संचार की प्रक्रिया तथा संचार के विभिन्न मॉडल

संचार की प्रक्रिया तथा संचार के विभिन्न मॉडल


आज संचार के विविध माध्यम हमारे पास मौजूद हैं, जिनके माध्यम से वैचारिक आदान-प्रदान होता है। हाव-भाव, गुदाएं चित्रात्मक चिह्न, भाषा, साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला संगीत, धर्म, दर्शन विज्ञान आदि के द्वारा सम्प्रेषण किया जाता है। सामान्य और पर एक व्यक्ति से दूसरे तक अर्थपूर्ण संदेशों द्वारा सम्प्रेषण संचार है। संचार की प्रक्रिया में तीन तत्व महत्त्वपूर्ण हैं 1 स्रोत यानी संदेश भेजने वाला 2 अर्थपूर्ण संदेश तथा 3 ग्रहणकर्ता यानी संदेश पाने वाला स्त्रोत और ग्रहणकर्ता के बीच जिस संदेश का आदान प्रदान होता है, वह सार्थक होना चाहिए अर्थात् प्रेषक द्वारा भेजा गया संदेश तब सम्प्रेषणीय होता है जब किसी भाव विचार जानकारी, अनुभव, सूचना, संवेदना, तथ्य आदि का सम्प्रेषण वक्ता करे और ग्रहणकर्ता उस संदेश से प्रभावित हो संदेश किसी न किसी माध्यम बोलकर लिखकर, संकेतों द्वारा किसी भी रूप में प्रेषित किया जाता है और ग्रहणकर्ता द्वारा उसे ग्रहण करके कोई न कोई प्रतिक्रिया होती है। इस पूरी प्रक्रिया को हम इस रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं



इस प्रक्रिया को समझने के लिए यदि हम कुछ प्रश्न करें तो यह प्रक्रिया अच्छी तरह समझ में आ जाती है 


1. कौन कहता है? (स्रोत), 


2. क्या कहता है? (संदेश) 


3. कैसे कहता है? (माध्यम) 


4. किससे कहता है? (ग्रहणकर्ता) 


5. किस प्रभाव के साथ ? (प्रभाव)


समाज में जनसंचार की प्रक्रिया के विषय में सर्वप्रथम सन् 1948 में हेराल्ड लासवेल ने संचार अध्ययन हेतु एक सुस्पष्ट मॉडल प्रस्तुत किया है, जिसमें उन्होंने जनसंचार की क्षमता और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समाज और मीडिया के सम्बन्ध को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इससे हम संचार प्रक्रिया के विषय में अच्छी तरह से समझ सकते हैं।


लाल का मानना है कि जनसंचार इन प्रश्नों के उत्तर में निहित है कि कौन क्या किस माध्यम से, किससे कहता है और उसका क्या प्रभाव पड़ता है। जनसंचार को प्रक्रिया को इन प्रश्नों के माध्यम से समझा जा सकता है। इस प्रक्रिया के क्रम को हम ऐसे व्यक्त कर सकते है


प्रेषक - सन्देश - माध्यम - सक्षम ग्रहणकर्ता। किन्तु केवल इतने से जनसंचार को व्यक्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए ट्रांसमीटर की पहचान, संदेश सामग्री का विश्लेषण, ट्रांसमीटर चैनल का अध्ययन, श्रोता और दर्शक समूह की पहचान और श्रोता समूह पर पड़ने वाले प्रभाव का भी अध्ययन आवश्यक है। सम्प्रेषण के लिए वक्ता श्रोता, वाक्य वाच्य स्थान, देश, काल आदि का प्रभाव पड़ता है। वक्ता ने क्या कहा? किस आशय से कहा? श्रोता ने क्या सुना उसकी मानसिक स्थिति कैसी थी? उसकी संदेश ग्रहण करने की क्षमता कितनी थी, किस स्थान, देश, काल में बात की गई? इन सभी बातों का प्रचुर प्रभाव पड़ता है और इन्हीं के अनुरूप सम्प्रेषण प्रभावशाली या प्रभावहीन हो जाता है लासवेल के प्रस्तुतीकरण का भी आशय मूलतः यही बताना है।







