भारतीय साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ : प्रेमाख्यानक काव्य

भारतीय साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ : प्रेमाख्यानक काव्य

अब प्रेमाख्यानक काव्य की परम्परा को लीजिए। वह भी भारतीय भाषाओं में प्रायः समान रूप से व्याप्त है। भारतीय वाक्य के अध्येता को यह देखकर एक प्रकार का सुखद विस्मय होता है कि सम्पूर्ण देश में प्रायः एक जैसे प्रेमाख्यानक उपलब्ध होते हैं। अनेक कथानक ऐसे हैं जो थोड़े बहुत परिवर्तन से भारत की बहुत सी भाषाओं में काव्यबद्ध किए गए हैं। तेलुगु में राजशेखरचरित्रम्, प्रभावती- प्रद्युम्न कलापूर्णोदयम्, चन्द्रमती प्रणयम्, रसिकजनमनोभिरामम् और चन्द्रलेखाविलासम् आदि प्रेमगाथाएँ काव्य और कथानक दोनों की दृष्टि से रमणीय हैं। गुजराती में प्रेमगाथाओं की परम्परा और भी समृद्ध है। प्राचीन गुजराती में असायत ने हंसावलि (1371 ई.), भीम ने सदयवत्स-कथा (1410 ई.), और हीरानन्द ने विद्याविलासिनी (1429 ई.) की रचना की। इनके बाद सोलहवीं शती में इस प्रकार की रोमानी कथाओं का प्रसार और बढ़ गया। नरपति की नन्दबत्तीसी और पंचदण्ड, गणपति का माधवानल कामकंदला दोग्धक (1528 ई.), मधुसूदन व्यास का हंसावती- विक्रमचरित-विवाह (1560 ई.), कुशललाभ की ढोलामारू चौपाई (1561 ई.) और नयनसुन्दर-कृत रूपचन्द्रकुंवर रास (1581 ई.) इस वर्ग की अत्यन्त प्रसिद्ध कृतियाँ हैं । अठारहवीं शताब्दी में शामल ने इन रम्याद्भुत काव्य-कथाओं का सम्यक् उपयोग करते हुए पद्मावती (1718 ई.), सुडा बहुतेरी (1765 ई.) विनयचन्दनी वार्ता और मदनमोहना आदि प्रेमाख्यानों की सर्जना की।


बांग्ला में इन प्रेमगाथाओं की केन्द्र थी विद्यासुन्दर की प्रणय कथा। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस कथा को लेकर अनेक कवियों ने काव्यबद्ध प्रेमाख्यान लिखे जिनमें सर्वोपरि है भारतचन्द्र । भारतचन्द्र से एक सौ वर्ष पूर्व अनेक सूफी कवियों ने हिन्दू जीवन को लेकर प्रेमकथाएँ लिखीं। आराकान दरबार के सैयद आलाओल जायसी के पद्मावत का बांग्ला पद्य में अनुवाद प्रस्तुत कर चुके थे जो इस प्रकार के काव्य के लिए अनमोल प्रेरणा-स्रोत सिद्ध हुआ । उत्तर-पश्चिम की भाषाओं में यह प्रवृत्ति सबसे अधिक विकसित हुई। पंजाबी और हिन्दी में प्रेमाख्यानों की परम्परा अत्यन्त विस्तृत है। प्रमुख पंजाबी प्रेमाख्यान निम्नलिखित हैं-


युसूफ-जुलेखा, गोपीचन्द्र, सस्सी-पुन्नू, चन्द्रभागा, हीर राँझा, सिंहासन बत्तीसी, ढोल-सम्मी, बेताल पचीसी, शीरी-फ़रहाद, सोरठ वीजा, लैला-मजनू, पद्मनी, रूप-बसन्त, गुलसनोबर, कामरूप कामलता, उर्वशी, माधवानल कामकंदला, तिलोत्तमा, बहराम गोर, उखा, चन्दर बदन मेआर, भरथरी, हातिमताई, देवयानी, पूरन भगत, सुन्दरा, बाजमती, नल-दमयंती, मृगावती, रसालूकोकिला, सखी सरवर, सैफुलमुलुक, सोहनी-महीवाल, मिर्जा साहिबा, रोड़ा जलाली, खैरा सम्मी, सुलेमान वलकीस, गुग्गा, चित्रावली आदि ।


इनमें कथानक की रोचकता और रम्याद्भुत वैभव की दृष्टि से वारिसशाह की रचना 'हीर' सर्वोत्कृष्ट है। उनके पूर्ववर्ती कवि दामोदर तथा मुकबिल और परवर्ती हामिद, अब्दुल हक्कीम, मोहम्मद मुस्लिम, बुधा सिंह, अहमद यार, और हासम आदि के काव्यों की भी अपनी विशेषता और अपना पृथक महत्त्व है।


हिन्दी का प्रेमाख्यान काव्य कदाचित और भी समृद्ध है- गुण और परिणाम दोनों की दृष्टि से । हिन्दी में लगभग 40 प्रेमाख्यानों का शोध किया जा चुका है और अभी और भी आशा है। इन सबकी मुकुटमणि है जायसी का 'पद्मावत' जिसे कदाचित् प्रस्तुत वर्ग की समस्त भारतीय रचनाओं में मूर्धन्य स्थान का अधिकारी माना जा सकता है। वास्तव में उसका प्रबन्ध कौशल और विरह वर्णन वारिसशाह की हीर से भी अधिक उत्कृष्ट है। शेष आख्यानों में से निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं मधुमालती, चित्रावली, ज्ञानदीप, हंस जवाहिर, अनुराग बाँसुरी, ढोला मारू रा दूहा, बेलि किस्न रुक्मणी री, रस रतन, माधवानल कामकंदला के चार विभिन्न संस्करण, रूप-मंजरी, बीसलदेव रासो, रमणशाह छबीली भटियारी की कथा, प्रेमपयोनिधि, पुहुपावती, नलदमन आदि ।


उधर उर्दू में भी लौकिक अलौकिक विरह-प्रधान मसनवियों की सुन्दर शृंखला मिलती है। इसका आरम्भ सत्रहवीं शती में दक्षिण में हुआ और मुल्ला वजही ने कुतुबमुश्तरी ( 1609 ई.), गुब्बासी ने सैकुलमुल्क आयर बदीउल जमाल, तथा शुक-सप्तति पर आधारित तोतीनामा (1639 ई.), इब्न निशाती ने फूलवन, बहरी ने मान लगन और वली वेल्लोर ने रतन-ओ-पदम की रचना की। उत्तर भारत के उर्दू शायरों ने भी प्रेम गाथाएँ लिखीं किन्तु उनका रंग कुछ बदला हुआ था। भारतीय जन-जीवन के प्रेम विरह की प्रकृत माधुरी के स्थान पर उनमें फारस का रंग गहरा हो चला था और अलंकरण की प्रवृत्ति तथा आभिजात्य की ओर प्रभाव बढ़ गया था। मीर हसन, पण्डित दयाशंकर नसीम आदि की मसनवियाँ इसका प्रमाण हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमाख्यानमयी यह काव्यधारा मुलतान और सिन्ध से लेकर आन्ध्रप्रदेश तक और उधर गुजरात से लेकर बंगाल तक अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित हो रही थी।