मार्क्सवाद - marxism
आधुनिककाल में प्रायः सभी साहित्यकारों पर मार्क्सवाद का न्यूनाधिक प्रभाव पड़ा। मुक्तिबोध भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनका लेखन छायावाद से प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे उनका झुकाव मार्क्सवाद की ओर हो गया। स्वयं मुक्तिबोध के शब्दों में "क्रमशः मेरा झुकाव मार्क्सवाद की ओर हुआ। अधिक वैज्ञानिक, अधिक मूर्त और अधिक तेजस्वी दृष्टिकोण मुझे प्राप्त हुआ।" तात्पर्य यह है कि मार्क्सवाद के प्रति मुक्तिबोध की आस्था आकस्मिक या भावुकतावश न होकर उनके चिन्तन, गम्भीर अध्ययन तथा अनुभूत वास्तविकताओं के आधार पर जाग्रत हुई।
मार्क्सवादी दर्शन से ओतप्रोत मुक्तिबोध के काव्य का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के संशोधन, परिशोधन के द्वारा एक सामाजिक सत्य की उपलब्धि से साक्षात्कार करना है।
वे इस युग के सामाजिक संघर्ष को आत्म विश्लेषण के माध्यम से समझकर अपनी अन्तर्वेदना को संगत और पूर्ण निष्कर्षो तक ले जाने वाले कवि हैं। उनके काव्य में मार्क्सवाद के प्रमुख विचारों द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद, मार्क्सवाद : बुनियादी नियम, परिवर्तन तथा रूपान्तरण, परम्परा और प्रगति, वर्ग संघर्ष, धर्म और ईश्वर का विस्तृत चित्रण मिलता है।
पूँजीवाद और शोषण-तन्त्र
मुक्तिबोध पूँजीवादी व्यवस्था के प्रबल आलोचक थे। उनका यह मानना था कि श्रमजीवी मानव समाज और पूँजीवाद साथ-साथ नहीं चल सकते क्योंकि इस व्यवस्था में पूँजी चन्द व्यक्तियों के नियन्त्रण में होती है,
उत्पादन के साधन और सामग्री पर भी उन्हीं का अधिकार होता है। इस व्यवस्था में श्रम को खरीदा जाता है और मुनाफा हड़पना इसका एकमात्र उद्देश्य होता है। उन्होंने अपनी कई कविताओं में पूँजीवादी व्यवस्था का खुलकर विरोध किया है। वे शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने को कवि का पहला कर्तव्य मानते हैं इसीलिए उन्होंने अपने काव्य में पूँजीवाद और शोषण के विविध रूपों और आयामों का चित्रण किया है। उन्होंने शोषण की प्रक्रिया को चित्रित करते हुए अपने काव्य में उसे क्रान्ति का कारगर औजार बनाने का भी प्रयास किया है।
सर्वहारा वर्ग
मुक्तिबोध के जीवन-दर्शन में मार्क्सवादी दर्शन को सर्वाधिक महत्त्व मिला है।
मार्क्सवाद का मूलाधार सर्वहारा वर्ग है, जो समाज में आर्थिक वैषम्य के कारण शोषित और पीड़ित है। लेनिन के शब्दों "साहित्य समस्त शोषित वर्ग की सामूहिक मुक्तिके लिए किया जाने वाला प्रयास है" को मानते हुए मुक्तिबोध ने इस वर्ग के दर्द को अपने काव्य में बड़े बेबाक ढंग से व्यक्त किया है। उनकी इसी प्रवृत्ति को लक्ष्य करके डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने कहा है- “मुक्तिबोध का काव्य ऐसा नर काव्य है, जिसमें नारायण के आँखों की व्यथा भरी है।" मुक्तिबोध ने अपने काव्य में न सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग की समग्र समस्याओं का ही चित्रण किया है वरन् उसकी भरपूर प्रतिष्ठा करते हुए उसकी विमुक्ति और उद्धार का संकल्प भी उद्भासित किया है।
क्रान्ति चेतना
शोषक और शोषित वर्ग में सदैव ही विरोधी भावनाएँ व्याप्त रहती हैं और इसके परिणामस्वरूप इनमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में अनवरत संघर्ष होते रहते हैं। शोषण के विरुद्ध संघर्ष का भाव ही क्रान्ति है । मुक्तिबोध ने शोषण के अन्त और सर्वहारा वर्ग के उत्थान के लिए क्रान्ति को अनिवार्य माना है। डॉ० जनक शर्मा के शब्दों में "मार्क्सवाद की तरह जनक्रान्ति एवं जनसंघर्ष में मुक्तिबोध का विश्वास है। समाज में फैली अव्यवस्था और सत्ताधारियों की निरंकुशता को समाप्त करने के लिए क्रान्ति आवश्यक है। उनका विश्वास है कि एक क्रान्तिपुरुष आएगा, जो नया सवेरा लाने में सफल होगा। उसी का रक्तप्लावित स्वर पीड़ित जनसमुदाय की पराजय का बदला चुकाएगा।"
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