हिन्दी भाषा का मानकीकरण - Standardization of Hindi language
हिन्दी भाषा का मानकीकरण - Standardization of Hindi language
भाषा के साथ यह विचित्र विरोधाभास है कि उसे परिवर्तन की निरन्तरता और मानकता की मर्यादा के बीच से गुजरना होता है। गति और ठहराव के परस्पर विरोधी दबावों में भाषा निश्चय ही गति का साथ देती है और मानकता के आग्रहों को धीरे-धीरे अस्वीकार करती हुई अपनी संरचना को युगानुरूप बनाती चलती है। यह जीवित भाषा की प्राणवत्ता की पहचान भी है और ज़रूरत भी परिवर्तन की अपरिहार्यता से संचालित होने के बावजूद भाषा का अपना एक अनुशासन, अपनी एक आन्तरिक मर्यादा और पहचान होती है। भाषा की मानकता का मूल सम्बन्ध उसी अनुशासन की पहचान है।
;मानकता की दृष्टि से विश्व भाषाओं में हिन्दी की स्थिति विशिष्ट है। यह एक भाषा नहीं अपितु अपनी संरचना में विभिन्न उपभाषाओं और बोलियों का मिश्रण है। मध्य भारत के विशाल भू-भाग में, दसवीं शताब्दी के आसपास जिन भारतीय भाषाओं और बोलियों का उदय हुआ, उनमें हिन्दी भी एक थी । ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से यह हिन्दी क्षेत्रीय बोलियों एवं अपनी भाषाओं से ऊर्जा लेती हुई उन्नीसवीं शताब्दी तक अखिल भारतीय स्तर पर सम्पर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। एक ओर इसकी आधार भाषा संस्कृत है तो दूसरी ओर इसके विकास में भोजपुरी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी एवं हरियाणवी बोलियों का योगदान है।
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यह अखिल भारतीय स्तर पर सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त होने के कारण गैर हिन्दी लोगों द्वारा भी बोली जाती है। भारत जैसे विशाल देश की सम्पर्क भाषा एवं राष्ट्रभाषा होने के कारण यह क्षेत्रीय बोलियों के प्रभाव से अछूती नहीं रह सकती।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है इसलिए भी हिन्दी की मानकता का प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो जाता है । यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हिन्दी की मानकता का प्रश्न केवल भाषिक संरचना से ही नहीं, अपितु उसकी लिपि यानी देवनागरी से भी सम्बद्ध है।
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इसलिए हिन्दी भाषा की मानकता की समस्याओं एवं उनके समाधान पर विचार करते हुए देवनागरी लिपि पर चर्चा भी आवश्यक है। भाषा और लिपि को पृथकता में नहीं देखा जा सकता है। हिन्दी के मानकीकरण की समस्याएँ उसके भाषिक प्रयोग एवं लिपि, दोनों स्तरों पर है इसलिए सर्वप्रथम मानकीकरण की समस्याओं पर विचार करना अधिक तर्कसंगत होगा। व्यवहार और व्याकरण के स्तर पर हिन्दी की मानकता के मार्ग में निम्नांकित समस्याएँ उल्लेखनीय हैं-
(1) उच्चारण
उच्चारण की दृष्टि से हिन्दी में मानक एवं अमानक रूपों का प्रचलन है। विभिन्न बोलियों का स्थानीय प्रभाव हिन्दी शब्दों के उच्चारण में दिखाई देता है।
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यद्यपि इन शब्दों की मानकता असंदिग्ध है लेकिन व्यवहार में इस मानकता का पालन नहीं होता। यह समस्या विशेष तौर पर श-स, य-ज, छ-क्ष आदि ध्वनियों के स्तर पर है। उच्चारण की अमानकता के कारण कई बार वर्तनी भी प्रभावित होती है। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं-
शुद्ध
अशुद्ध
शहर
यज्ञ
;सहर
जज्ञ
क्षमा
छमा
स्वक्ष
स्वच्छ
(2) व्याकरणिक समस्याएँ
हिन्दी में व्याकरण के स्तर पर अमानक तत्त्वों की बहुलता नहीं है फिर भी व्यावहारिक धरातल पर अमानकता पर बढ़ता प्रभाव स्पष्टतया देखा जा सकता है।
