सामाजिक आन्दोलन :- देवाजी तोफा मेंढा लेखा






सामाजिक आन्दोलन :- देवाजी तोफा मेंढा लेखा
                



परिचय :- महाराष्ट्र की सत्ता पाने के लिए जहां सभी पार्टियां जोर आजमाइश कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र के विदर्भ में बसे एक ऐसा गांव भी है, जहां के लोग खुद सरकार बनकर गांव का विकास कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं नक्सली प्रभावित गडचिरोली जिले के मेंढा (लेखा) गांव की इस गांव की ख़ास बात यह है कि यहां पंचायत की ग्राम सभा होने के बावजूद मेंढा गांव की अपनी एक अलग सभा है, जिसे गांव-समाज सभा के नाम से जाना जाता है। यह सभा आधुनिक लोकतंत्र में बहुमत और अल्पमत की अवधारणा के ठीक उलट है, जो लोगों की पूर्ण सहमति के सिद्धांत पर चलती है। जिसमें किसी भी मामले में अंतिम निर्णय तक पहुंचने के लिए यहां गांव के हर एक आदमी की सहमति आवश्यक है।
इस गांव में प्रवेश करने पर आपको एक बैनर दिखाई देगा, जिस पर मराठी में लिखा गया है 'दिल्ली - मुंबई आमचा सरकार, आमच्या गावात आम्हीच सरकार'  जिसका अर्थ है दिल्ली और मुंबई में हमारी सरकार तो है ही, लेकिन हमारे गांव में तो हम ही सरकार है | 
                यह सन्देश किसी सरकार का विरोध नहीं करता है, बल्कि यह गांव की व्यवस्था को बयां करता है। मेंढावासियों का मानना है कि उनके गांव में वही यानी की गांववाले ही सरकार है। इसलिए अपने विकास के लिए गांव वाले पैसा तो केंद्र और राज्य सरकार से लेंगे, लेकिन उन पैसों का इस्तेमाल कहां और कैसे करना है, यह वे खुद तय करेंगे। कहां बसा है गांव महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित गढ़चिरोली जिले के धनोड़ा तहसील की लेखा पंचायत के अंतर्गत मेंढा गांव बसा है। आदिवासी बहुल इस गांव में गोंड आदिवासियों के लगभग 100 परिवार हैं। लेखा पंचायत की एक ग्राम सभा होने के बावजूद मेंढा गांव की अपनी एक अलग सभा है, जिसे गांव-समाज सभा के नाम से जाना जाता है। गांव-समाज सभा का अपना एक अध्ययन केंद्र भी है, जहां गांव के लोग बैठ कर किसी मुद्दे पर विचार-विमर्श करते हैं, साथ ही उस मुद्दे का गहन अध्ययन भी किया जाता है। 

मेंढा गांव में लगा बैनर :-  गांव का ही आदमी होता है नेता विपक्ष    गांव-समाज सभा में एक नेता विपक्ष भी होता है। जो गांव का ही एक आदमी होता है, इस शख्स का काम सभा में आए हर एक प्रस्ताव का विरोध करना होता है। प्रस्ताव का विरोध करने के बावजूद गांव वाले इस व्यक्ति को दुश्मन नहीं अपना दोस्त समझते हैं। 

गोटुल परंपरा को किया पुनर्जीवित :-   मेंढा गांव के लोग अपनी संस्कृति को सहेज कर रखने में विश्वास रखते हैं। इसलिए उन्होंने अपने सांस्कृतिक विरासत 'गोटुल' को पुनर्जीवित किया है। गोटुल आदिवासियों की एक ऐसी संस्था है, जहां जवान आदिवासी लडक़े-लड़कियों को जीवन से जुड़ी अनौपचारिक शिक्षा दी जाती है। साथ ही यह सांस्कृतिक गतिविधियों का भी यह केंद्र है, लेकिन कुछ लोगों ने इस संस्था को ग़लत बताकर अफ़वाहें फैलाई थी।   जिसकी वजह से धीरे-धीरे गोटुल प्रथा बंद होने लगी थी, लेकिन जब गांव-समाज सभा ने यह महसूस किया कि गोटुल आदिवासियों की एक स्वस्थ परंपरा है, तो उसे फिर से शुरू करने का फैसला लिया गया।

गांव में है शराबबंदी :-  मेंढा में शराबबंदी लागू है। यहां न कोई शराब बेचता है, न पीता है। अगर कोई बाहर से शराब पी कर आए और गांव में ग़लत हरक़त करते पकड़ा जाए, तो उस पर जुर्माना लगाया जाता है। गांव में शराबबंदी कैसे लागू हुई, इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। मेंढा में सन 1996 से ग्राम विकास के मुद्दों पर फैसले लिए जाते हैं। इन सभाओं में पहले महिलाएं शामिल नहीं हुआ करती थी। जब महिलाओं से सभा में शामिल न होने का कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि मर्द सभा में शराब पीकर आते हैं और उन्हें होश नहीं रहता है की वे क्या बोल रहे हैं। महिलाओं की इस बात से गांव के मर्द आहत हुए और उन्होंने गांव में शराबबंदी करने का फैसला किया। शराब बेचने वालों को समझाया गया औरइस शराबबंदी के फैसले के बाद गांव के मर्दों ने शराब पीना नहीं छोड़ी तो गांववालों ने शराब बेचने वाले को घेरना शुरू किया। उन्होंने शराब बेचने वाले के घर जाकर उनके घरवालों शराब पीने और बेचने के नुकसान के बारे में बताया। जिसके बाद से शराब बेचने वाला ठेकेदार माना और गांव में शराब की बिक्री बंद हो गई। 

बांस की कटाई रोकने शुरू किया चिपको आंदोलन :-   मेंढा गांव जंगल से घिरा हुआ है। इस जंगल में प्रचूर मात्रा में बांस उगता है, जो पेपर मिल्स के लिए फायदेमंद है। सरकार ने कई वर्षों पहले पेपर मिल्स को बांस की कटाई के लिए जंगल लीज पर दिया था। यह लीज सन 1991 में समाप्त हो गई थी। इस लीज को दोबारा बढ़ा कर पेपर मिल्स को जंगल लीज पर दिया जा रहा था, लेकिन मेंढा गांव के लोगों ने इसका विरोध कर दिया और यहीं से शुरुआत हुई चिपको आंदोलन की।    आंदोलन के बावजूद सरकार ने दी पेपर मिल्स को अनुमति    चिपको आंदोलन के बावजूद सरकार ने पेपर मिल्स को जंगल काटने की अनुमति दी। सरकार के इस निर्णय का गांववालों ने जमकर विरोध किया, लेकिन कोई बात नहीं बनी। अंत में गांव वालों ने एक नया प्रस्ताव सरकार के सामने रखा, जिसमें पूर्ण विकसित बांस की कटाई के बाद सबसे पहले इसकी सप्लाई किसानों, दस्तकारों और गांववालों को करनी थी।  इसके बाद, बचे हुए बांस पेपर मिल्स को दिए जा सकते थे। अंततः सरकार झुकी और गांव वालों के प्रस्ताव को उन्होंने मंजूरी दी।