भारतीय साहित्य के विकास का समानान्तर विकास क्रम

भारतीय साहित्य के विकास का समानान्तर विकास क्रम

आधुनिक भारतीय साहित्यों के विकास के चरण भी समान ही हैं। प्रायः सभी का आदिकाल पन्द्रहवीं शती तक चलता है। पूर्व मध्यकाल की समाप्ति मुगल वैभव के अन्त अर्थात् सत्रहवीं शती के मध्य में तथा उत्तर- मध्यकाल की अंग्रेजी सत्ता की स्थापना के साथ होती है और तभी से आधुनिक युग का आरम्भ हो जाता है। इस प्रकार भारतीय भाषाओं के अधिकांश साहित्य का विकास क्रम लगभग एक सा ही है। सभी प्रायः समकालीन चार चरणों में विभक्त हैं।


भारतीय साहित्य के समानान्तर विकास क्रम का आधार


भारतीय भाषाओं के अधिकांश साहित्य के इस समानान्तर विकास क्रम का आधार है भारत के राजनैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन का विकास क्रम। बीच-बीच में व्यवधान होने पर भी भारतवर्ष में शताब्दियों तक समान राजनैतिक व्यवस्था रही है। मुगल शासन में तो लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक उत्तर-द र-दक्षिण और पूर्ण-पश्चिम में घनिष्ठ सम्पर्क बना रहा। मुगलों की सत्ता खण्डित हो जाने के बाद भी यह सम्पर्क टूटा नहीं। मुगल शासन के पहले भी राज्य विस्तार के प्रयत्न होते रहे थे। राजपूतों में कोई एकछत्र भारत सम्राट तो नहीं हुआ, किन्तु उनके राजवंश भारतवर्ष के अनेक भागों में शासन कर रहे थे। शासन भिन्न होने पर भी उनकी सामन्तीय शासन प्रणाली प्रायः एक-सी थी। इसी प्रकार मुसलमानों की शासन प्रणाली में भी स्पष्ट मूलभूत समानता थी। बाद में तो अंग्रेजों ने केन्द्रीय शासन व्यवस्था कायम कर इस एकता को और भी दृढ कर दिया। इन्हीं सब कारणों से भारत के विभिन्न भाषा-भाषी प्रदेशों की राजनैतिक परिस्थितियों में पर्याप्त साम्य रहा है।


