'अँधेरे में' कविता का मूल प्रतिपाद्य - Original version of the poem 'in the dark'
सन् 1934 में श्रीकान्त वर्मा के सद्प्रयासों से मुक्तिबोध का प्रथम प्रामाणिक संकलन ' चाँद का मुँह टेढ़ा है' प्रकाशित हुआ। इस काव्य-संग्रह में संकलित कविता 'अँधेरे में' अत्यन्त सशक्त और सर्वाधिक लम्बी कविता है। यह कविता आठ खण्डों में विभक्त है, जो मुक्तिबोध का पूर्णतः प्रतिनिधित्व करती है। मुक्तिबोध ने पहले इस कविता का शीर्षक 'आशंका के द्वीप: अँधेरे में' रखा था, लेकिन प्रकाशन के समय सिर्फ़ 'अँधेरे में' रहने देने की इच्छा प्रकट की। उनकी इच्छा के अनुरूप श्रीकान्त वर्मा ने मूल शीर्षक से 'आशंका के द्वीप हटा दिया। अनेक विद्वानों और आलोचकों ने अपने-अपने ढंग से इस कविता को समझने और टिप्पणी करने का प्रयत्न किया है। कुछ विद्वानों के कथन द्रष्टव्य हैं-
शमशेर बहादुर ने 'अँधेरे में' को मुक्तिबोध की विशिष्ट देन स्वीकार करते हुए कहा है कि- "यह कविता देश के आधुनिक जन इतिहास का, स्वतन्त्रता के पूर्व और पश्चात् का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज है। इसमें अजब और अद्भुत रूप से व्यक्ति और जन का एकीकरण है। देश की धरती, हवा, आकाश, देश की सच्ची मुक्ति की आकांक्षा नस-नस में फड़क रही है। "
डॉ० रामदरश मिश्र के अनुसार " 'अँधेरे में' एक ऐसी लम्बी कविता है जो अपना प्रतिमान स्वयं है। यह न तो किसी कथा पर आधारित है और न तो अपने जीवन की ऊहापोह से गुजरती है,
न बने बनाये आशावाद के सरल मार्ग से चलती है और न जुगुप्सा, निराशा, यौन पिपासा के कीचड़ में पाँव धँसाकर चलती है। यह एक ऐसी कविता है जो स्वयं सामाजिक सन्दर्भों से कथा गढ़ती है।"
डॉ. प्रभाकर माचवे के अनुसार - " 'अँधेरे में' एक ऐसी कविता है जिसमें उनकी काव्यात्मक शक्ति के अनेक तत्त्व घुल मिलकर एक महान् रचना की सृष्टि करते हैं। जो अत्यधिक यथार्थवादी और एकदम आधुनिक हैं। "
नामवर सिंह के शब्दों में "इस कविता का मूल कथ्य है अस्मिता की खोज। किन्तु कुछ अन्य व्यक्तिवादी कवियों की तरह खोज में किसी प्रकार की आध्यात्मिकता या रहस्यवाद नहीं,
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बल्कि गली-सड़क की गतिविधि, राजनैतिक परिस्थिति और अनेक मानव चरित्रों की आत्मा के इतिहास का वास्तविक परिवेश है । आज के व्यापक सामाजिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में जीने वाले व्यक्ति के माध्यम से ही मुक्तिबोध ने 'अँधेरे में' कविता में अस्मिता की खोज को नाटकीय रूप दिया है।"
कविता के मूल प्रतिपाद्य को समझने के लिए उसका संक्षिप्त विश्लेषण इस प्रकार है-
मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' में दो नायक हैं- एक, काव्य-नायक, जो कवि और मध्यमवर्गीय बौद्धिक वर्ग हैं। वह आधुनिकता के बोध से ग्रस्त है और स्वतन्त्रता के बाद उसकी चेतना बहुविभाजित और जनविरोधी हो गई है।
उसके अन्तर्मन की छटपटाहट से ही कविता का आरम्भ होता है और वह कविता के दूसरे नायक स्वप्न नायक को मनु, श्वेताकृति, रक्तालोक स्नात पुरुष, सम्भावित स्नेह सा प्रिय, आजानुभुज, रहस्यमय व्यक्ति, अब तक न पायी गई अभिव्यक्ति, आत्मा की प्रतिमा, हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव, निज सम्भावना और प्रतिभा आदि के रूप में बार-बार देखता है।