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उदाहरणार्थ हिन्दी के मानक रूप का अतिक्रमण कुछ पूर्वी प्रयोगों एवं पंजाबी के द्वारा हो रहा है। इस अतिक्रमण को निम्नांकित बिन्दुओं पर देखा जा सकता है. -
(क)
संज्ञा
पूर्वी हिन्दी में 'के कारण' के स्थान पर 'के चलते' का प्रचलन है: -
(i) बच्चों के चलते मुझे ठहरना पड़ा।
(ii) आपके चलते मैं समय पर नहीं पहुँच सकूँगा।
;पंजाबी प्रभाव के कारण संज्ञाओं में अनावश्यक रूप से 'ए' जोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई देती है; यथा लाले से, माने के घर से, चाचे की कमी से आदि । -
इस तरह के प्रयोग जन स्वीकृत हो रहे हैं और साहित्य में भी इनका प्रयोग सहज द्रष्टव्य है। भाषावैज्ञानिकों का मानना है कि क्षेत्रीय स्तर पर बोलने के क्रम में प्रायः ऐसे प्रयोगों को रोका नहीं जा सकता है लेकिन लेखन के स्तर पर इन्हें नियन्त्रित किया जाना आवश्यक है।
(ब)
सर्वनाम
हिन्दी के मानक सर्वनाम रूपों के समानान्तर कुछ क्षेत्रीय कारकीय रूपों का प्रचलन बढ़ रहा है। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं-
;(i) मुझे, मुझको
मेरे को
(ii) तुमसे तेरे से
(ii) मुझ (iv) तुममें मेरे में तेरे में
(v) #
हम
(ग) विशेषण
विशेषण के स्तर पर मानकता की समस्या आकारान्त विशेषण शब्दों के साथ है।
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ये आकारान्त विशेषण लिंग एवं वचन के साथ परिवर्तित होने लगे हैं यथा ताजा फल ताजे फल ताजी खबर मानक हिन्दी में - - 'ताजा' विशेषण अपरिवर्तनीय है। इसी प्रकार 'सुनहरी' शब्द अपरिवर्तनीय और मानक है, लेकिन प्रयोग में 'सुनहरा मौका' का चलन बढ़ रहा है।
(घ)
क्रिया
मानक हिन्दी के क्रिया रूपों में भी अमानक रूपों का प्रचलन है। यहाँ भी अमानकता केवल व्यावहारिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि लेखन के स्तर पर भी है; यथा-
;मानक रूप
अमानक रूप
किया
करा
करी
की
कीजिए
करिये
(ब)
;लिंग
हिन्दी भाषा में लिंग की समस्या किंचित् जटिल है। यह जटिलता मुख्यतः रूप-निर्माण के स्तर पर है। हालाँकि, प्रयोग के स्तर पर ऐसे शब्दों की संख्या बहुत अधिक नहीं है जिन्हें लेकर विवाद की स्थिति हो । उदाहरणार्थ तौलिया, गिलास, तकिया, दही, रूमाल, पेंट, कलम, चर्चा आदि शब्द इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
(3) शब्द भण्डार एवं अर्थ की समस्या
एक विशाल भू-भाग में बोली जाने के कारण हिन्दी की शब्द-सम्पदा में अपार वैविध्य है और एक ही शब्द के अर्थ में अनेकरूपता है। यह मानकीकरण की उल्लेखनीय समस्या है। हिन्दी में यह समस्या दोनों स्तरों पर हैं- सामान्य शब्द के स्तर पर भी व पारिभाषिक शब्दों के स्तर पर भी। सामान्य शब्द के स्तर पर अनेकरूपता के कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं; यथा -
;i) चींटी
(ii) कद्दू
(iii) तोरी
कीड़ी
घिया, लौकी
(iv) भिण्डी नुवचैव परोल रामतरोई
(v) ताऊ
बड़का बाबू, चाचा, काका
;पारिभाषिक शब्दों के स्तर पर भी यह अनेकरूपता देखी जा सकती है, यथा-
(i) डाइरेक्टर
निदेशक, निर्देशक, संचालक
(ii) वर्कश (iii) कवरिंग लेटर प्रावरण पत्र, आवरण पत्र, उपरि पत्र
कार्यशाला कार्यगोष्ठी, कर्मशाला
सामान्य एवं लोक प्रचलित शब्दों में एकरूपता लाना सम्भव नहीं है लेकिन पारिभाषिक शब्दों में
एकरूपता का होना अनिवार्य है।
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इस दिशा में सार्थक प्रयास किए जा सकते हैं।
(4) वाक्य-रचना
अमानकता की बढ़ती प्रवृत्तियों का प्रभाव हिन्दी वाक्य-रचना की मानकता पर भी पड़ा है। कतिपय
उदाहरण प्रस्तुत हैं-
मानक
अमानक
