प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास - History of ancient Indian literature
प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास - History of ancient Indian literature
भारतीय साहित्य में वह सब शामिल है जो 'साहित्य' शब्द में इसके व्यापकतम भाव में आता हैः धार्मिक और सांसारिक महाकाव्य तथा गीत प्रभावशाली एवं शिक्षात्मक, वर्णनात्मक और वैज्ञानिक गद्य, साथ ही साथ मौखिक पद्य एवं गीत । वेदों में (3000 ईसा पूर्व 1000 ईसा पूर्व) जब हम यह अभिव्यक्ति देखते हैं, "मैं जल में खड़ा हूँ फिर भी बहुत प्यासा हूँ", तब हम ऐसी समृद्ध विरासत से आश्चर्यचकित रह जाते हैं जो आधुनिक और परम्परागत दोनों ही है। अतः यह कहना बहुत ठीक नहीं है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में हिन्दू, बौद्ध और जैनमतों का मात्र धार्मिक शास्त्रीय रूप ही सम्मिलित है। जैन वर्णनात्मक साहित्य, जो कि प्राकृत भाषा में है, रचनात्मक कहानियों और यथार्थवाद से परिपूर्ण है।
भारतीय साहित्य के स्वरूप को समझने के लिए अज्ञेय का यह मत उपयोगी होगा, "हम जब भारतीय लेखकों या भारतीय साहित्य की बात करते हैं तब हमारा ध्यान या तो संस्कृत की ओर होता है जिसकी परम्परा काफी समय पहले रुक गई: बारह सौ वर्ष पहले छह सौ या तीन सौ या तीस वर्ष पहले, इसका कोई महत्त्व नहीं है। - या फिर हम पश्चिम के संघात के बाद के भारतीय लेखन को ध्यान में रखते हैं यानी अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों की बात सोचते हैं। यानी दूसरे सब तो हिन्दी या पंजाबी या या बांग्ला या गुजराती लेखक हैं। प्रादेशिक भाषा के लेखक हैं। भारतीय लेखक या तो वह है जो किसी जमाने में संस्कृत में लिखता था या फिर आज वह है जो अंग्रेजी में लिखता है। अगर ऐसा सोचना संगत हो तो प्रश्न उठता है कि संस्कृत के ह्रास और भारतीय अंग्रेजी साहित्य के बीच के हजार-बारह सौ वर्षों में देश में क्या होता रहा ? क्या वह भी एक 'अन्धकार युग' है ? क्या उसमें भी न कोई भारतीय परम्परा है, न कोई भारतीय संस्कृति ही है? बल्कि यों कहें न कोई भारत ही हैं - क्योंकि भारत तो एकाएक तब प्रकट हुआ जब पश्चिम एक संकट के तौर पर क्षितिज में पर आ गया ! या कि हमारे चिन्तन में कहीं एक बुनियादी भूल है कि हम कोई महत्त्व की बात भुलाए दे रहे हैं या अपनी उपेक्षा के कारण मिट जाने दे रहे हैं। मैं तो मानता हूँ कि एक भारतीय जीवन-दृष्टि थी और है, सदैव रही, कि वह संस्कृत से भी पहले से चली आई है, संस्कृति में बनी रही। मैं मानता हूँ कि संस्कृत के 'हास' के साथ वह विकसित हुई और फिर पश्चिम से टकराहट होने तक पुनः समपुंजित हो गई कि वह कभी नष्ट नहीं हुई, बिखरी और संचित हुई लेकिन निरन्तर बनी रही।"
भारतवर्ष अनेक भाषाओं का विशाल देश है उत्तर पश्चिम में पंजाबी, हिन्दी और उर्दू, पूर्व में उड़िया, बांग्ला और असमिया, मध्य पश्चिम में मराठी और गुजरती और दक्षिण में तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम । इनके अतिरिक्त कतिपय और भी भाषाएँ हैं, जिनका साहित्यिक और भाषा वैज्ञानिक महत्त्व कम नहीं है, जैसे कश्मीरी, डोंगरी, सिन्धी, कोंकणी, तुरु आदि। इनमें से प्रत्येक का, विशेषतः पहली बारह भाषाओं में प्रत्येक का, अपना साहित्य है जो प्राचीनता, वैविध्य, गुण और परिणाम सभी की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। यदि आधुनिक भारतीय भाषाओं के ही सम्पूर्ण वाक्य का संचयन किया जाए तो वह यूरोप के संकलितवादय से किसी भी दृष्टि से कम नहीं होगा। "वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृतों और अपभ्रंशों का समावेश कर लेने पर तो उसका अनन्त विस्तार कल्पना की सीमा को पार कर जाता है ज्ञान का अपार भण्डार, हिन्द महासागर से भी गहरा, भारत के भौगोलिक विस्तार से भी व्यापक, हिमालय के शिखरों से भी ऊँचा, और ब्रह्म की कल्पना से भी अधिक सूक्ष्म ।" ( नगेन्द्र, भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता (सं.) मूलचन्द गौतम, (2009) भारतीय साहित्य, दिल्ली : राधाकृष्ण, पृष्ठ 71) इनमें प्रत्येक साहित्य का अपना स्वतन्त्र और प्रखर वैशिष्ट्य है, जो अपने प्रदेश के व्यक्तित्व से मुद्रांकित है। पंजाबी और सिन्धी, हिन्दी और उर्दू की प्रदेश सीमाओं के मिले होने पर भी उनके अपने अपने साहित्य की अपनी विशेषताएँ हैं। इसी प्रकार मराठी और गुजराती का जन-जीवन ओतप्रोत होते भी उनके बीच किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं है। दक्षिण की भाषाएँ द्रविड़ परिवार की विभूतियाँ हैं किन्तु कन्नड़ और मलयालम, या तमिल और तेलुगु के स्वरूप में कोई शंका नहीं होती। यही बात बांग्ला, असमिया और उड़िया के विषय में सत्य है। बांग्ला के गहरे प्रभाव को पचाकर असमिया और उड़िया अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को बनाए हुए हैं।
इन सभी साहित्यों में अपनी-अपनी विशिष्ट विभूतियाँ हैं। तमिल का संगम साहित्य, तेलुगु के द्विअर्थी काव्य और उदाहरण तथा अवधान साहित्य, मलयालम के सन्देश काव्य एवं कीर गीत (कलिप्पाट्) तथा मणिप्रवालं शैली, मराठी के पवाड़े, गुजराती के आख्यान और फागु, बांग्ला का मंगल काव्य, असमिया के वडगीत और बरुंजी साहित्य, पंजाबी के रम्याख्यान और वीर गीत, उर्दू की ग़जल और हिन्दी का रीतिकाव्य और छायावाद आदि अपने-अपने भाषा साहित्य के वैशिष्ट्य के उज्ज्वल प्रमाण हैं।
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