इतिहास के स्रोतों का परीक्षण - Examining the sources of history

इतिहास के स्रोतों का परीक्षण - Examining the sources of history

इतिहास के स्रोतों का परीक्षण - Examining the sources of history

इतिहास का शोध अन्य सभी विषयों में शोध की तरह एक लंबी प्रक्रिया है। इसे करते समय योग्य एवं सफल परिणाम प्राप्त हो इसके लिए उसके महत्वपूर्ण चरणों की जानकारी शोधकर्ता को होनी चाहिए। प्रत्येक विषय के शोध की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न होती है। इतिहास के शोधकर्ता को पूर्वकालीन लिखित साधनों का उपयोग बड़े पैमाने पर करना होता है। अतः ऐतिहासिक लिखित सामग्री कहाँ प्राप्त होगी इसे शोधकर्ता को पहले ही सोचना होता है। केवल ऐतिहासिक जानकारी से इतिहास का निर्माण नहीं होता। यद्यपि वह सत्य है, फिर भी उसके बिना इतिहास का भवन खड़ा नहीं हो सकता, वह भी उतना ही सत्य है।






मूल ऐतिहासिक स्रोतों के संकलन के बाद का दूसरा चरण मूल स्रोतों की सत्यता की जाँच करना होता है इतिहास पूर्वकाल की कपोलकल्पित घटना नहीं है, जबकि जो प्रत्यक्ष पटित हुआ हो, उसका प्रकाशन इतिहास में अपेक्षित होता है। पूर्वकाल में क्या हुआ कैसे हुआ इसकी जानकारी देने का कार्य मूल स्रोत करते हैं, किंतु उससे प्राप्त होने वाली जानकारियों की जाँच करना शोधकर्ता के लिए आवश्यक होता है। वर्तमान काल में होने वाली घटनाओं के वर्णन में सही झूठ का मिश्रण जिस तरह कई बार दिखाई देता है, उसी तरह का मिश्रण पूर्वकाल की जानकारी देने वाले मूल स्रोतों में भी होने की पूर्ण संभावना रहती है। अतः साधन तत्कालीन हैं या नहीं और उनसे मिलने वाली जानकारी विश्वसनीय है या नहीं, इनका परीक्षण कर लेना अत्यंत आवश्यक होता है। जानकारी के पूर्ण सत्य सिद्ध होने पर ही उसका उपयोग ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में किया जा सकता है।


ऐतिहासिक स्रोतों के परीक्षण का वह चरण शोधात्मक एवं विश्लेषणात्मक होता है। इस चरण के दौरान शोधकर्ता की भूमिका एक निरीक्षक के समान होती है। जिस तरह जासूसी विभाग का निरीक्षक आँख और कान खुले रख कर घटना की सूक्ष्म जाँच करता है। इसी तरह का कार्य शोधकर्ता को करना होता है। इसके लिए उसके पास कुशाग्र बुद्धि उत्तम विवेक और सदा संदेह करने की वृत्ति होनी चाहिए।






जो घटनाएँ हुई था जैसी घटित हुई, क्या वे सचमुच में हुई हैं? और जिस तरह उन्हें पढ़ा जा रहा है, क्या वे वैसी ही हुई हैं? इसकी जांच पड़ताल करना अत्यावश्यक होता है क्योंकि विश्वसनीयता की कसौटी पर परख कर निश्चित की गई जानकारी को ही प्रमाण का स्वरूप प्राप्त होता है, और उसका उपयोग इतिहास लेखन में किया जा सकता है। तथ्य इतिहास लेखन का आधार होता है। इस संदर्भ में हॉकेट का यह एक वक्तव्य महत्वपूर्ण है कि घटना का निश्चित परीक्षण शोधकर्ता का मुख्य उद्देश्य होता है क्योंकि आगामी समस्त प्रक्रियाओं का मूल आधार ये परीक्षित घटनाएँ ही होती हैं।। स्रोत परीक्षण बाह्य एवं आंतरिक


स्रोतों से प्राप्त जानकारी प्रमाणों के रूप में उपयोग की जा सकेगी या नहीं इसका निर्णय करने के लिए शोधकर्ता को उस पर परीक्षण की प्रक्रिया करनी होती है। विश्वसनीयता निर्धारित करने के लिए. स्रोतों पर दो प्रकार के परीक्षण अनिवार्य होते हैं।


