रामनरेश त्रिपाठी काव्यगत वैशिष्ट्य - Ramnaresh Tripathi: Personality and Works
कविवर रामनरेश त्रिपाठी नवजागरण हिन्दी नवजागरण काव्य के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। उनकी कविता में नवजागरणकालीन काव्य की सम्पूर्ण विशेषताएँ एक साथ उपलब्ध होती हैं। नवजागरणकाल में राष्ट्रीयता, समाज-सुधार, स्वातन्त्र्य चेतना, मानवतावाद, सामाजिक समरसता एवं गाँधीवाद का बोलबाला था। त्रिपाठीजी ने अपनी रचनाओं में इन मूल्यों का पर्याप्त समावेश करते हुए युगबोध एवं सामयिकता का परिचय दिया है। उनकी आकांक्षा है कि प्रत्येक मानव अपनी पूरी शक्ति से उठ खड़ा हो, उसे अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों की पूरी समझ हो और अत्याचारों का वह पुरजोर विरोध कर सके। रूढ़ीवादी मान्यताओं को दूर करने का दृढ़ संकल्प भी उनकी रचनाओं में मौजूद है। सामाजिक व्यवस्था को सँवारने के प्रति उनकी कविताओं में विशेष आग्रह दिखाई देता है।
राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना
विकसित राजनैतिक चेतना तथा सांस्कृतिक पुनरुत्थान के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता की भावना हिन्दी नवजागरण काव्य की केन्द्रीय विषय रही है। रामनरेश त्रिपाठी की कविता का मुख्य स्वर भी राष्ट्रीयता ही है। कविवर त्रिपाठी अपनी रचनाओं में देशभक्ति का प्रणयन करते हैं तथा उनके माध्यम से क्रान्ति तथा आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा देते हैं एवं परतन्त्रता के बन्धन तोड़ डालने का सन्देश देते हैं-
सच्चा प्रेम वही है जिसकी, तृप्ति आत्म बल पर हो निर्भर । त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर ॥ देश-प्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित । आत्मा के विकास से जिसमें मनुष्यता होती है विकसित ॥
सामाजिक सरोकार
रामनरेश त्रिपाठी जिस सामाजिक परम्परा के रचनाकार हैं, उसका आधार भारतीय नवजागरण से उत्पन्न सांस्कृतिक और राजनैतिक मूल्य हैं। हिन्दी नवजागरण काव्य को सुधारवादी काव्य भी कहा जाता है। रामनरेश त्रिपाठी अनेक सामाजिक समस्याओं तथा धार्मिक जड़ताओं को अपनी कविता का विषय बनाते हैं। जिस समय
और समाज ने उनकी रचनात्मक दृष्टि का निर्माण किया है और उसे सामाजिक प्रतिबद्धता से जोड़ा है, वह समय और समाज भारत में सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलन की चरम अवस्था है।
तत्कालीन आन्दोलनों के मूल में भारतीय सामाजिक चिन्तन की एक व्यापक और मानवीय भूमिका दिखाई देती है। रामनरेश त्रिपाठी भारतीय स्वतन्त्रता के निहितार्थ सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक सुधारों को राजनैतिक चेतना से जोड़कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सामाजिक आन्दोलन का सूत्रपात करते हैं। उनकी कविताएँ जहाँ तत्युगीन सामाजिक परिस्थितियों के प्रति ध्यानाकर्षित करती हैं, वहीं समसामयिक समस्याओं के प्रति एक गहन चिन्ता भाव भी उनमें दिखाई देता है -