कविता के प्रथम खण्ड में कवि की उत्कट रचनात्मक बेचैनी दिखाई पड़ती है। इसमें मुक्तिबोध ने काव्य- नायक के माध्यम से मानवीय विवशता का बड़ा सजीव और मार्मिक चित्रण किया है।
वहीं दूसरे खण्ड में कवि परम्परागत अन्ध-शोषक परम्पराओं को त्याग कर जीवन और मानवीयता को खुली, संवेदनात्मक दृष्टि से देखने की प्रेरणा देते हैं, जिससे काव्य-नायक खोये हुए व्यक्ति का शोध करने के लिए उसकी खोज में निकल पड़ता है।
कविता के तीसरे खण्ड में फैंटेसी का वास्तविक प्रारम्भ होता है, इसमें काव्य-नायक को यह पता नहीं चल पाता कि वह सपना देख रहा है या जागा हुआ। उसे समकालीन सामाजिक यथार्थ और उसके आतंककारी स्वरूप का एहसास होता है। चिन्ता की भयावह स्थिति में उसे युद्ध और शान्ति से लेखक तालस्ताय की याद आती है।
यहाँ तालस्ताय की याद आना मानवता की शान्ति, सुख-समृद्धि की परिकल्पना का प्रतीक मिथ प्रतीत होता है । इसी समय एक जुलूस निकलता है जिसमें शहर के विशिष्ट वर्गों के लोग नज़र आते हैं, जो देश में फासिस्ट सत्ता कायम करना चाहते हैं। यह लोग जन-सहानुभूति के नाम पर अपने ही निहित स्वार्थों को पूरा करना चाहते हैं। तभी जुलूस में से कुछ लोग काव्य-नायक को देख लेते हैं और उसे मारने के लिए दौड़ पड़ते हैं। स्वयं मुक्तिबोध नागपुर की एक्सप्रेस मिल में होने वाली हड़ताल के अवसर पर पत्रकार के रूप में सारे अत्याचारों की साक्षी और तथ्यों के प्रवक्ता थे, उस दौरान उन्हें आतंकित किया गया था। यह अभिव्यक्ति उसी की प्रतिक्रिया प्रतीत होती है।
चौथे खण्ड में काव्य-नायक पुनः उसी स्वप्न से जुड़ जाता है और देखता है कि हर तरफ फासीवादी ताकतों ने अपना आधिपत्य जमा लिया है। चारों ओर भय, आतंक और डर का वातावरण है। कोई इसके विरुद्ध आवाज़ उठाता है तो उसे ताकत के बल पर दबा दिया जाता है। यहाँ स्वप्न-नायक सिरफिरे पागल के रूप में दिखाई पड़ता है, जो ऊँचे स्वर में जाग्रति से परिपूर्ण गीत गाता है। तात्पर्य यह है कि अत्याचार इतना तीव्र और चरम सीमा पर था कि उसने नितान्त निरीह, अबोध और अविकसित समझे जाने वाले की चेतना को भी झकझोर दिया, जिससे उसमें नयी जाग्रति उभर कर आ गई।
मुक्तिबोध ने पागल के आत्म-उद्बोधनात्मक गीत के माध्यम से तत्कालीन कवियों और चिन्तकों के सुविधाभोगी मध्यमवर्गीय निस्संग चरित्र की भर्त्सना की है। इस गीत के कारण काव्य-नायक आत्ममंथन करता है और सोचता है कि उसकी सुविधाभोगिता और खतरा न उठाने की प्रवृत्ति के कारण ही आज देश की स्थिति इतनी भयावह हो गई है। यहाँ काव्य-नायक उन भारतीयों का प्रतिनिधित्व करता है जो निष्क्रिय रहकर व्यवस्था के दमन चक्र में पिसते रहते हैं।
पाँचवें खण्ड में काव्य-नायक विभिन्न भयावह परिस्थितियों से गुजरते हुए अन्तश्चेतना की गहराइयों में पहुँच जाता है और वहाँ जीवन में प्राप्त अनुभव,
