आधुनिक भारतीय इतिहास का स्रोत सामग्री मूल्यांकन - Evaluation of the Source Material of Modern Indian History

आधुनिक भारतीय इतिहास का स्रोत सामग्री का मूल्यांकन - Evaluation of the Source Material of Modern Indian History

आधुनिक भारतीय इतिहास का स्रोत सामग्री का मूल्यांकन - Evaluation of the Source Material of Modern Indian History

कॉलिंगवुड महोदय के अनुसार स्रोतों पर आधारित इतिहास अतीत का विज्ञान है। जर्मनी में रकि, इंग्लैंड में एक्टर, इटली में क्रोचे एवं अमेरिका में कार्ल बेकर इत्यादि ने इतिहास अध्ययन की वैज्ञानिक एवं तकनीकी विधाओं को प्रस्तुत कर क्रांति का नेतृत्व किया। इतिहास लेखन में प्रामाणिक स्रोतों का अनुप्रयोग आज के वैज्ञानिक युग में समय की पुकार है। समाज इतिहास में यथार्थता की प्रस्तुति चाहता है, क्योंकि यथार्थता ही इतिहास की सर्वश्रेष्ठ कसौटी है। ऐसे में इतिहासकार का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है कि वह संकलित स्रोतों की प्रामाणिकता की जाँच करे।





स्रोतों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन साक्ष्यों द्वारा किया जाता है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ऐतिहासिक यथार्थवाद की रक्षा तभी हो सकती है, जब इतिहास उस सामग्री पर आधारित हो, जो कि व्यक्ति या वर्णित व्यक्ति या समाज की समसामयिक हो। समसामयिक चीजें अधिकतर भंगुर होती हैं, इसलिए जितने ही अधिक पुराने इतिहास में हम पुसते हैं, उसकी सामग्री कम होती जाती है चाहे वह सामग्री कितनी भी कम क्यों न हो, पर प्रत्यक्षदर्शी होने से सर्वोपरि साक्षी का प्रमाण नहीं हो सकती हैं। वहीं इतिहास की सर्वश्रेष्ठ कसोटी है।"





स्रोतों का मूल्यांकन इसलिए आवश्यक है कि कतिपय शरारती तत्व स्रोतों के साथ छेड़छाड़ करते हैं। ऐसी ही जालसाजी पर प्रकाश डालते हुए पुरातत्वविद राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है इतिहासकार के.पी. जायसवाल को किसी ने उड़ीसा से सूचित किया था कि वहाँ अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में एक ताडपोथी मिली है। उन्होंने उसी समय कह दिया कि वह जाली होगी। बाइस तेइस

शताब्दियों पार करना हमारे देश में ताड़ पत्र के लिए संभव नहीं है। अधिक आग्रह करने पर देखा, वहीं बात सही निकली।" उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि इतिहास के क्षेत्र में कतिपय लोग इस प्रकार की जालसाजियाँ करते हैं। मुगल कालीन वित्रों में इस प्रकार की जालसाजियाँ अक्सर देखने को मिलती है।





इन जालसाजियों का प्रमुख कारण यह है कि म्यूजियम और देश-विदेश के निजी संग्राहक अच्छे दाम पर ऐसे चित्रों को ले लेते हैं। इस प्रकार की जालसाजियों को पकड़ने के लिए इतिहासकार को अनुभवी एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना आवश्यक है। स्रोतों के मूल्यांकन के दौरान पुरातात्विक एवं साहित्यिक स्रोतों की जालसाजियों के पर्दाफाश में


एक इतिहासकार को एक वैज्ञानिक एवं वकील की दोहरी भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। एक वैज्ञानिक की भाँति इतिहासकार अपने स्रोतों से प्राप्त तथ्यों की जाँच साक्ष्य द्वारा करता है। पुरातात्विक स्रोतों के मूल्यांकन में वैज्ञानिक विधि अधिक कारगार है। कोई पुरातात्विक अवशेष कितना पुराना है उसका काल निर्धारण कार्बन 14 (C-14) विधि द्वारा किया जा सकता है।