तुम मनुष्य हो, अमित बुद्धि-बल- विलसित जन्म तुम्हारा । क्या उद्देश्य रहित है जग में, तुमने कभी विचारा ? बुरा न मानो, एक बार सोचो तुम अपने मन में । क्या कर्त्तव्य समाप्त कर लिए तुमने निज जीवन में।
(- पथिक, द्वितीय सर्ग)
आदर्शवाद एवं नैतिकता
रामनरेश त्रिपाठी काव्य में आदर्श एवं नैतिकता के प्रबल पक्षधर थे। अपने रचनात्मक तेवर और समर्पित जीवन शैली के कारण वे आदर्शवाद एवं नैतिकता का समर्थन करते हैं। जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठापनार्थ वे अभिव्यक्ति के केन्द्रीयकरण पर बल देकर उसे असीम शक्तिशाली बना देते हैं। उनकी कविताएँ उच्च मानवीय आदर्शों और उच्चतर सामाजिक चेतना के यथार्थबोध का लक्ष्य लेकर चलती हैं जिनका मानवमात्र के लिए समर्पित दृष्टिकोण अपनी बुनियादी शर्तों के कारण और भी महत्त्वपूर्ण हो उठता है।
इसीलिए उनका रचनात्मक दृष्टिकोण निरन्तर प्रवाहमान है। उनकी कविताओं का केन्द्र बिन्दु मानव हित है। मनुष्य के सारे अनुभव अपनी पूरी गहनता और संवेदना के साथ दूसरों तक सम्प्रेषित हो जाएँ, यही उनका परम लक्ष्य है। उनके द्वारा विरचित नीतिपरक दोहे द्रष्टव्य हैं-
विद्या, साहस, धैर्य, बल, पटुता और चरित्र । बुद्धिमान के ये छवी, हैं स्वाभाविक मित्र ॥
नारिकेल सम हैं सुजन, अन्तर दया निधान । बाहर मृदु भीतर कठिन शठ हैं बेर समान ॥
आकृति, लोचन, बचन, मुख, इंगित, चेष्टा, चाल । बतला देते हैं यही, भीतर का सब हाल ॥
स्थान- भ्रष्ट कुलकामिनी, ब्राह्मण सचिव नरेश । ये शोभा पाते नहीं, नर, नख, रद, कुच, केश ॥
शस्त्र, वस्त्र, भोजन, भवन, नारी सुखद नवीन । किन्तु अन्न, सेवक, सचिव, उत्तम हैं प्राचीन ॥
व्यक्तिगत जीवन की पद्धत्ति जब समष्टि की संवेदना के साथ संधारित हो जाती है तब अनुभव की सामाजिक परम्परा जन्म लेने लगती है। धीरे-धीरे व्यक्तिगत संवेदना का रूपान्तरण सामाजिक संवेदना के साथ एक ओर तो संघर्ष की प्रक्रिया से जूझता है और दूसरी ओर उसकी दृष्टि को भी विकसित करता है। किन्तु यदि अनुभव की संवेदना आदर्श एवं नैतिक मूल्यों की पहचान न बन सके तो एक ओर जहाँ उसकी संवेदना जड़ होने की प्रक्रिया में आ जाती है,
वहीं दूसरी ओर व्य क्तिवादिता और आत्मनिर्वासन की जड़ इतनी गहरी हो जाती हैं कि सम्पूर्ण मानसिकता ही संज्ञा शून्य और विद्रूप हो जाती है। व्यक्तित्व के विकास की पहली दशा आदर्शवादी एवं नैतिक प्रक्रिया है जबकि दूसरी दशा लगातार जड़ होते भावबोध की एकालाप स्थिति । कवि रामनरेश त्रिपाठी की कविताएँ अपनी यात्रा पहली दशा से आरम्भ करके उसे क्रमशः पूर्ण करती हैं। उनके द्वारा विरचित 'मानसी', 'मिलन', 'पथिक' आदि रचनाएँ आदर्शवादी हैं। उनके काव्य-यात्रा की संवेदनशीलता व चिन्तन की गहराई निम्नलिखित पंक्तियों से अनुभव की जा सकती है-
कभी उदर ने भूखे जन को प्रस्तुत भोजन पानी । देकर मुदित भूख के सुख की क्या महिमा है जानी ? मार्ग पतित असहाय किसी मानव का भार उठा के । पीठ पवित्र हुई क्या सुख से उसे सदन पहुँचा के ?