संचार दो तरफा प्रक्रिया है जिसके एक और प्रेषक है, दूसरी और ग्राहक प्रेषक संदेश भेजता है और प्राप्तकर्ता उसे ग्रहण करता है, उससे प्रभावित होता है और अपनी प्रतिक्रिया करता है लेकिन यह प्रक्रिया मशीनी नहीं है। उसमें सामाजिक दृष्टि, घटनाएँ, सम्प्रेषक या चैनल की भूमिका संदेश की स्थिति, गुणवत्ता और श्रोताओं की स्थिति, बौद्धिक क्षमता आदि इस प्रक्रिया के लचीलेपन को सिद्ध करती है।


इसके उपरांत शेनन और वेयर ने 1949 में सूचना सम्प्रेषित करने वाले जनसंचार चैनलों की तकनीकी क्षमता से सम्पन्न मॉडल प्रस्तुत किया। उन्होंने इस मॉडल द्वारा सूचना सम्प्रेषित करने और ग्रहण करने की प्रक्रिया को क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत किया। This process begins with a source that selects a message, which is then transmitted, in the form of a signal, over a communication channel, to a receiver, who transforms the signal back into a message for destination स्रोत एक संदेश चुनता है, फिर वह संदेश संचार माध्यमों द्वारा संकेत के रूप में परिवर्तित हो जाता है और संदेश श्रोता तक पहुँच जाता है। श्रोता इस संदेश को पुनः सम्प्रेषित करता है। पहुँच जाता है। श्रोता इस संदेश को पुनः सम्प्रेषित करता है।


सन् 1975 में जेम्स कैरी (James Carey) ने जनसंचार का एक शास्त्रोक्त मॉडल प्रस्तुत किया। उनका कहना था कि Communications linked to such terms an sharing, participation, association, fellowship and the possession of a common faith... A ritual view is not directed towards the extension of messages in space, but the maintenance of society in time, not the act of imparting information but the representation of shared beliefs,


यह मॉडल व्यंजक (expressive) मॉडल है। यह प्रेषक और प्रेष्य के बीच आपसी समझ और भावों पर निर्भर है। इसमें पकता और बोला की सन्तुष्टि आवश्यक है। इसमें प्रस्तुतीकरण का भी विशेष महत्व है।


इन मॉडलों के उपरान्त जनसंचार की प्रक्रिया को अधिक स्पष्ट करने के लिए पब्लिसिटी मॉडल की परिकल्पना की गई। पूर्व उल्लिखित मॉडलों में सामान्यतः जनता को दृश्य-श्रव्य माध्यमों से आकर्षित करना रहा है तो इस मॉडल में सम्प्रेषण के प्रचारक रूप को उभारा गया है। इसमें मीडिया का उपयोग विज्ञापन के लिए किया जाता है; जिसके सहारे से दर्शकों से राजस्व की प्राप्ति हो सके राजनीतिक या किसी अन्य एजेंट को आकर्षक रूप से प्रस्तुत करना इस मॉडल का लक्ष्य है। एक अन्य मॉडल की परिकल्पना एन्कोडिंग और डिकोडिंग से सम्बद्ध है। इस मॉडल को इस तरह से भी समझा जा सकता है - 




संचार माध्यमों द्वारा जो संदेश हम ग्रहण करते हैं, वह एक संदेश से आरम्भ होता है। दूसरे चरण में प्रसारण संसाधनों रेडियो, टी.वी. आदि का बहुत महत्व होता है। ये संसाधन स्टूडियो में दिखाए या बोले गए शब्दों या चित्रों का ध्वनि रूप में अर्थात तरंगों के रूप में कोडीफिकेशन करते हैं। संदेश सम्प्रेषित होता है और सम्प्रेषित संदेश का ग्रहण होने के उपरान्त उसका डीकोडीफिकेशन हो जाता है। इस तरह से शब्द तरंगों या ध्वनि में और ध्वनि या तरंग पुनः शब्द या चित्र में परिवर्तित कर दिये जाते हैं