सांस्कृतिक परिस्थितियों का साम्य


राजनैतिक परिस्थितियों की अपेक्षा सांस्कृतिक परिस्थितियों का साम्य और भी अधिक रहा है। पिछले सहस्राब्द में अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक आन्दोलन ऐसे हुए जिनका प्रभाव भारतव्यापी था। बौद्ध धर्म के ह्रास के युग में उसकी कई शाखाओं और शैव-शाक्त धर्मों के संयोग से नाथ सम्प्रदाय उठ खड़ा हुआ, जो ईसा के द्वितीय सहस्राब्द के आरम्भ में उत्तर में तिब्बत आदि तक, दक्षिण में पूर्वी घाट के प्रदेशों में, पश्चिम में महाराष्ट्र आदि में और पूर्व में प्रायः सर्वत्र फैला हुआ था। योग की प्रधानता होने पर भी इन साधुओं की साधना में, जिनमें नाथ, सिद्ध और शैव सभी थे, जीवन के विचार और भाव पक्ष की उपेक्षा नहीं थी और इनमें से अनेक साधु आत्माभिव्यक्ति और सिद्धान्त प्रतिपादन दोनों के लिए कवि-कर्म में प्रवृत होते थे। भारतीय भाषाओं के विकास के प्रथम चरण में इन सम्प्रदायों का प्रभाव प्रायः विद्यमान था। इनके बाद इनके उत्तराधिकारी सन्त-सम्प्रदायों और नवागत मुसलमानों के सूफ़ी-मत का प्रसार देश के भिन्न-भिन्न भागों में होने लगा। सन्त सम्प्रदाय वेदान्त दर्शन से प्रभावित थे और निर्गुण भक्ति की साधना तथा प्रचार करते थे। सूफ़ी धर्म में भी निराकार ब्रह्म की ही उपासना थी, किन्तु उसका माध्यम था उत्कट प्रेमानुभूति । सूफ़ी सन्तों का यद्यपि उत्तर पश्चिम में अधिक प्रभुत्व था, फिर भी दक्षिण के बीजापुर और गोलकुंडा राज्यों में भी इनके अनेक केन्द्र थे और वहाँ भी अनेक प्रसिद्ध सूफी सन्त हुए । इसके पश्चात वैष्णव आन्दोलन का आरम्भ हुआ, जो समस्त देश में बड़े वेग से व्याप्त हो गया। राम और कृष्ण की भक्ति की अनेक मधुर पद्धतियों का देश भर में प्रसार हुआ और समस्त भारतवर्ष सगुण ईश्वर के लीला गान से गुंजरित हो उठा। उधर, मुस्लिम संस्कृति और सभ्यता का प्रभाव भी निरन्तर बढ़ रहा था। ईरानी संस्कृति के अनके आकर्षक तत्त्व जैसे- वैभव विलास, अलंकरण सज्जा आदि भारतीय जीवन में बड़े वेग से घुल-मिल रहे थे और नई दरबारी या नागर संस्कृति का अविर्भाव हो रहा था। राजनैतिक और आर्थिक पराभव के कारण यह संस्कृति शीघ्र ही अपना प्रसादमय खो बैठी और जीवन के उत्कर्ष एवं आनन्दमय पक्ष के स्थान पर रुग्ण विलासिता ही इसमें शेष रह गई। तभी पश्चिम के व्यापारियों का आगमन हुआ, जो अपने साथ पाश्चात्य शिक्षा संस्कार लाए और जिनके पीछे-पीछे मसीही प्रचारकों के दल भारत में प्रवेश करने लगे। उन्नीसवीं शती में अंग्रेजों का प्रभुत्व सारे देश में स्थापित हो गया और शासक वर्ग सक्रिय रूप से योजना बनाकर अपनी शिक्षा, संस्कृति और उसके माध्यम से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अपने धर्म का प्रसार करने लगा। प्राच्य और पाश्चात्य के इस सम्पर्क और संघर्ष से आधुनिक भारत का जन्म हुआ।


साहित्यिक पृष्ठाधार


भारत की भाषाओं का परिवार यद्यपि एक नहीं है, फिर भी उनका साहित्यिक रिक्थ समान ही है । रामायण, महाभारत, पुराण, भागवत, संस्कृत का अभिजात साहित्य अर्थात् कालिदास, भवभूति, बाण, श्रीहर्ष, - अमरुक और जयदेव आदि की अमर कृतियाँ, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश में लिखित बौद्ध, जैन और अन्य धर्मों का साहित्य भारत की समस्त भाषाओं को उत्तराधिकार में मिला। शास्त्र के अन्तर्गत उपनिषद्, षड्दर्शन, स्मृतियाँ, आदि और उधर काव्यशास्त्र के अनेक अमर ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र', 'ध्वन्यालोक', 'काव्यप्रकाश', 'साहित्यदर्पण रसगंगाधर' आदि की विचार विभूति का उपयोग भी सभी ने निरन्तर किया है। वास्तव में आधुनिक भारतीय भाषाओं के ये अक्षय प्रेरणा स्रोत हैं और प्रायः सभी को समान रूप से प्रभावित करते रहे हैं। इनका प्रभाव निश्चय ही अत्यन्त समन्वयकारी रहा है और इनसे प्रेरित साहित्य में एक प्रकार की मूलभूत समानता स्वतः ही आ गई है। इस प्रकार समान राजनैतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक आधारभूमि पर पल्लवित पुष्पित भारतीय साहित्य में जन्मजात समानता एक सहज घटना है।