(- पथिक, द्वितीय सर्ग)
प्रेम चित्रण
रामनरेश त्रिपाठी अपनी काव्यगत प्रस्तुति में प्रेम के आदर्श स्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रेम जीवन की अद्भुत शक्ति है तथा उसके बिना जीवन अर्थहीन है। उन्होंने अपनी कविताओं में प्रेम का चित्रण रीतिकालीन कवियों की भाँति नहीं किया है। उनके यहाँ प्रेम के निहितार्थ प्रयुक्त शब्दों एवं संवेदनाओं का विस्तार व्यापक है। उनकी प्रेमानुभूति उनके मानस से निकलकर संसार के हरेक प्राणी की अनुभूति बन गई है। उनका हृदय हर पीड़ित का हृदय है जिसमें विश्व के सारे सुख-दुःख समाहित हैं। वे मानवता की मर्यादा और उसकी अनन्त सीमाओं को जानते हैं और उसका निर्वाह करने के आकांक्षी हैं।
प्रेम के उदात्त स्वरूप को अनुभूति और चिन्तन दोनों स्तरों पर प्रस्तुत करने में त्रिपाठीजी सफल हुए हैं। प्रेम की महिमा का गुणगान करतीं निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-
गन्ध विहीन फूल हैं जैसे चन्द्र चन्द्रिका हीन । यों ही फीका है मनुष्य का जीवन प्रेम-विहीन ॥ प्रेम स्वर्ग है, स्वर्ग प्रेम है, प्रेम अशंक अशोक । ईश्वर का प्रतिबिम्ब प्रेम है, प्रेम हृदय- आलोक ॥
प्रकृति-चित्रण
हिन्दी नवजागरण काव्य में वर्ण्य विषय का अद्भुत विस्तार देखने को मिलता है। यह अकारण नहीं है कि रामनरेश त्रिपाठी सदृश संवेदनशील कवि ने प्रकृति को भी स्वतन्त्र रूप में काव्य का विषय बनाया है।
जीवन और जगत् के प्रायः समस्त दृश्यों और पदार्थों को काव्य का विषय बनाते हुए वे अपनी रचनाओं में प्रकृति का बड़ा ही मनोहारी चित्रण करते हैं। मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति का उपयोग वे खास ढंग से करते हैं। वे प्रकृति के इर्द-गिर्द नहीं घूमते अपितु प्रकृति और उसके बिम्बों को मनुष्य की दुनिया के इर्द-गिर्द घुमाते हैं। वे मानव जीवन में व्याप्त विषमता, असमानता, निरर्थकता आदि को काव्य संवेदना के स्तर पर प्रकृति के माध्यम से भी प्रकट करते हैं। उदाहरण देखिए-
या अनन्त के वातायन से स्वर्गिक विपुल विमलता । झलक रही थी धरा धाम को थी धो रही धवलता ॥ सुख की निद्रा में निमग्न था एक-एक तृण वन का। था बस, सुखद सुशीतल स+सन मन्द प्रवाह पवन का ॥
शिल्पगत वैशिष्ट्य
जीवन, समाज और संस्कृति के चिन्तक रामनरेश त्रिपाठी की सभी विधाओं पर समान रूप से गहरी पकड़ है। उनकी दृष्टि तत्युगीन परिवेश, भाषा, छन्द योजना आदि पर समान रूप से पड़ती है। उनकी कविताओं की भाषा का तेवर खड़ीबोली है। भौगोलिक दूरियों को तय करती हुई हर अंचल में हल्का छायान्तरण लिए हुए वह अपना मूल रूप सुरक्षित रखती है। उनके पास विपुल शब्दावली है। अपनी रचनाओं में भावनाओं का समावेश कर वे कथ्य को सम्प्रेषणीय एवं प्रभावी बनाते हैं।
त्रिपाठीजी की कविताओं में कोमलता का संचार हुआ है। सादृश्यमूलक अलंकारों में उन्हें रूपक और उपमा अलंकार अपेक्षाकृत विशेष प्रिय हैं। अपनी कल्पना शक्ति के बल पर उन्होंने नूतन उपमान विधान किया है। 'पथिक' खण्डकाव्य में उन्होंने अनेक कोमल उपमानों की योजना की है -
चंचल वीचि मरीचि वसन से सजकर नीले तन को। होड़ लगी-सी उछल रही थी चारु चन्द्र-चुम्बन को ॥ बैठ जलधि तीरस्थ शिला पर पथिक प्रेम व्रत धारी । देख रहा था छटा चन्द्र की चित्त विमोहनहारी ॥