(1) स्रोतों का ब्राह्म परीक्षण और


(2) स्रोतों का आंतरिक परीक्षणा


बाह्रा परीक्षण


बाह्य परीक्षण, किसी भी स्रोत के जाँच की प्रथम प्रक्रिया है। ऐतिहासिक स्रोत प्राप्त होने पर उसकी सत्यता परखने के लिए प्रारंभ में उन स्रोतों के विषय में स्वयं को ही कुछ प्रश्न पूछने होते हैं और उनकी सत्यता के विषय में आशंका प्रकट कर जाँच प्रारंभ करनी होती है। इस संबंध में सामान्यतया जो प्रश्न हो सकते हैं वे निम्नलिखित




(1) शोध के लिए चयनित विषय से संबंधित वह स्रोत है या नहीं 


(2) स्रोत, मूल रूप में है या मूल की प्रति है खोत असली है या नकली है?


(3) स्रोत, शोध एवं लेखन के काल से संबंधित है या नहीं


(4) स्रोत का विषय शोध के विषय से संबंधित है या नहीं?


(5) स्रोतों में किन स्थलों का उल्लेख है? क्या वे स्थल शोध विषय से संबंधित है या नहीं? इन प्रश्नों का उद्देश्य मूल स्रोतों का लेखक स्थल एवं काल को निर्धारित करना होता है। इसे ही बाह्य परीक्षण कहते हैं। विद्वानों ने बाह्य परीक्षण को दो भागों में बाँटा है 


(1) लेखन परीक्षण तथा 


(2) लेखक परीक्षण


विश्व में कुछ इतिहासकार बाह्य परीक्षण को गौण मानते हैं। हॉकेट महोदय बाह्य परीक्षण को एक अपरिपक्व प्रक्रिया मानते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि इस प्रक्रिया का महत्व गौण है। यह


परीक्षण की मात्र प्रथम सीढ़ी होती है। किले में प्रवेश करना हो तो प्रथम प्रवेश द्वार खोलना पड़ता है। इसके बिना किले के अंदर प्रवेश नहीं हो सकता इसी तरह स्रोतों का लेखक कौन है? उसका काल कौन सा है? और उसका स्थल कौन सा है। इसकी जाँच किए बिना अगली सीढ़ी पर कदम नहीं रखा जा सकता। स्रोत यदि शोध विषय से संबंधित न हो और नकली सा लगता हो तो क्या उसे छोड़ देना चाहिए या उसका आगामी परीक्षण किया जाना चाहिए ?





 बाह्य परीक्षण प्रक्रिया


इतिहास के स्रोतों के बाह्य परीक्षण हेतु निम्नलिखित प्रक्रिया को अपनाना पड़ता है बाह्य परीक्षण के लिए सर्वप्रथम शोध विषय के स्वरूप का विचार करना आवश्यक होता है। यदि शोध का विषय मौर्य कालीन हो और स्रोत शुंगकालीन हो तो प्रथम दृष्टि में ही उसे अलग करना।


(2) बाह्य परीक्षण के लिए द्वितीय कदम यह है कि उपलब्ध स्रोत मूल स्वरूप में हस्तलिखित है या उसकी प्रति है? इसे जांचने की एक विधि होती है। प्रत्येक काल की अपनी एक लेखन शैली होती ह अक्षरों के घुमा-फिराब अलग-अलग होते हैं, विशिष्ट शब्दों का प्रयोग मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि स्रोत उस काल का है या नहीं। यहाँ इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि पूर्वकालिक दरबारी स्रोतों पर विशिष्ट स्थान पर मुहर लगाई जाती थी। इससे काल निश्चित करने में सहायता मिलती है। इसी तरह किन्ही मूल स्रोतों हस्तलिखितों की प्रति बनाते समय कुछ गलतियाँ अनजाने में भी हो जाती हैं। मूल स्रोत के कुछ शब्द प्रति बनाते समय छूट जाते हैं, कुछ मूल स्रोत में होते ही नहीं है और प्रति में डाल दिए जाते हैं। अतः स्रोत के परीक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्रोत अपने मूल स्वरूप में है या उसकी प्रति बनाई गई है।