आवश्यकता पड़ने पर एक इतिहासकार को स्रोतों के मूल्यांकन में अधिवक्ता की भूमिका भी निभानी होती है। इतिहासकार अतीत के स्रोतों की प्रामाणिकता की जाँच के लिए अतीत के ही अन्य ऐतिहासिक स्रोतों का साक्ष्य के रूप में उपयोग करता है। 1939 ई. में हिस्टोरिकल एसोसिएशन में भाषण देते हुए लार्ड सैकी ने स्पष्ट किया था कि इतिहासकार तथा अधिवक्ता द्वारा साक्ष्यों के प्रयोग में समानता है। दोनों का उद्देश्य साक्ष्यों के आधार पर घटना की प्रामाणिकता की जाँच करना है।






यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक अधिवक्ता के विपरीत एक इतिहासकार स्वयं ही यादी प्रतिवादी होता है। यहाँ तक कि न्यायाधीश भी स्वयं ही होता है। किटसन क्लार्क इतिहासकार को साक्ष्यों के संकलन एवं प्रस्तुतीकरण में पूर्णतः स्वतंत्र नहीं मानते। उनके अनुसार इतिहासकार समसामयिक तथा आने वाली पीढ़ी की रुचि द्वारा नियंत्रित होता है। कुछ हद तक उसकी स्वयं की अंतशेतना भी उसे नियंत्रित करती है। अपनी अतश्चेतना एवं समसामयिक रुचि को देखते हुए ही एक इतिहासकार स्रोतों के संकलन एवं उनमें निति तथ्यों के प्रस्तुतीकरण में स्वयं न्यायाधीश जूझी वादी प्रतिवादी, अधिवक्ता, जाँचकर्ता एवं गुमचर होता है इतिहासकार भली भाँति जानता है कि उसकी बोड़ी-सी भी गलती आने वाली पीढ़ी द्वारा माफ नहीं की जाएगी। अतः इतिहासकार को स्रोतों के मूल्यांकन में हर संभव समधानी





बरतनी होती है। निष्कर्षतः स्रोतों के संकलन एवं चयन की प्रक्रिया से गुजरने के पश्चश् इतिहासकार अपने अनुभव कौशल एवं अधिवक्ता व वैज्ञानिकता की भूमिका निभाते हुए चयनित स्रोतों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन करता है। एक ही विषय वस्तु के कई स्रोत मिलने पर उनका मूल्यांकन कर इतिहासकार उनका क्रम सुनिश्चित करता है और तनुसार ही उनका इतिहास लेखन में उपयोग करता है।







इतिहासकार इतिहास लेखन हेतु सर्वप्रथम वर्ण्य विषय का चयन करता है। इसके बाद वह अपने वर्ण्य विषय के अनुरूप स्रोतों की खोज करता है। प्राचीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास के स्रोतों के स्वरूप में पर्याप्त भिन्नता है, इतिहासकार को यह तथ्य सदैव ध्यान रखना चाहिए। स्रोतों की खोज के साथ ही इतिहासकार स्रोतों का संकलन करता जाता है। संकलित स्रोतों में से वर्ण्य विषयानुसार स्रोतों का चयन एक महत्वपूर्ण किया है, जिसमें इतिहासकार को अपने कौशल एवं वैज्ञानिक दृष्टि का उपयोग करना होता है।






स्रोतों की खोज के पश्चात् इन स्रोतों में कल्पना एवं यथार्थ के तत्वों की खोज हेतु इतिहासकार स्रोतों का मूल्यांकन करता है। जो स्रोत पूर्णतः कल्पनात्मक तथ्यों पर आधारित हों उनका परित्याग कर इतिहासकार उन स्रोतों को बरीयता देता है, जिनमें यथार्थ तथ्यों की अधिकता है। स्रोतों के मूल्यांकन में इतिहासकार को कभी एक वैज्ञानिक तो कभी एक न्यायाधीश की भूमिका निभानी होती है। यथार्थता इतिहास की सर्वश्रेष्ठ कसौटी है अतः प्रामाणिक स्रोतों का उपयोग ही ऐतिहासिक यथार्थता की रक्षा कर सकता है। जन सामान्य एक इतिहासकार से यथार्थ प्रस्तुति की आशा करता है अतः आम जनता की उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए भी इतिहासकार को यथार्थता के प्रस्तुतीकरण हेतु स्रोतों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन करना होता है।