जनसंचार के लिए आवश्यक है कि स्रोत और ग्रहणकर्ता का उद्देश्य स्पष्ट हो संदेश स्पष्ट और अबाधित रूप में ग्रहणकर्ता तक पहुँचे। संचार माध्यमों में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।








जनसंचार स्त्रोत और ग्रहणकर्ता के बीच एक साझे अनुभव के रूप में बाँटा जाता है यहाँ एक प्रश्न उठता है कि संचार में सर्वाधिक महत्व किसका है? संदेश देने वाले वक्ता का संचार माध्यमों का अथवा संदेश का विचारकों के इस सन्दर्भ में तीन सिद्धांत है। पहले सिद्धांत के अनुसार संचार की अन्तर्वस्तु ही वास्तव में संदेश होती है। आ संचार की महत्ता न वक्ता में है न संचार माध्यम में अपितु संचार की वास्तविक महत्ता संदेश के अर्थ में होती है। यहाँ भरतमुनि का यह कथन याद आता है योऽयो हृदयसवाची तस्य भावी रसोद्भव शरीरं व्याप्यते तेन शुष्क काष्ठ गियाग्निना (नाट्यशास्त्र - जैसे सूखी लकड़ी में आग तेजी से फैलती है इसी तरह जो अर्थ हृदय संवाद होता रस की उत्पत्ति करता है। शब्द की अर्थवत्ता के विषय में हमारे साहित्य शास्त्रियों पैयाकरणों, भाषाविदों ने बहुत महान और गंभीर अध्ययन किया है। संदेश के लिए अर्थपूर्ण संदेश शब्द का व्यवहार इसलिए किया जाता है कि यदि संदेश सार्थक नहीं होगा तो वक्ता के कथन या संचार माध्यम का कोई महत्व नहीं हैं।


दूसरे सिद्धांत के अनुसार माध्यम ही संदेश है। इस सिद्धांत के प्रस्तोता मार्शल मैकलुहान की दृष्टि में अन्तर्वस्तु माध्यम की अपेक्षा कम महत्वपूर्ण है। सम्प्रेषण के सिद्धान्तों में इस बात को प्रायः कहा जाता है कि महत्व इस बात का नहीं है कि आपने क्या कहा महत्त्व इस बात का है कि आपने कैसे कहा? कैसे कहने में माध्यम का महत्त्व जाहिर हो जाता है। मैकलूहान माध्यम को शीत और गर्न इन दो रूपों में देखते हैं। उनकी दृष्टि में टेलीविजन शीतल माध्यम है क्योंकि उसके संदेश को बड़ी संख्या में लोग दिमाग पर जोर डाले बिना ग्रहण कर लेते हैं जबकि पुस्तक, पत्र-पत्रिकाएँ आदि गर्म माध्यम है क्योंकि उनको पढ़कर सुनकर संदेश का अर्थ निकालना या संदेश ग्रहण करना अधिक कठिन है।


तीसरे सिद्धान्त के अनुसार वक्ता अन्तर्वस्तु और माध्यम की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। वक्ता अपनी चाकू चातुरी से श्रोताओं को अपने अनुकूल बना लेता है। धर्म प्रचारक नेता आदि अपने वकाव्य द्वारा पूरे जनमन को किस तरह अपनी ओर मोडले है, यह बात सबको ज्ञात ही है जादूगर, अभिनेता किस तरह अपने अभिनय से श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर लेते हैं कि कई बार हमें असत्य भी सत्य ही लगता है। यदि ध्यान दें तो ये तीनों सिद्धान्त अपनी अपनी जगह ठीक है। वस्तुत तीनों में से किसी का भी महत्त्व कम नहीं है, पर इन तीनों का लक्ष्य वह श्रीता पाठक दर्शक या जन है जिस तक संदेश सम्प्रेषित किया जाना है। यदि उस तक संदेश प्रेषित नहीं होगा तो वक्ता माध्यम या संदेश भी महत्वहीन हो जाएगा। अतः इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण मनुष्य ही है। वहीं विचारों का प्रस्तोता है, वही संदेश ग्रहण करने वाला है, वहीं फीडबैक देने वाला है।