यान्त्रिकता और अमानवीयता का विरोध - Resistance to mechanicalness and inhumanity

समकालीन हिन्दी कविता पर अनजाने ही एकरसता छा रही है जिससे रचनाओं में यान्त्रिकता का खतरा बढ़ गया है। गहरी संवेदनाओं से उपजी रघुवीर सहाय की कविताएँ इस एकरसता को भंग करती है और रचनाओं की भेड़चाल में अपनी एक अलग पहचान बनाती हैं स्वतन्त्रता-प्र -प्राप्ति के उपरान्त भारत में राजनैतिक-सामाजिक नाकारापन और निषेधात्मक प्रवृत्तियों में विस्तार हुआ। राजनैतिक और प्रशासनिक क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार ने भयावह तीव्रता के साथ आधारभूत मानवीय ढाँचे को भी प्रभावित किया। रघुवीर सहाय की कविताएँ जहाँ समसामयिक राजनैतिक प्रशासनिक ढाँचे को आड़े हाथों लेती हैं, वहीं सामाजिक दुरावस्था के प्रति एक गहन चिन्ता भाव भी उनकी रचनाओं में प्रकट हुआ है।

लोकतन्त्र की उदार व्यवस्थाएँ इतनी फलदायक थीं कि जनता ने ध्वस्त होते हुए सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों की चिन्ता छोड़ दी और अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लग गए। नव धनाढ्यों की बाढ़-सी आने लगी। राष्ट्र, समाज और नैतिकता की रक्षा करने वाले स्तम्भ धाराशायी होने लगे। मौकापरस्त लोग पाखण्ड, छल-छद्य, मक्कारी और बेईमानी के द्वारा धन संचय करने लगे। सामाजिक मूल्यवत्ता को नष्ट करने वाले अवसरवादी लोग ही उसी समाज के गणमान्य, कर्णधार और निर्णायक महानुभाव बन बैठे । राजनेताओं के पिछलग्गू लोग उनके प्रभामण्डल से प्रकाशित हो समाज पर आधिपत्य जमाने लगे । राजनेताओं द्वारा मानव कल्याण व प्राणिमात्र के सुख-सुविधा की घोषणाएँ होती रहीं,

अनुदान स्वीकृत होते रहे जबकि वास्तविकता यह थी कि स्थानीय जननायकों का विश्वासघात, स्वार्थपरता और पतित सोच अपने ही समाज को खोखला करने लगीं। ऐसी विकट परिस्थितियों में अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को सिद्ध करतीं रघुवीर सहाय की कविताएँ अपनी आस्था और विश्वास को दृढ़ रखते हुए जनता को सतर्क करती हैं-


यह शून्य काल है युग बदलने का


बीसवीं शताब्दी जाने से पहले धोखा दे रही है कि सारे संसार में आ रहा है नवयुग पीने, उड़ाने, पहनने, खाने का समय खाने-पीने वाले खुद उसे धोखा समझते हैं सत्य मानते हैं सिर्फ़ भूखे और प्यासे लोग जिनको पता होनी चाहिए असलियत ।


रघुवीर सहाय सामाजिक यान्त्रिकता और अमानवीयता के खिलाफ विरोध दर्ज करने की सार्थक कोशिश करते हैं। उनकी रचनाओं का परम लक्ष्य मनुष्य है और मानवीय चेतना जागरण हेतु वे सतत प्रयत्नशील हैं। संसार किसी भी उधेड़बुन में लगा हो वे मनुष्यों के जीवन में आने वाले उतराव-चढ़ावों पर नज़र रखते हैं। आम आदमी का जीवन ही उन्हें आकर्षित करता है।


धन, भूमि और सत्ता की ओर से ध्यान हटाने के लिए जनसामान्य को धर्म, संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाया जाता है । व्यवस्था द्वारा स्वयं राष्ट्र-प्रेम,

त्याग, कर्त्तव्यनिष्ठा और नैतिकता से विमुख हो जनता को इनके प्रति सचेष्ट होने को प्रेरित किया जाता है। इनके नाम पर अनेकविध उनका शोषण किया जाता है। जनसामान्य की बढ़ती पीड़ा, भूख, अशिक्षा, रुग्णता, बेरोजगारी और आर्थिक अभाव से खिन्न समाज के प्रति समर्पित कवि रघुवीर सहाय को समकालीन राजनैतिक व्यवस्था व तन्त्र के रूखे व्यवहार से ठेस पहुँचती है। क्षुब्धमना वे अपने मनोभाव प्रकट करते हुए कहते हैं-


एक समय था मैं बताता था कितना


नष्ट हो गया है अब मेरा पूरा समाज


तब मुझे ज्ञात था कि लोग अभी भी व्यग्र हैं। बनाने को फिर अपना परसों कल और आज आज पतन की दिशा बताने पर शक्तिवान् करते हैं कोलाहल तोड़ दो तोड़ दो तोड़ दो झोपड़ी जो खड़ी है अधबनी फिज़ूल था बनाना ज़िद समता की छोड़ दो एक दूसरा समाज बलवान् लोगों का आज बनाना ही पुनर्निर्माण है जिनका अधिकार छीन जिन्हें किया पराधीन उनको जी लेने का मिलता प्रतिदान है।


(- एक समय था)


रघुवीर सहाय की काव्य- चेतना उनकी निश्छल संवेदना का परिचय देती है। इसलिए राजनैतिक कुचक्र तले यान्त्रिकता और अमानवीयता के विरोध में कई बार कवि स्वयं के विरोध में भी खड़ा दिखाई देता है जो उसके य-विकास का उदात्त पहलू है। काव्य-1