मुझे लिखना है।
उसे पढ़ना था
मैंने लिखना है।
;उसने पढ़ना था
मुझे कुछ नहीं चाहिए
मेरे को कुछ नहीं चाहिए हमने खेला
मैंने खेला
(5) लिपि
व्यवहार और व्याकरण के स्तर पर मानकीकरण की समस्याओं के साथ-साथ कुछ समस्याएँ लिपि के स्तर पर भी हैं। वर्तनी की अनेकरूपता के उदाहरण देखिए-
;(i) माताएँ मातायें
(ii) नई
नयी
(iii) जाएगा जायेगा
(iv) लिए लिये
हल चिह्नों के प्रयोग को लेकर हिन्दी व्याकरणों में विवाद है। एक समूह संस्कृत में प्रयुक्त हल चिह्नों का यथावत प्रयोग हिन्दी में जारी रखने का पक्षधर है।
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इसके विपरीत दूसरा समूह यह मानता है कि हिन्दी में हलन्त चिह्नों का प्रयोग बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि हिन्दी भाषा में आकर आकारान्त शब्द स्वतः हलन्त हो गए हैं इसलिए अलग से हलन्त के प्रयोग का कोई औचित्य नहीं है, यथा आम, फल, आप, खेत, जगत्, दयावान् आदि । कुछ विद्वानों की राय है कि जिन शब्दों के हलन्त को हिन्दी में स्वीकार कर लिया गया है, उसे जारी रखना चाहिए, यथा- संवत् सत् पृथक् आदि ।
विसर्ग प्रयोग को लेकर भी हिन्दी में एकरूपता नहीं है। संस्कृत के अनेक विसर्गयुक्त शब्द हिन्दी में आकर विसर्गरहित हो गए हैं।
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दुःख, निःसन्देह, निःसंतान आदि ऐसे ही शब्द हैं। निःसन्देह व निःसंतान तो संस्कृत के सन्धि-नियमों से निस्सन्देह व निस्संतान हो गए हैं लेकिन दुख हिन्दी का अपना शब्द हो गया है और इससे 'दुखिया' जैसे विशेषण भी बना लिया गया है। इसके अतिरिक्त हिन्दी में विसर्गयुक्त और विसर्गरहित प्रयोगों की विकल्पना भी मौजूद है, यथा छः / छह / छ, छिः / छि आदि ।
हिन्दी में अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु के प्रयोगों में भी अनेकरूपता है। आधुनिक लेखन में उन शब्दों में भी अनुस्वार का प्रचलन बढ़ा है जिसमें चन्द्रबिन्दु का प्रयोग होता रहा है।
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इसके अतिरिक्त एक ही शब्द को अनुस्वार एवं चन्द्रबिन्दु, दोनों के साथ लिखने का प्रयोग दिख रहा है। ईंधन ईंधन, आँख आंख, चाँद चांद आदि ऐसे ही उदाहरण । इसमें यह व्यवस्था दी गई है कि सर्वत्र अनुस्वार का प्रयोग वर्जित है लेकिन अनुनासिक पंचम वर्णों के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग स्वीकृत हो गया है। साथ ही यह भी व्यवस्था अपना ली गई है कि शिरोरेखा के उपर अगर कोई मात्रा है तो वहाँ चन्द्रबिन्दु का प्रयोग नहीं होगा, वहाँ अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाएगा।
हिन्दी के मानकीकरण में छह विदेशी ध्वनियों औ, क, ख, ग, ज और फ़ के प्रयोग को लेकर भी कुछ समस्याएँ हैं।
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कुछ लोग मानते हैं कि हिन्दी में इन ध्वनियों का प्रयोग अनिवार्य नहीं है और इसलिए विदेशी शब्दों को देवनागरी की ध्वनि व्यवस्था के अनुसार ही लिखा जाना चाहिए, यथा क़ानून की जगह कानून और खून की जगह खून। लेकिन अनेक विद्वान् ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि इन ध्वनियों का प्रयोग होना चाहिए क्योंकि इन ध्वनियों के कारण हिन्दी शब्दों में पर्याप्त अर्थभेद हैं और ये लगभग स्वीकृत हैं, जैसे, राज राज़, जरा जरा, फन - फन आदि। हालाँकि इस परिप्रेक्ष्य में यह व्यवस्था दी गई है कि जहाँ विदेशी ध्वनियों के साथ अर्थगत सूक्ष्मता जुड़ी हुई है, वहाँ नुक्तों का प्रयोग अपेक्षित है। बाकी जगहों पर इनका प्रयोग अनिवार्य नहीं है।
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