किसी भी स्रोत के हस्तलिखित की एक प्रति प्राप्त होने पर यह भी खोजा जाता है कि क्या उसकी और प्रतियाँ उपलब्ध है। यदि हैं तो उन्हें खोज कर उनका तुलनात्मक अध्ययन करना होता है। तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि स्रोत का लेखक एक ही है या अलग-अलगा साथ ही सभी प्रतियों में अक्षरों के घुमाव समान हैं या नहीं प्रयुक्त शब्दों में समानता है या नहीं? इन सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने होते हैं। उदाहरण के लिए पुरानी पोथियों की दो-तीन प्रतियाँ मिल जाए तो कागज का स्वरूप अक्षरों के घुमाव शब्दों का उपयोग इत्यादि से ज्ञात हो जाता है कि मूल प्रति कौन सी है। मूल स्रोत में हुई त्रुटियों को सुधारने का प्रयास उसकी प्रति बनाते समय किया गया है। इससे भी मूल स्रोत एवं उसकी प्रति के बीच अंतर स्पष्ट हो जाता है।








(3) इसी प्रकार यदि कोई मूल स्रोत प्राप्त होता है और यदि स्रोत में लेखक का नाम पाया जाता है तो वहीं मूल लेखक है या नहीं अथवा क्या किसी दूसरे व्यक्ति ने मूल लेखक के नाम से लिखा है इसका पता भी ने लगाया जा सकता है। कभी-कभी किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के नाम से अन्य कोई व्यक्ति लेख लिखता है। ताकि प्रतिष्ठित व्यक्ति को महत्व प्राप्त हो सके। ऐसी परिस्थितियों में स्रोत में लिखित विषय का आशय और उसमें प्रयुक्त शब्दों को पढ़ कर मूल अथवा नकल का निर्णय करना चाहिए।


(4) मध्ययुग में शासकों के दरबार में चलने वाले शासकीय पत्रव्यवहारों में आज्ञापत्र दानपत्र, अन्य शासकों से होने वाला पत्रव्यवहार, इत्यादि पर निश्चित स्थान पर मुहर लगाने की पद्धति होती थी। इस तरह की मुहर न दिखने पर उस दस्तावेज की सत्यता के विषय में प्रथम दृष्टि में ही आशंका निर्मित होती है। अथवा निश्चित स्थान के अतिरिक्त अन्यत्र मुहर लगी हो तो भी संदेह की संभावना होती है। इसी तरह मुगलकालीन तथा मराठाकालीन स्रोतों में पत्र का प्रारंभ और अंत विशेष रीति से और विशेष शब्दों से होता था। ऐसा न पाए जाने पर स्रोत का अवलोकन सूक्ष्मता से किया जाना चाहिए।


(5) लेखन एवं उसके काल निर्धारण के लिए कालगणनाविज्ञान, भाषाविज्ञान, लिपिविज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, मुद्राशास्त्र आदि इतिहास के सहायक शाखों में सहायता लेना चाहिए यदि किसी स्रोत पर काल का उल्लेख न हो तो उसमें उल्लेखित घटनाओं अथवा व्यक्तियों से स्रोत का काल निर्धारण किया जा सकता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्रोत में वर्णित विषयवस्तु समकालीन लेखन पद्धति के अनुकूल है या नहीं? लेख में जिस काल का उल्लेख होगा उससे लेख में वर्णित पटनाओं एवं व्यक्तियों के उल्लेख में भी समरूपता होना चाहिए तभी वह सोत उपयोगी माना जा सकता है। शेरशाहकालीन किसी स्रोत में यदि अकबरकालीन किसी व्यक्ति का अथवा किसी घटना का उल्लेख हो तो उसे निश्चित रूप से नकली मानना चाहिए। अतः स्रोत के समस्त कारक सुसंगत होना चाहिए।