वेदनाओं, जीवन के सत्यों के निष्कर्षों को मणियों और रत्नों के रूप में पड़े हुए पाता है । यहाँ कवि यह बताना चाहता है कि भौतिक स्तर पर प्रकृति से प्राप्त सम्पत्ति को तो हमने अपनी तिजोरियों में सुरक्षित कर लिया है, किन्तु भावनात्मक स्तर पर उच्च गरिमामय विचारों को अपनी अन्ध मानसिकता के कारण दबा दिया है। इन वैचारिक रत्नों का बहिर्गमन या अभिव्यक्तीकरण व्यवहारिक जगत् में उपयोगी और मानव हित में सहायक हो सकता है।
छठे खण्ड में काव्य-नायक अपने आन्तरिक बल, मूल्यों, बुद्धि और संघर्षशील व्यक्तित्व को छिपाने के कारण होने वाले मानवता के अहित को सोचकर व्यथित होता है और अब संघर्ष करने के लिए अग्रसर होता है।
इस दौरान वह आज तक के विभिन्न वादों की विफलता के सन्दर्भ में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है कि आधुनिक जीवनयापन के मार्ग बर्बरता को प्रश्रय देने वाले हैं, जिससे चेतना श्रमित और आहत है । इस समय काव्य- नायक तिलक की पाषाण मूर्ति के पास पहुँचता है और अनुभव करता है कि अपने आदर्श पुरुषों की सीख से हम में कुछ कर गुजरने की शक्ति आ जाती है, किन्तु साम्राज्यी पहरे और पाबन्दियाँ हमें विवश कर छोड़ देती हैं। इसी दौरान कथानायक अन्तश्चेतना के स्तर पर गाँधी को अपने समक्ष पाता है और वे उसे जनशक्ति के संगठन और श्रम से भावी का निर्माण करने की प्रेरणा देते हैं। यहाँ मुक्तिबोध यह कहना चाहते हैं कि जनशक्ति से ही नये युग का निर्माण सम्भव हो सकता है।
हमें महापुरुषों की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा करने की आवश्यकता नहीं है वरन् उनके आदर्शों से अनुप्राणित और सक्रिय होकर जीवन निर्माण करने की आवश्यकता है। इसी क्रम में गाँधी की वह मानसप्रतिमा एक शिशु (नवप्राप्त स्वतन्त्रता) काव्य-नायक को देकर गायब हो जाती है और इस प्रकार स्वतन्त्रता की रक्षा का दायित्व काव्य-नायक पर आ जाता है। शिशु कुछ देर रोता है और फिर लुप्त हो जाता है। कवि निराश है कि स्वतन्त्रता का बोझ वहन करने की शक्ति वर्तमान पीढ़ी के कन्धों में नहीं है परिणामस्वरूप स्वतन्त्रता के लिए दिये गए बलिदान व्यर्थ हो गए और इसका लाभ आमजन को नहीं मिल पा रहा है। काव्य- नायक क्रान्तिकारी व्यक्तियों की खोज में निकलता है,
लेकिन फासिस्ट शक्तियाँ उसे दबोच लेती हैं और यातनाएँ देती हैं। इस घटनाक्रम के माध्यम से कवि ने स्वस्थ और क्रान्तिकारी विचार रखने वालों को सत्ता द्वारा उत्पीड़ित करने का सजीव और यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। इस प्रताड़ना के उपरान्त भी काव्य-नायक आश्वस्त है कि देह को कुचल कर भी कठोर से कठोर सत्ता आत्मा और मन की आवाज़ को नहीं दबा सकती है।
सातवें खण्ड में काव्य-नायक को यातना गृह से मुक्ति मिल जाती है। वह जीवन के विद्रूप घिनौने यथार्थ को देखकर उससे मुक्त होने के लिए तड़पता है और तनाव का अनुभव करता है।
