उन्नीसवीं सदीं में महिला प्रश्न - women's question in the nineteenth century

उन्नीसवीं सदीं में महिला प्रश्न - women's question in the nineteenth century


पश्चिम के स्त्री आंदोलनों और स्त्री विमर्श से तुलना करते हुए कई बार हम भरतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री संघर्ष की उपेक्षा कर जाते हैं। इतिहास लेखन पर भी इसी तरह का एक खास नजरिया व्याप्त है और उसका मूल्यांकन चंद महिलाओं के आधार पर करके एक सामान्य निष्कर्ष निकाल दिया जाता है। ऐसे में भारत के स्त्री-संघर्ष के इतिहास पर पुनर्विचार करना जरुरी है। स्त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है। लेकिन विश्वभर की स्त्रियों का संघर्ष उनके अपने समाज सापेक्ष है। इस संदर्भ में स्त्री संघर्ष और स्त्री विमर्श दोनों को थोड़ा अलग कर देखने की जरूरत है हाँलाकि दोनों अन्योन्याश्रित हैं।

इसलिए किसी एक देश में किसी खास परिस्थिति में चलने वाला स्त्री संघर्ष एकमात्र सार्वभौमिक सत्य नहीं हो सकता है, प्रेरणास्रोत हो सकता है। हर देश का अपना अलग-अलग बुनियादी सामाजिक ढांचा है। ऐसे आंदलनों वैश्विक विचारधारा के विकास में सहायक हो सकते हैं लेकिन यह जरुरी नहीं है कि हर आंदलनों इस वैश्विक विचारधारा की सैद्धांतिकी को आधार बना कर चले। किसी एक मुद्दे को लेकर शुरू हुआ आंदलनों अपनी चेतना में कई स्तरों पर न्याय की लड़ाई को समेटे रहता है। भारत में स्त्री संघर्ष और स्त्री अधिकार के आंदलनों को इसी रूप में स्वतंत्रता आंदलनों के परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।


भारत में महिला प्रश्नों के इतिहास का आरंभ सामान्यतः उन्नीसवीं शताब्दी से माना जाता है। यद्यपि कुछ समकालीन शोध इस बहस को और प्राचीन करार देते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय प्रेस के प्रारंभ होने के बाद महिला प्रश्नों को सामाजिक बहस के रूप में प्रमुखता मिलने लगी। सर्वप्रथम समाज सुधारकों और राष्ट्रवादियों द्वारा इस मुद्दे पर कार्य किया गया और अंततः समकालीन समय में उन लोगों ने इसका अध्ययन करने की कोशिश की जो समाज में बढ़ती असमानता, गरीबी और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर काम कर रहे थे। उन्नीसवीं सदीं को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा क्योंकि इस सदीं में सारी दुनिया में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति एवं क्षमताएँ बहस के विषय थे। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक बंगाल और महाराष्ट्र के समाज सुधारकों ने स्त्रियों में फैली बुराइयों पर आवाज उठाना शुरू किया।

इन दोनों राज्यों से ब्रितानियों का संबंध भारत के अन्य भागों की अपेक्षा पहले बना । अट्ठारहवीं शताब्दी में बंगाल में आयी ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिये लोगों ने ब्रितानियों के बारे में जाना। व्यापारिक रिश्ते बढ़ते बढ़ते प्रभुत्व व शासन में तब्दील हो गए तथा ब्रितानियों और भारतीयों के बीच पनपे मतभेद स्पष्ट दिखाई देने लगे।


आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि उन्नीसवीं शताब्दी का भारतीय समाज सुधार आंदोलन इस मुठभेड़ की ही उपज था। अट्ठारहवीं शताब्दी में भारत परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था - उदाहरणार्थ- अट्ठारहवीं शताब्दी में जो जाति विरोधी आंदोलन विकसित हुआ,

महाराष्ट्र में उसका एक लंबा इतिहास रहा है। आंशिक तौर पर सदी के आखिर में ब्राह्मणों का नियंत्रण भी पेशवा शासन के विघटन के कारण कम होने के कारण उसमें तेजी आई हालांकि ब्राह्मणों ने बाद में अंग्रेजों की छत्रछाया में स्वयं को पुनः एक प्रभावशाली वर्ग के रूप में संगठित कर लिया। इसी तरह इसी तरह जाने-माने समाज सुधारक राजा राममोहन राय भी 18वीं सदी के धार्मिक सुधारकों के सूफ़ी तर्कों से उतने ही प्रभावित थे जितने अंग्रेज़ तर्कवादियों से। सुधार आंदोलन सबसे पहले बंगाल में शुरू हुए जहां एक डांवाडोल 'भद्रलोक' कुलीन वर्ग बुर्जुआ में तब्दील हो रहा था जिससे वे अपने समुदाय के ऐसे लोगों को शामिल कर रहे थे जो जातिच्युत होने के कारण निषिद्ध व्यवसायों में लगे हुए थे।