(6) लेखक एवं काल की खोज करने पर उस खोत में उल्लेखित स्थल की भी आँच करना चाहिए। शोध का विषय जिस क्षेत्र से संबंधित हो उस क्षेत्र का उल्लेख उसमें है या नहीं, या क्या किसी अन्य क्षेत्र का उल्लेख है इसकी खोज एवं अन्वेषण अनिवार्यतः करना चाहिए। उदाहरण के लिए, औरंगजेब के दक्षिण अभियानों का अध्ययन करते समय यदि रावी, सतलज, व्यास, झेलम और चिनाब नदियों का उल्लेख मिले और उत्तर की ओर के गाँवों के नामों, नदियों और पर्वतों के उल्लेख हो तो वह स्रोत असली नहीं है, यह निश्चित रूप से माना जा सकता है। कभी-कभी स्थलों के स्पष्ट उल्लेख स्रोतों में नहीं होते, ऐसे समय मुख्य स्थल के निकट के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों जैसे नदियाँ, पर्वत, उद्योग, मार्ग एवं निकटवर्ती गाँवों के उल्लेख भी सत्यता प्रकट करते हैं। विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार कभी-कभी शब्दों का उपयोग परिवर्तित दिखता है तथा अक्षरों की शैली में बदलाव होता है अथवा एक ही शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। अतः भिन्न क्षेत्रों में भाषाई परिवर्तन की शोधकर्ता को जानकारी होना आवश्यक है। इस आधार पर स्रोतों का स्थल अथवा क्षेत्र संभावित रूप से निर्धारित किया जा सकता है।


निष्कर्षः यह माना जा सकता है कि बाह्य परीक्षण का उद्देश्य मूल स्रोतों की सत्यता का पता लगाना होता है। स्रोत का लेखक कौन है ?, स्रोत का काल क्या है? क्या इसके विषय में शोध पूर्ण हो गया है ? इन तीन बातों में सुसमता है या नहीं ? यदि इन तीनों तथ्यों में शोधकर्ता आ जाए तो बाह्य परीक्षण की कसौटी पर उस स्रोत को मूल एवं सत्य मानना चाहिए। बाह्य परीक्षण के साथ परीक्षण का प्रथम चरण समाप्त हो जाता है। तत्पचशात् शोधकर्ता को मूल स्रोत का आंतरिक परीक्षण करना होता


बाह्य परीक्षण एवं आंतरिक परीक्षण के संदर्भ में डॉ. शेख अली द्वारा प्रस्तुत उदाहरण बहुत ही स्पष्ट है। उनके अनुसार डाक से प्राप्त कोई लिफाफा पाते ही हमारी होती है और हम उस लिफाफे पर नाम और पता देखते हैं तत्पश्चात् यह देखते हैं कि पत्र का प्रेषक कौन है एवं उसके स्थल का उल्लेख है या नहीं? इसके बाद हम देखते है कि वह पत्र किस दिन डाक में डाला गया है? और किस दिन वह हमें प्राप्त हुआ ? इसके लिए हम डाक विभाग की मुहरे देखते हैं। यही बाह्य परीक्षण कहलाता है। इन तीन बातों के विषय में आपस्त होने पर हम लिफाफा खोल कर उसके अंदर की विषय वस्तु को पढ़ते हैं कि उसमें क्या कहा गया है, उसका आशय क्या है? इसका अवलोकन करते हैं। यह आंतरिक परीक्षण कहलाता है। इसी प्रकार डी. के. एन. चिटणिस कहते हैं, "बाह्य परीक्षण में स्रोतों की सत्यता को जाँचना पड़ता है, जबकि आंतरिक परीक्षण में उसकी विश्वसनीयता निर्धारित करनी होती है।" डी. चिटणिस के इस कथन से स्पष्ट होता है कि मूल स्रोतों के बाह्य एवं आतरिक दोनों ही प्रकार के परीक्षण अनिवार्य है।