कविवर त्रिपाठी की रचनाओं का छन्द विधान प्रभावी है।
छन्दों को संगीत के साँचे में ढालकर उन्हें प्रसंगानुकूल एवं भावानुकूल बनाया गया है। भिन्न-भिन्न भावों की अभिव्यक्ति अलग-अलग छन्दों में की गई है। त्रिपाठीजी के काव्य में भाव के साथ-साथ छन्द परिवर्तित होता रहता है तथा पंक्तियाँ छोटी-बड़ी होती रहती हैं।
कविता में प्रतीकों का सहारा कवि को वहाँ लेना पड़ता है जहाँ सामान्य भाषा में प्रभावी अभिव्यक्ति करना सम्भव नहीं हो पाता । कभी-कभी कुछ शब्द अपना प्रतीकार्थं व्यक्त करते हुए रूढ़ बन जाते हैं। रामनरेश त्रिपाठी काव्यानुभूति की सार्थक अभिव्यक्ति हेतु प्रतीकों का भी आश्रय लेते हैं। 'मिलन' तथा 'स्वप्न' खण्डकाव्यों में प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग कर सूक्ष्म भावों एवं व्यापारों को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
काव्य-कला का अपूर्व चमत्कार वहाँ सहज ही परिलक्षित होता है।
काव्य का शिल्प उसके वक्तव्य के अनसार होता है। रामनरेश त्रिपाठी की कविताएँ मानवीय कल्याण व लोकहित को साथ लेकर चलती हैं, इसलिए उनकी शैली सांकेतिक और चित्रात्मक न होकर प्रायः उपदेशात्मक हो गई है।
'पथिक' का सन्देश
'पथिक' रामनरेश त्रिपाठी-कृत प्रसिद्ध खण्डकाव्य है जिसका प्रकाशन वर्ष 1920 ई. में हुआ। यह कृति रामनरेश त्रिपाठी को चिन्तनशील और ईमानदार कवियों की श्रेणी में स्थापित करती है।
'पथिक' के माध्यम से कवि निजी सुख और स्वार्थ को त्याग कर राष्ट्र के लिए अपना सब कुछ अर्पित करने का आह्वान करता है।
समाजशास्त्र में इस रचनात्मक चिन्तन प्रक्रिया को चेतना की संज्ञा दी गई है। परम्पराओं और रूढ़ियों के कारण उपजी जड़ता को नष्ट करते हुए जो विचार, बुद्धि और विवेक मनुष्य को नये मार्ग, नये उपाय और नयी उपलब्धियों की ओर प्रेरित करें तथा जिसके प्रभाव से व्यक्ति व समाज एक नया जागरण अनुभव करने लगे, वस्तुतः वही स्थिति चेतना है। मनुष्य और सभ्यता की आधारभूमि व्यक्ति की स्वतन्त्र चेतना नहीं है, अपितु समेकित सामाजिक चेतना का स्वतन्त्र होना ही मानवीय सभ्यता का आधार है। प्राणियों के अभाव और दुखों की तीव्रता का अनुभव उनके स्तर पर पहुँचकर ही अनुभव किया जा सकता है।
जब रचनाकार परदुःखकातर होकर वंचितों की पृष्ठभूमि को पूरी तरह से आत्मसात कर लेता है तभी उसकी रचना वास्तविक हो अमरत्व को प्राप्त कर पाती है। रामनरेश त्रिपाठी 'पथिक' में आदर्श जीवनमूल्य और नैतिकता को रेखांकित करते हुए लोकमंगल की कामना करते हैं । उनका रचनात्मक चिन्तन मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक साथ समेटते हुए विकसित होता है।
कथावस्तु
साहित्य समाजदर्शन और सामाजिक प्रेरणा का शास्त्र है। समसामयिक समाजदृष्टि को परिभाषित, व्याख्यायित और पुरातन मूल्यों को प्रतिष्ठित करने में साहित्य की विशिष्ट भूमिका रही है।
साहित्य मनुष्य के विवेक, बुद्धि, अस्तित्व और विकास का आधार है। किसी भी साहित्यिक रचना में सामाजिक विवेक का जागरण, सार्वजनिक एवं सार्वभौमिक हित-चिन्तन तथा अमानवीय शक्तियों से संघर्ष का उद्घाटन अपेक्षित होता है। कोई समाज जब किन्हीं खास कारणों से अपनी बद्धमूल धारणाओं में परिवर्तन करता है और किसी नयी वैचारिक चिन्तनधारा को ग्रहण करता है, ऐसा परिवर्तन उस समाज का नवजागरण कहा जाता है। 'पथिक' की कथावस्तु भी मानवतावाद की नवीन वैचारिकता से सम्पृक्त है।