वह जनता को अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात कहता है क्योंकि ऐसा करने से ही फासीवादी ताकतों के अमानवीय व्यवहार से छुटकारा पाया जा सकता है। वह महसूस करता है कि आम जनता इस व्यवस्था से नाराज है किन्तु विषम परिस्थिति के कारण उनकी वैचारिक आग अभी ज्वाला की अभिव्यक्ति का स्वरूप प्राप्त नहीं कर पा रही है। चौथे बंद में काव्य- नायक देखता है कि चारों ओर क्रान्ति का वातावरण है और सभी उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। यहाँ काव्य- नायक या स्वयं मुक्तिबोध आशान्वित हैं कि मानवता के सामूहिक कर्म से पूँजीवाद का अन्त होगा और शान्ति और प्रेम का साम्राज्य स्थापित होगा ।
आठवें खण्ड में स्वप्न-कथा के रूप में फैंटेसीबद्ध क्रान्ति की शुरुआत होती है। यह क्रान्ति सशस्त्र क्रान्ति ना होकर जनक्रान्ति है, जो संकेत है कि परिवर्तन अवश्य होगा। यहाँ कवि ने सामूहिकता के भाव पर बल दिया है।
तथा कवियों, कलाकारों और अन्य बौद्धिक वर्ग की निष्क्रियता और जनहित से विरहित चेतना पर व्यंग्य करते हुए उन्हें जनभावनाओं का साथ देने की अन्तः प्रेरणा प्रदान की है। यहाँ वातावरण में चारों ओर जनक्रान्ति की लहरें उठने लगती हैं और समाज का प्रत्येक वर्ग कुछ कर दिखाने की भावना से युक्त हो गया है।
मुक्तिबोध बदलते युग की सूचना देते हुए कहते हैं कि जनक्रान्ति की लहर में फासीवादी ताकतें उड़ गई हैं, अब श्रमिक और निम्न वर्ग का साम्राज्य होगा और वह अपने श्रम से अपने भविष्य का निर्माण करेंगे। अचानक काव्य-नायक का स्वप्न भंग होता है, उसे अपनी प्रेरक शक्ति (जनक्रान्ति) की याद आती है जिसे कविता में प्रत्यक्ष रूप से प्रेमिका कहा गया है। प्रेम और प्रातःकालीन वातावरण की नवीन अनुभूति के आलोक से युक्त होकर काव्य-नायक गैलरी में आकर खड़ा होता है तो उसे वह व्यक्ति दिखाई देता है, जो स्वप्न में मिला था।
उस रहस्यमय पुरुष को अपना गुरु मानते हुए काव्य-नायक उसकी खोज में निकल पड़ता है। तात्पर्य यह है कि कवि मुक्तिबोध काव्य-नायक के माध्यम से उन व्यक्तियों की खोज करते हैं जो जीवन के सत्य और यथार्थ को समझ कर उसे सच्ची अभिव्यक्ति दे सके और सक्रिय होकर मानवता को जीवन की विद्रूप विषमताओं से अपनी क्रान्ति धर्मिता के बल पर मुक्ति दिला सके।
स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने 'अँधेरे में' कविता में देश की आजादी से पूर्व और पश्चात् की परिस्थितियों का गहन अनुभूति के साथ चित्रण किया है। इसमें फासिस्ट शक्तियों से पैदा होने वाले खतरों और उनसे छुटकारा पाने के लिए संभावित जनक्रान्ति दोनों पक्षों को बखूबी प्रस्तुत किया गया है।
इसके साथ ही मध्यमवर्गीय व्यक्ति की दशा और उसके आत्मसंघर्ष को भी यथारूप दिखाया गया है, जो एक ओर समाज में व्याप्त विकृतियों और असमानताओं के प्रति आक्रोशित है वहीं दूसरी ओर वह सुख-सुविधाओं को त्यागने के लिए भी तैयार नहीं है। इस प्रकार मध्यम वर्ग का अन्तर्द्वन्द्व और मानवीय विवशता अत्यन्त सहज, स्वाभाविक रूप से उभर कर आयी है। मुक्तिबोध ने कवि वर्ग को सन्देश दिया है कि उन्हें आत्म-अन्वेषण करते हुए उपलब्ध जीवन सत्यों से आत्म- विस्तार करना होगा और 'मैं' से 'हम' की ओर जाना होगा अर्थात् व्यक्तिकता से सामाजिकता की ओर पदार्पण करना होगा ताकि समाज में फैले हुए अव्यवस्था रूपी अन्धकार का अन्त हो सके ।
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