आंतरिक परीक्षण


मूल स्रोतों की विश्वसनीयता निर्धारित करने की दृष्टि से बाह्य परीक्षण की तुलना में आंतरिक परीक्षण अधिक महत्वपूर्ण है। मूल स्रोत का लेखक काल एवं स्थल के विषय में बाह्य परीक्षण से संतुष्ट होने के बाद उसके आशय की विश्वसनीयता तय करना आंतरिक परीक्षण के अंतर्गत आता है। किसी पत्र का आंतरिक परीक्षण करने का अर्थ है कि पत्र में लेखक ने क्या लिखा है उसमें कौन-कौन से विषय हैं? किन-किन व्यक्तियों या पटनाओं के उल्लेख है ? किसके विषय में क्या राय व्यक्त की है? उसके पीछे का उद्देश्य क्या होगा ? लेखक की मानसिकता एवं वैचारिक भावना क्या होगी? क्या वास्तव में पत्र में कुछ निहित अर्थ भी दिखाई देता है। ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर खोजना अन्तरिक परीक्षण होता है। यह संपूर्ण प्रक्रिया नकारात्मक स्वरूप की होती है अर्थात् जो हाथ लगा उसे सत्य ही स्वीकार न करते हुए निरंतर संदेह करते हुए उसके असत्य होने की स्वीकृति मान कर उसे सत्य की कसौटियों पर जाँचना होता है। अंत में सभी आशंकाएं निर्मूल होने पर शेष जानकारी ऐतिहासिक तथ्य अथवा प्रमाण के रूप में शोधकर्ता लेखन में उपयोग करता है।


आंतरिक परीक्षण के दो भाग होते हैं।


(1) सकारात्मक परीक्षण 


(2) नकारात्मक परीक्षण 





सकारात्मक परीक्षण

सकारात्मक परीक्षण का उद्देश्य लेख के आशय को समझना होता है। लेख में लेखक ने लिखा है? और उसका अर्थ क्या है इसकी खोज शोधकर्ता को करना आवश्यक होता है। स्रोत में लिखे तथ्य विश्वसनीय है या नहीं, यह विचार सकारात्मक परीक्षण के चरण में अपेक्षित नहीं होता। स्रोत के आशय का आकलन करने के लिए स्रोत के पूरे लेखन का विश्लेषण करना आवश्यक होता है क्योंकि जब एक से अधिक वक्तव्य किए गए हो तो उनके सभी सत्य अथवा सभी असल्य होने की संभावना कम ही होती है। उनमें से कुछ सत्य अथवा कुछ संदिग्ध होने से आशंका उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए सकारात्मक परीक्षण के समय लेख के कुछ बक्तव्यों को हिस्सों में बांट कर उनमें से प्रत्येक की स्वतंत्र रूप से जाँच करना और भी उत्तम होता है। इससे स्रोत के प्रत्येक वक्तव्य के विषय में सूक्ष्मता से विचार कर उसकी सत्यता की जांच की जा सकती है।


इसी तरह लेख का संपूर्ण एवं सही अर्थ समझने के लिए यह भी देखना होता है कि उपलब्ध सामग्री इतिहास के दृष्टिकोण से आवश्यक है भी या नहीं। यह जांच अति आवश्यक होती है। खोत का समुचित आकलन करने के लिए स्रोत जिस काल का हो, उस काल की भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि भाषा का उपयोग कई बार लचीला होता है। भाषा का उपयोग काल और क्षेत्र के अनुसार बदलता है। एक ही शब्द भिन्न-भिन्न काल अथवा क्षेत्रों में अलग-अलग अर्थों में उपयोग किए जाते हैं। संभव है कि किसी काल में प्रचलित शब्द कालांतर में प्रचलन से हट जाता है। इसी तरह नगरीय तथा ग्रामीण भाषा में भी

अंतर होता है। ये सभी भाषा भेद शोधकर्ता को पता हो तो स्रोत में वर्णित लेख का अर्थ लगाना आसान हो जाता है।