कलकत्ता एक विचारोत्तेजक बौद्धिक केंद्र के रूप में उभरा। सुधारों के ज्यादातर प्रारम्भिक अभियान यहीं के बुद्धिजीवियों द्वारा चलाये गए। कलकत्ता के अनेक आंदोलनकारी छात्र एच० डेरोजियो के शिष्य थे। वह ऐसे एलो इंडियन थे जो स्वाधीनता और समानता की फ्रांसीसी क्रांति की अवधारणा से प्रभावित थे। युवा बंगाल आंदलनों के नाम से मशहूर इन समूहों ने अपना ध्यान खासतौर से जाति बंधनों की परवाह किए बगैर मांस खाने, शराब पीने और स्त्रियों को सुधारने पर केंद्रित किया।


भारतीय सामाजिक व्यवस्था भी इतनी ही दयनीय थी। समाज में सबसे निम्न स्थिति स्त्रियों की थी।

लड़की का जन्म अपशकुन, उसका विवाह बोझ एवं वैधव्य ( widowhood) श्राप समझा जाता था। जन्म के पश्चात बालिकाओं की हत्या कर दी जाती थी। स्त्रियों का वैवाहिक जीवन अत्यंत दयनीय एवं संघर्षपूर्ण था। यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी तो उसे बलपूर्वक पति की चिता में जलने को बाध्य किया जाता था। इसे सती प्रथा' के नाम से जाना जाता था। राजा राममोहन राय ने इसे शास्त्र की आड़ में हत्या की संज्ञा दी। सौभाग्यवश यदि कोई स्त्री इस क्रूर प्रथा से बच जाती थी तो उसे शेष जीवन अपमान, तिरष्कार, उत्पीड़न एवं दुख में बिताने पर बाध्य होना पड़ता था।


समाज सुधारकों ने सामाजिक बुराइयों को छू करने का प्रयास किया। समाज में स्त्रियों की दशा अत्यंत सोचनीय थी तथा उन्हें पुरुषों से नीचा समझा जाता था।

समाज में स्त्रियों की अपनी कोई पहचान नहीं थी तथा उनकी ऊर्जा एवं योग्यता पर्दा प्रथा, सती प्रथा एवं बाल विवाह जैसी बुराइयों की बलि चढ़ गये थे। हिंदू तथा मुस्लिम दोनों ही समाज में महिलायें आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पुरुषों पर आश्रित थीं। उन्हें शिक्षा ग्रहण करने की मनाही थी। हिंदू स्त्रियों को संपत्ति का कोई अधिकार नहीं था तथा विवाह में उनकी सहमति नहीं ली जाती थी। मुस्लिम स्त्रियों को हालांकि संपत्ति का अधिकार था परंतु उन्हें पुरुषों की तुलना में आधी संपत्ति ही दी जाती थी। लेकिन तलाक में पुरुष और महिलाओं में बहुत ज्यादा भेदभाव किया जाता था। बहुपत्नी प्रथा हिंदूएवं मुसलमान दोनों समुदायों में प्रचलित थी।


पत्नी एवं मातृत्व दो ही ऐसे अधिकार क्षेत्र थे, जहां महिलाओं को समाज में थोड़ी-बहुत मान्यता प्राप्त थी। सामान्यतः महिलाओं को उपभोग की वस्तु माना जाता था तथा ऐसी अवधारणा थी कि उसका जन्म पुरुषों की सेवा करने के लिये ही हुआ है। समाज में उनका अपना कोई पृथक अस्तित्व नहीं था तथा उनकी सभी गतिविधियों एवं क्रियाकलापों का निर्धारण पुरुषों द्वारा किया जाता था । यद्यपि समाज के कुछ क्षेत्र ऐसे थे, जिनमें महिलाओं ने उल्लेखनीय कार्य किये थे किंतु ऐसी महिलाओं की संख्या अत्यल्प थीं । इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जब कभी भी महिलाओं की उपेक्षा की गयी है तब-तब सभ्यता अवनति की ओर उन्मुख हुई है। समाज सुधार अभियान स्वतंत्रता संघर्ष एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अनेक ऐसे उदाहरण,

जहां महिलाओं ने उल्लेखनीय योगदान दिया है। भारतीय संविधान में महिलाओं की दशा सुधारने हेतु अनेक प्रावधान किये गये हैं।


सभी समाज सुधारकों ने महिलाओं की दशा सुधारने हेतु अपना ध्यान केंद्रित किया तथा अपील की कि महिलाओं को समाज में उनका दर्जा प्रदान किया जाये। समाज सुधारकों ने घोषित किया कि ऐसा कोई भी समाज सभ्य एवं विकसित नहीं हो सकता जहां महिलाओं से भेदभाव किया जाता हो तथा उनकी स्थिति दोयम दर्जे की हो। समाज सुधारकों ने स्त्रियों के विरुद्ध आरोपित की गयी विभिन्न कुरीतियों आलोचना की तथा इन्हें छू करने के लिये प्रशंसनीय कदम उठाये। इन्होंने सरकार से भी अपील की कि वह समाज में महिलाओं की दशा सुधारने हेतु पहल करे एवं स्त्रियों से संबंधित विभिन्न कुप्रथाओं को दूर करने हेतु कदम उठाये। उन्होंने मांग की कि महिलाओं की मध्यकालीन तथा सामंतकालीन छवि को दूर किया जाये। समाज सुधारकों के इन्हीं प्रयासों का प्रतिफल था कि सरकार ने स्त्रियों की दशा सुधारने हेतु अनेक कदम उठाये तथा अनेक कानून बनाये गये।