बौद्ध एवं जैन धर्मों में स्त्री - Women in Buddhism and Jainism
बौद्ध एवं जैन धर्मों में स्त्री - Women in Buddhism and Jainism
बौद्ध धर्म में स्त्री की स्थिति पर विचार करने पर सबसे पहले थेरीगाथाओं का ध्यान आता है, जिनमें तत्कालीन स्त्री-जीवन के अनेक उज्ज्वल व यथार्थ पक्ष अंकित मिलते हैं। थेरीगाथाएँ प्रव्रजित बौद्ध भिक्षुणियों की आपबीती कथाएँ हैं। ये कथाएँ इन थेरियों की निजी आत्मकथाएँ तो हैं ही, साथ ही इनसे तत्कालीन परिस्थितियों में स्त्री की स्थिति, परवशता, दुःख, कातरता, मुक्ति की कामना इत्यादि से संबंधित प्रामाणिक जानकारियाँ भी हमें मिलती हैं।
विद्वानों ने लिखा है कि गौतम बुद्ध ने उस समय पुरुषों को यह निर्देश दिया था कि वे अपनी पत्नी का सम्मान करें। इससे संकेत मिलता है कि उस समय पति अपनी पत्नी का अनादर किया करते थे।
बौद्ध धर्म में स्त्री को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है। संघ में स्त्रियों को स्थान देकर गौतम बुद्ध ने स्त्रियों की मुक्ति का द्वार खोल दिया। संघ में प्रवेश मिलने से समाज में भी उनका सम्मान बढ़ा और उनकी पीड़ा कम हुई। इस संबंध में डॉ रजनीश कुमार ने लिखा है, “जिन स्त्रियों ने भिक्षुणी की दीक्षा ली, उनमें से अधिकांश ऊँची आध्यात्मिक पहुँच के लिए और नैतिक जीवन के लिए प्रसिद्ध हुई। कुछ स्त्रियाँ तो न केवल पुरुषों की शिक्षिका तक बन गई, धर्म की बारीकियों को समझने वाली, बल्कि उन्होंने उस चिरंतन शांति को भी प्राप्त कर लिया था, जो आध्यात्मिक उड़ान और नैतिक साधना के ही फलस्वरूप प्राप्त की
जा सकती है।" (www.streekal.com/2014/07/blog-post_14.html तथा स्त्रीकाल अंक-9)।
जैन धर्म में स्त्रियों को समुचित स्थान दिया गया है। उन्हें पुरुषों के बराबर ही धार्मिक अधिकार प्राप्त हैं। जैन धर्म में स्त्रियों का आज वही स्थान है, जो प्राचीन काल में हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म में स्त्री का था। यानी उन्हें शिक्षा का अधिकार प्राप्त है। धार्मिक कार्यों में वे पुरुष के समान ही भागीदारी करती हैं। बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म में भी स्त्रियों का संघ है। खियाँ भी प्रवचन करती हैं और समाज में उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता है।
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