कभी-कभी स्रोत के लेख की भाषा पढ़ते समय उसका अर्थ सुसंगत नहीं लगता। कुछ विचित्र सा या असंगत लगता है। ऐसे समय में उस वक्तव्य का क्या अर्थ है ? प्रत्यक्ष उपयोग किए गए शब्दों के अर्थ की अपेक्षा लेखक को कुछ और कहना है, यह बात ध्यान में आती है। ऐसा होने पर वक्तव्य का संदर्भ ध्यान में रख कर उसमें उसका अर्थ खोजना होता है। उदाहरण के लिए सरदार पटेल के विषय में सदैव 'लौह पुरुष' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा अर्थ विचित्र लगता है। इसके लिए उसका आंतरिक अर्थ देखना होता है और ऐसा प्रतीत होता है कि उनके निर्णय एवं कृतियाँ लोहे की तरह अटल एवं बलशाली होने के कारण उन्हें लौह पुरुष कहा गया है। इसी तरह श्रीमति इंदिरा गाँधी का वर्णन एक लेखक ने "The only Man in the Cabinet" इस तरह किया है। इसका शाब्दिक अर्थ स्वाभाविक रूप से अटपटा लगता है, परंतु मंत्रिमंडल में उचित समय पर सही निर्णय केवल वे ही अकेली लेती थी। इस तरह Man शब्द का अर्थ ध्यान में रखकर और उसका संदर्भ देखकर वाक्य का वास्तविक अर्थ समझ में आ जाता है। 1555 ई. में मुगल राजगद्दी पर लौटे मुगल शासक हुमायु को प्राप्त सुल्तान का पद कोटों का ताजा था। इस लेख का अर्थ है कि हुमायू के लिए राजपद सुखदायी नहीं था, बल्कि वह ताज काँटों की तरह चुभने वाला था। अतः निष्कर्षतः माना जा सकता है कि लेख के सकारात्मक परीक्षण में शोधकर्ता को प्रत्येक वक्तव्य का वास्तविक अर्थ समझना होता है तभी सही इतिहास प्रकाश में आता है।


नकारात्मक परीक्षण स्रोत की विश्वसनीयता निर्धारित करने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यह कार्य काफी कष्टकारी भी होता है। इस चरण में लेख के वक्तव्य किन परिस्थितियों में लेखक ने किए हैं, उनका संदर्भ क्या है ? विशिष्ट वक्तव्य करने के पीछे क्या उसका कोई उद्देश्य दिखाई देता है ? आदि की आँच पड़ताल करनी होती है। इस चरण में भी लेख के प्रत्येक वक्तव्य के पीछे संदर्भ एवं लेखक की भूमिका परखने के लिए पूर्ण समझदारी से सोच विचार कर सत्य को खोजना पड़ता है।










नकारात्मक परीक्षण के अंतर्गत दो कार्य किए जाते हैं। प्रथम यह कि लेखक के उद्देश्य का ईमानदारी की अन्वेषण किया जाता है जिसे अंग्रेजी में Good Faith कहते हैं। द्वितीय यह कि क्या वक्तव्य अचूक है ? यदि नहीं तो उसका क्या कारण है ? इन तथ्यों की जाँच करना। इसे अंग्रेजी में Errors: Accuracy कहते हैं।


नकारात्मक परीक्षण के लिए शोधकर्ता को कुशाग्र बुद्धि, सूक्ष्मवृत्ति, विवेक तथा तीक्ष्ण आकलन शक्ति की आवश्यकता होती है क्योंकि किसी लेख का लेखक कौन है और उसने जो लेख लिखा है उसका आशय क्या है? यह समझने पर लेख का नकारात्मक परीक्षण अनिवार्य होता है। यहाँ दो बात महत्वपूर्ण है। प्रथम यह कि लेख के पीछे लेखक का उद्देश्य क्या है ? द्वितीय यह कि क्या उसका लेख पूर्वग्रह से ग्रसित है? नकारात्मक परीक्षण में स्रोत के लेखक के विषय में उसके व्यक्तित्व, मानसिकता बाह्य परिस्थिति एवं वैचारिक स्तर आदि से संबंधित प्रश्न शोधकर्ता के समक्ष आना चाहिए तभी नकारात्मक परीक्षण सही सिद्ध होता है। जब स्रोत के लेखक के व्यक्तित्व, आसपास की परिस्थिति बौद्धिक और वैचारिक स्तर तथा मानसिकता की जानकारी प्राप्त हो जाती है तब ही उसके द्वारा व्यक्त मतों अथवा वक्तव्यों की सत्यता को स्वीकार किया जा सकता है। इस दृष्टि से लेखक के विषय में निम्नलिखित जानकारी आवश्यक प्राप्त करना चाहिए।


क्या लेखक व्यक्तिवादी है? क्या लेखक राज दरबारी/राजाश्रय प्राप्त शासकीय सेवारत अधिकारी या कर्मचारी राजनीतिक दल का प्रतिनिधि या सदस्य है ? यदि ऐसा है तो वह खुल कर अपनी राय प्रकट नहीं करेगा। वह राजा/शासन की प्रशंसा में लिखेगा और राजासत्ताधारी दल के विरोधियों के विषय में आलोचनात्मक लेखन करेगा। लेखक किसी धर्म विशेष का प्रचारक अथवा कर समर्थक हो तो उसके लेखन में संभवतः अन्य धर्मों के विषय में आलोचनात्मक बक्तव्य मिलेंगे।