'पथिक' की मूल कथा कुल पाँच सर्गों में विभक्त है। प्रथम सर्ग में प्रकृति (वन) वर्णन है। वन के मनोरम दृश्यों के प्रति आसक्त पथिक के लिए मानव जीवन में दुखों की भरमार है,
मनुष्य जगत् में असह्य पीड़ा है। अतः मनुष्य जीवन के दुखों का वर्णन करते हुए वह उससे घृणा प्रकट करता है। उसकी दृष्टि में मनुष्य जगत् से वन कहीं अधिक सुखदायक है। द्वितीय सर्ग में पथिक, उसकी पत्नी और साधु का प्रसंग नियोजित है । कर्ममय जगत् से विरक्त पथिक पर उसकी पत्नी के निवेदन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता फलस्वरूप वह लौट जाती है। तभी वहाँ एक साधु आकर पथिक को कर्ममय जगत् का गूढ़ रहस्य समझाते हैं। वैराग्य को पथिक के विचारों की भूल बताकर वे उसे पुनः मनुष्य जगत् में जाकर कर्म करने की अभिप्रेरणा देते हैं। वे उसे समझाते हैं कि मनुष्य के पास पौरुष, साहस, सत्य, न्याय, श्रद्धा, करुणा, उदारता, सुशीलता, सज्जनता,
धर्म और क्षमा आदि ईश्वर की धरोहर हैं। समाज में रहकर उसे इनका सदुपयोग करना चाहिए। तृतीय सर्ग में पथिक को अपनी भूल का अहसास होता है। तथा वह कर्ममय जगत् की ओर लौटने का दृढ़ संकल्प लेता है। वह देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रमण करता है जहाँ उसे अनुभव होता है कि देश में सर्वत्र व्याप्त दरिद्रता ही राष्ट्र की दयनीय स्थिति का मूल कारण है। समाज में व्याप्त छल, आपसी फूट, दम्भ और विश्वासघात से वह व्यथित हो उठता है। देश का प्राकृतिक सौन्दर्य जहाँ उसे उत्साहित करता है, वहीं लोगों का मालिन्य देखकर वह उदास हो जाता है। समाज की दयनीय स्थिति उसके लिए आश्चर्यजनक है। सामाजिक दुर्दशा के लिए पथिक राजा को उत्तरदायी मानता है, क्योंकि राजा अपने स्वार्थसिद्धि के अनुकूल तथ्यों को ही नीति और अपने वचन को ही राजनियम स्वीकार करता है।
इन स्थितियों से खिन्न हो पथिक मानव कल्याण के निमित्त प्रजा को एकजुट करता है तथा राजा से भेंट करने का निश्चय करता है। राजा के सम्मुख उपस्थित हो वह राजा को सुशासन की सलाह देता है। किन्तु राजा पर पथिक के सुझावों का कोई असर नहीं पड़ता बल्कि पथिक के सुझावों से उसे असह्य क्रोध उत्पन्न होता है। चतुर्थ सर्ग में निरंकुश राजा पथिक को अपराधी घोषित करते हुए उसे मृत्युदण्ड सुनाता है। प्रजा राजा के इस निर्णय से बहुत आहत होती हैं। इसी सर्ग में कवि ने कर्मपथ पर अग्रसर पथिक, उसकी पत्नी, पुत्र और साधु के प्राणोत्सर्ग का उल्लेख किया है। पंचम और अन्तिम सर्ग में कवि पथिक की हत्या के बाद की स्थिति का वर्णन करता है। पथिक की हत्या के उपरान्त प्रजा को कर्त्तव्यबोध होता है। प्रजा के विद्रोह से भयभीत राजकर्मी राजा का साथ छोड़ देते हैं। राजा अपने राजमहल में अकेला हो जाता है । अन्ततः प्रजा निरंकुश राजा को देश की सीमा से बाहर निकाल देती है और इस प्रकार पथिक के बलिदान के परिणामस्वरूप देश में प्रजा के प्रतिनिधियों का शासन स्थापित होता है तथा स्वराज्य का शुभारम्भ होता है।
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