इंसानी दु:ख-दर्द का यथार्थ दस्तावेज - Real document of human sorrow and pain

जब सामाजिकता के पक्षधर रचनाकर्म में प्रवृत्त होते हैं, तब राजनैतिक व प्रशासनिक कुचक्र में पिसता जनसामान्य ही उनकी दृष्टि में होता है। सभ्यता और राजनीति ने संयुक्त रूप से विश्वासघात कर आमजन का ही शोषण किया है। ऐतिहासिक विवरणों से भी यह सिद्ध है कि सदियों से आमजन का निरन्तर शोषण होता रहा है फिर भी अपने भक्षक से अनजान वह अज्ञानी शोषक वर्ग के सम्मुख हाथ जोड़े खड़ा उसकी जी हुजूरी करता रहता है। रघुवीर सहाय की कविताएँ अपने में ऐसे अनेक विवरण समेटे हुए हैं। इंसानी दुःख-दर्द को देखने और समझने का उनका अपना दृष्टिकोण है और उस अनूठे दृष्टिकोण की सबसे खास बात यह है कि वे दर्द सहना भी जानते हैं

और दर्द देने वाले को प्रताड़ित करने का तरीका भी वे कर्तव्यों को कहीं भूलते नहीं और अधिकार प्राप्त करने का तरीका भी जानते हैं। वे शोषकों और अत्याचारियों के विरुद्ध हर जगह सामान्यजन के साथ खड़े दिखाई देते हैं।


'अनाज के इस्तेमाल' कविता में रघुवीर सहाय ने जनता को समकालीन राजनैतिक कुचक्र का असली रूप दिखाने का सार्थक प्रयास किया है। आजादी के बाद चुनावों के नाम पर सत्ता की छीना-झपटी की जो अखिल भारतीय प्रतिस्पर्द्धा प्रारम्भ हुई है उसने राजनीति में से ईमानदारी, सेवा, त्याग,

न्याय, नीति, निष्ठा जैसे तत्त्वों को धकिया कर बाहर निकाल दिया है और उसकी जगह छल-कपट, झूठ, लूट, बेईमानी, धोखा, सौदेबाजी और चापलूसी जैसे विध्वंसकारी तत्त्वों को प्रतिष्ठित कर दिया है। समकालीन राजनीति का अर्थ व्यवसाय हो गया हैं। पहले सत्ता का संरक्षण पाकर जो वर्ग जनसामान्य का शोषण किया करता था अब अपने धन-बल के आधार पर वह सीधे-सीधे सत्ता पर काबिज हो चुका है। अब भी उसका लक्ष्य वही है गोया अब उसकी ताकत में इजाफा हो गया है। ऐसी कुत्सित मानसिकता वाले सत्ताधारियों का आश्रय प्राप्त कर उनके चापलूस भी उन्हीं की राह पर चलते हुए कमजोर का शोषण कर रहे हैं। परिश्रम कोई नहीं करना चाह रहा।

सब नियन्त्रक की भूमिका निभाना चाहते हैं। महज़ बातें बनाने से काम चल जाए ऐसी प्रवृत्ति विकसित हो रही है। 'केवल काम भर चल जाए इस पर भी सन्तोष कहाँ ! संसार भर के भौतिक संसाधनों का सुख-लाभ उठाने की तृष्णा बलवती हो उठी है। महात्मा गाँधी को श्रद्धेय मानकर इतिश्री समझ ली गई है, उनके जीवन को कोई अपना आदर्श नहीं बनाना चाहता। कैसी भयावह स्थिति है कि कठिन परिस्थितियों में संघर्ष कर कठोर परिश्रम करने वाले वर्ग पर नियन्त्रण और शासन उस वर्ग का है जिसे बातें बनाने और लफ़्फ़ेबाजी के सिवाय कुछ नहीं आता। रघुवीर सहाय बड़ी खिन्नता के साथ इस विसंगति को उजागर करते हैं. -


पैदा कम हो रहा है क्योंकि लोग


गुलाब है


केवल बात करने वालों की नौकरियाँ


खेत खोदने वालों की नौकरियों पर निर्भर हैं अब उनकी तनख्वाहें निकल नहीं रही हैं। अनाज का इस्तेमाल तुम चाहते हो खाने के लिए।


तुम चाहते हो गाढ़े वक़्त में सहारे के लिए तुम चाहते हो दबा कर


उसी से दूसरों का धन खींचने के लिए। तुम चाहते हो दूसरों का धन


खींचने का साधन बनाए जाने के लिए ताकि उस धन से


तुम्हारे राजनैतिक कार्यकर्ताओं की तनख्वाहें दी जा सकें।


रघुवीर सहाय का कविहृदय प्रत्येक पीड़ित के दुःख से गमगीन है। उनका हृदय जनसामान्य की पीड़ाजन्य स्थिति को अनुभव करता है । वे लेखकीय मर्यादा और उसकी सीमाओं को जानते हैं इसीलिए साहित्यकार वर्ग से उस सीमा से बाहर निकल राजनैतिक-सामाजिक चेतना को जाग्रत करने का आग्रह करते हैं।

वे मनुष्य को साहित्य का केन्द्रबिन्दु मानते हैं और उसी के कल्याण हेतु रचनात्मक निर्वाह चाहते हैं-


... साहित्य के संकरे मोर्चे यहाँ बंद हो जाते हैं और यह बात लेखकगण कभी जान नहीं पाते इसीलिए लेखक हो जाने के साथ-साथ लेखक न रहना ज़रूरी है। रचना के धर्म में कभी तो पवित्रता त्याग कर लेखक काग़ज कलम की पूजा के बिना लेखक बना रहे।


सभ्यता के परिवर्तित होते स्वरूप के साथ कविकर्म कठिन होता जा रहा है।

समकालीन परिवेश में वही कविता श्रेष्ठ है जो जीते हुए आम आदमी के यथार्थ का, उसके रोजमर्रा के संसार का सूक्ष्म निरीक्षण-विश्लेषण करे और अपने में समाहित कर ले। रघुवीर सहाय की कविताएँ इस मायने में श्रेष्ठ हैं। उनके रचनाएँ लेखकीय दायित्वों का निर्वहन करने में सफल हुई हैं। आम आदमी के साधारण संसार से उनका रिश्ता सहज, मानवीय, सरल, आत्मीय और जीवन्त है। राजनैतिक तन्त्र द्वारा पीड़ित एवं शोषित जनसाधारण के दुखों जैसे भ्रष्टाचार, दुराचार, अनैतिकता, जातिवाद, भाषावाद आदि का स्वर उनकी रचनाओं में मुखरित है जिन पर उनकी संवेदना का मार्मिक आवरण छाया हुआ है।