 लेखक समाज के किस वर्ग का है? अथवा उसका आर्थिक स्तर क्या है? यदि वह उच्च वर्ग या विशिष्ट जाति का है तो उसका प्रतिचिव उसके लेखन में दिखाई देगा है। लेखक बुद्धिवादी है अथवा कल्पनावादी अथवा राष्ट्रीय वृत्ति का है अथवा अंध राष्ट्रवादी प्रवृत्ति का है। इसकी जानकारी हो तो उसके वक्तव्यों की सत्यता की जाँच आसान हो जाएगी।


 लेखक लिखते समय कुछ तथ्यों को छिपाकर लिख रहा है अथवा सत्य छिपा रहा है अथवा सत्य असत्ता का मिश्रण कर रहा है? वह सत्य जानता है लेकिन सत्य छिपाने का उसका प्रयास दिखाई दे रहा हो तो क्या वह ऐसा किसी स्वार्थ वश कर रहा है या किन्हों विशिष्ट परिस्थितियों अथवा किसी व्यक्ति के दबाव में कर रहा है? ये सभी जानकारियाँ होना चाहिए। लेखक जो लिख रहा है उसके पीछे उसका उद्देश्य क्या है? यदि वह तर्कहीन लेखन कर रहा हो तो क्या वह ऐसा अपना बड़प्पन दिखाने हेतु अथवा स्वयं बड़प्पन पाने अथवा किसी पर अपना प्रभाव जमाने के उद्देश्य से तो नहीं लिख रहा है? इसकी जाँच आवश्यक होती है।












लेखक जिस घटना वा व्यक्ति के विषय में लिखता है, वह अपनी स्वयं की भूमिका से लिखता है। उसमें उसका अपना व्यक्तित्व झलकता है। कोई घटना प्रत्यक्ष देखने पर उसका वर्णन लेखक क्यों का त्यों नहीं करता है अथवा उसे जो दिखाई देता है वह यथार्थ से कुछ भिन्न होगा इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। शायद सुनी-सुनाई जानकारी के आधार पर लेखक अपनी बुद्धि एवं भाषा कौशल से किसी घटना का यथार्थ लगने वाला वर्णन कर सकता है लेकिन ऐसे लेखन में विवरण की गड़बड़ी होती है। इसलिए लेखन में लेखक ईमानदारी और सत्य कथन का दावा करता है। कथन सच है या नहीं? उसके लेख की जानकारी से उसका क्या संबंध था? वह जानकारी उसने स्वयं प्राप्त की थी या सुनी-सुनाई के आधार पर लेखन कर दिया है? क्या वह सही समझने की बुद्धि रखता है? वह समझदार एवं विवेकपूर्ण दिखता है या पूर्वग्रह से ग्रसित है ? ऐसे अनेक प्रश्नों की सहायता से लेखक की पृष्ठभूमि परखी जाती है एवं उसके वक्तव्य विश्वसनीय है या नहीं इसे तय किया जाता है। 2.3.6.3 इतिहास लेखन में त्रुटियों की खोज


लेखन की वास्तविकता जाँचना आंतरिक परीक्षण का अंतिम चरण होता है। इस चरण से पूर्व शोधकर्ता द्वारा लेखक की ईमानदारी की जाँच की गई होती है। यद्यपि लेखक ईमानदार होता है किंतु फिर भी उसके लेखन में गलतियाँ होने की संभावनाएँ होती हैं। ऐसी गलतियाँ लेखक से अनजाने में भी हो जाती हैं लेकिन ऐसी गलतियों को खोजना आवश्यक होता है ताकि प्रमाण उचित एवं सही प्राप्त हो सकें। ऐसी स्थिति में सामान्यतः निम्नलिखित बातों की जाँच करना आवश्यक होता है।


