समाजशास्त्रीय आलोचना : उद्देश्य और प्रकार्य - Sociological Criticism: Aims and Functions

समाजशास्त्रीय आलोचना का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रकार्य कृति के बारे में हमारे ज्ञान की वृद्धि करना है । समाजशास्त्रीय आलोचना का प्रस्थान बिन्दु यह विचार है कि कलात्मक सृजन का सामाजिक संरचना और सामाजिक प्रक्रियाओं से गहरा सम्बन्ध होता है। इस सम्बन्ध को पहचान कर ही कलाकृति के वास्तविक मूल्य और महत्त्व को समझा जा सकता है। समाजशास्त्रीय आलोचना के अन्तर्गत साहित्य के सामाजिक आधारों की खोज करते हुई इस बात की पड़ताल की जाती है कि साहित्य में समाज का चित्रण किस रूप में हुआ है। इसमें लेखक के महत्त्व को रेखांकित करते हुए साहित्य से पाठक के सम्बन्धों का उद्घाटन करने का प्रयास भी किया जाता है।


समाजशास्त्रीय आलोचना कृति की रचना के परिवेश और प्रकार्यों पर प्रकाश डालते हुए उसे समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए आलोच्य कृति के सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाएँ प्रदान करती है। इसका एक महत्त्वपूर्ण वर्णनात्मक प्रकार्य है। इसमें सटीक विवरण सही मूल्यांकनकी पूर्वशर्त होती है ।


साहित्य-सृजन का आधार रचनाकार की कल्पनाशीलता होती है। उसी में अनुस्यूत होकर सामाजिक यथार्थ साहित्य के रूप में अभिव्यक्त होता है। लेखक की साहित्यिक कल्पना के सामाजिक अभिप्रायों की खोज समाजशास्त्रीय आलोचना का कार्य है।

उसे साहित्य में प्रकट काल्पनिक स्थितियों, पात्रों और अन्य साहित्यिक तत्त्वों का सम्बन्ध उन ऐतिहासिक परिस्थितियों से जोड़कर उनकी साहित्यिक सार्थकता स्पष्ट करनी होती है।


समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति में साहित्य के सभी रूपों और पक्षों के विवेचन-विश्लेषण पर ध्यान दिया जाता है । इसमें साहित्य-प्रक्रिया के तीनों प्रमुख पक्षों रचना, रचनाकार और पाठक- के सन्दर्भ में रचना को देखा-परखा जाता है और इन तीनों पक्षों के पारस्परिक सम्बन्धों का विवेचन किया जाता है।

साथ ही कृति के लेखन, प्रकाशन, वितरण और उपभोग आदि पहलुओं की व्याख्या भी इसमें की जाती है। डॉ० मैनेजर पाण्डेय ने इस पद्धति के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि "साहित्यिक समाजशास्त्र का लक्ष्य कृति की केवल व्याख्या नहीं है । यह काम दूसरी आलोचना पद्धतियों में भी होता है। उसका लक्ष्य साहित्यिक कृति की सामाजिक अस्मिता की व्याख्या है। साहित्यिक कृति की सामाजिक अस्मिता रचना के सामाजिक सन्दर्भ और सामाजिक अस्तित्व से निर्मित होती है। इसीलिए साहित्य के समाजशास्त्र में उस पूरी प्रक्रिया को समझने की कोशिश होती है जिसमें कोई रचना साहित्यिक कृति बनती है।" ("साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका')