आधुनिक भारत की पहली शिक्षिका मणि जाति हैं. महात्मा फुले ने 19 वीं सदी के मध्य में अतिशूद्रों, महारों, मांग आदि जातियों के लिए स्कूल खोले
महात्मा फुले के आलावा दादाभाई नौरोजी, सरलादेवी चौधरानी, दयानंद सरस्वती, केशवचन्द्र आदि का अपने-अपने क्षेत्र में स्त्री शिक्षा के उन्नयन में उल्लेखनीय योगदान रहा है.
5. देवदासी प्रथा के विरुद्ध आंदलनों
भारत में धर्म की आड़ में देवदासी प्रथा प्रचलित रही है. येल्लम्मा देवी को पहली बेटी समर्पित की जाती थी, बाद में जिससे वेश्यावृत्ति कराई जाती थी. 1909 में मैसूर संस्थान ने देवदासी प्रथा पर रोक लगाने का कानून लागू किया बाद में 1929 में मद्रास तथा उसके कुछ समय पश्चात् मुम्बई सरकार ने अपने यहाँ इस तरह का क़ानून लागू किया.
देवदासी प्रथा के उन्मूलन में विरशालिंगम ने अपने यहाँ मुजरेवाली नर्तकी प्रथा का विरोध किया और राजमहेंद्री में वेश्यायों के लिए एक पुनर्वसन गृह की स्थापना की. कृष्णा जिले की मक्कुला जाति में मुजरा व्यवसाय के लिए बड़ी बेटी को समर्पित करने की प्रथा थी. यह प्रथा आगे चलकर समाप्त हुई. आन्ध्रा के समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी दारसि चेंचैप्या ने एक वेश्यपुत्री के साथ
मिलकर एक पत्रिका निकाली और पूरे आंध्र प्रदेश में देवदासी प्रथा के खिलाफ सभाएं कीं इसका परिणाम यह हुआ कि अनेक स्त्रियों ने इस पेशे को तिलांजलि दे दी. उन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा, शादी की और इज्जत की बितानी शुरू की.
6. मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा हेतु आंदलनों
हिंदुओं की तरह मुस्लिम सुधारवादियों ने भी अपनी जाति की स्त्रियों की शिक्षा के समुचित प्रबंध किये ये प्रबंध भी आन्दोलनात्मक थे जिसके तहत अलीगढ़ और लाहौर में स्त्रियों की शिक्षा के बड़े केंद्र स्थापित किए गए. सर सैयद ने अलीगढ़ में सुधारवादी आंदोलनों के तहत शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया. हालाँकि सर सैयद लड़कियों के लिए पाश्चात्य ढंग की शिक्षा के विरोधी थे. किंतु यह भी सच है कि उन्होंने स्त्रियों के लिए शिक्षा के द्वार खोले.
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