सिख धर्म में स्त्री - woman in sikhism

 सिख धर्म में स्त्री - woman in sikhism


सिख धर्म में स्त्री को पर्याप्त उच्च स्थान प्राप्त है। सन् 1499 में गुरु नानक ने कहा था, "स्त्रियाँ ही नस्ल को आगे बढ़ाती हैं। हमें स्त्रियों के प्रति अवमाननापूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए अनेक ऐसी स्त्रियाँ भी हुई हैं, जिन्होंने नेतृत्व एवं राज किया है।"


सिख धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों को मनुष्य रूपी सिक्के के दो पहलू कहा गया है। दोनों के बीच परस्पर अंतर्संबंधों एवं अंतरनिर्भरता की एक व्यवस्था है। इस कर्म के अनुसार स्त्रीपुरुष दोनों की अपनी- अपनी भूमिका और महत्ता है।


सिख धर्म में व्यावहारिक तौर पर स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार और महत्व प्राप्त है। सिख पुरुष स्त्रियों को अपने समान ही समझते हैं। सिख धर्म में लैंगिक असमानता की भावना नहीं मिलती।


सिख धर्म के समय समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत शोचनीय थी। सिख धर्म में हिंदू एवं मुसलमानों में स्त्रियों पर जो पाबंदियाँ और अनधिकार थे उनसे अपनी स्त्रियों को मुक्त रखने की कवायद की गई। हिंदुओं की सती प्रथा तथा मुसलमानों की पर्दा प्रथा से सिख स्त्रियाँ मुक्त रखी गई उस समय यह एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम था। सिख धर्म में बालविवाह का प्रचलन नहीं था। सिख धर्म में स्त्रियों को संपत्ति में उत्तराधिकारिता प्राप्त थी। स्त्रियों की खरीद-फरोख्त पर भी सिख धर्म ने रोक लगाई।


सिख धर्म में लड़कियों/त्रियों के नाम के साथ 'कौर' जुड़ता है, जिसका अर्थ है, 'राजकुमारियाँ"। गुरु नानक और उनके पश्चात् गुरु गोविन्द सिंह ने स्त्रियों के नाम के आगे अनिवार्यतः कौर' लगवाकर स्त्रियों को पुरुषों के समान बराबरी और महत्व देने का काम किया।