(1) लेखक ने जो लिखा है क्या वह उसने स्वयं देखा है? या सुनीसुनाई बातों के आधार पर लिखा है? प्रत्यक्ष में देखी घटना का वर्णन और उसकी सूचनाएं अधिक तथ्यात्मक एवं विश्वसनीय होती हैं। कई बार सैनिक अथवा विजय अभियानों के वर्णन सुनी सुनाई जानकारी के आधार पर लिखे जाते हैं। अतः अभियानों में सैनिकों की संख्या प्रयुक्त हथियारों एवं मृतकों की संख्या आदि विवरण संदिग्ध होते हैं।


(2) लेखक ने जो लिखा है, वह सामान्य परिस्थिति अपना विशिष्ट परिस्थिति में लिखा है ? में उदाहरण के लिए किसी धार्मिक समारोह में अथवा शासकीय समारोह में अथवा राजनीतिक सभा में कितने श्रोता उपस्थित थे अथवा कौन-कौन उपस्थित था? इसका विर नहीं होता क्योंकि ऐसी सार्वजनिक घटनाओं की जानकारी अखबारों को देने वाले संवाददाता पटना स्थल पर उपस्थित होने के बाद भी कई बार विशाल जनसमूह का वास्तविक विवरण नहीं दे पाते हैं और इसलिए उनके विवरण संदिग्ध होते हैं।






लेखन में वर्णित घटनाएँ यदि अत्यधिक पुरानी हो अथवा दूरस्थ क्षेत्रों में पटित हुई हो तो लेखन में गलतियों की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए "Ten Days that Shook the World"


नामक ग्रंथ में रूस में हुई समाजवादी क्रांति के दस दिनों में हुई घटनाओं का वर्णन अत्यंत सटीक है। किंतु रूस जैसे विस्तृत देश में दस दिनों की पटनाओं को सही-सही रूप से नोट करना एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। अतः ऐसे लेखन के विवरण में अनजाने में गलतियाँ हो सकती हैं। यद्यपि लेखक ईमानदार रहा होगा किंतु प्रायोगिक रूप में यह उसके बस में नहीं था। सैलिसबरी नामक अमेरिकी संवाददाता द्वारा वियतनाम में अमेरिकी सेनाओं तथा वियतनाम वासियों के मध्य संघर्ष का वर्णन अथवा अमेरिकी एवं ब्रिटिश सेनाओं की ईराक में कार्यवाई के विवरण जो समाचार पत्रों में उपते हैं, इसी श्रेणी में आते हैं।


(4) लेखन करते समय क्या लेखक के मन पर किसी अन्य व्यक्ति के विचारों का प्रभाव था? क्या विषय लेखक की रुचि का था? वह उसका वर्णन दिल से करेगा। यदि विषय रुचि का न हो तो वर्णन में गलतियों होने की संभावना होती है। शायर स्वभाव का लेखक, प्रशासकीय विषय पर तथ्यात्मक लेखन नहीं कर सकता।






(5) क्या लेखक के पास घटनाओं की सत्य जानकारी देने का अनुभव तथा उसे प्रस्तुत करने हेतु आवश्यक योग्यता है? यह देखना अति आवश्यक होता है। किसी सामान्य बुद्धि के संवाददाता को तकनीकी अथवा चिकित्सा विषय के चर्चासत्र की जानकारी लेने का काम सौंपे जाने पर, वह उसे उचित ढंग से नहीं कर पाएगा क्योंकि उस विषय का उसे ज्ञान ही नहीं होता, वैसा अनुभव नहीं होता और बौद्धिक योग्यता भी नहीं होती। अतः ऐसे संवादों में गलतियों की संभावना अधिक होती है।


घटना घटने और उसका लेखन करने में यदि समय का अंतर ज्यादा हो तो उस वर्णन में सत्य असत्य का मिश्रण अनजाने में हो सकता है। इसलिए घटना होने के बाद तत्काल किया गया लेखन अधिक विश्वसनीय होता है, जबकि घटना के बहुत बाद छपा अधिकांश साहित्य विश्वसनीय साधन नहीं माना जाता। आत्मकथन में भी अनेक वर्षों पूर्व हुई घटनाओं का वर्णन


स्मृति के आधार पर होने से उसमें गलतियों की संभावनाएँ रहती हैं। लेखक की प्रवृत्ति, आलसी लापरवाही एवं टालमटोल करने की हो तो उसके वर्णन में गलतियों


की प्रबल संभावना होती है और ऐसे लेखक कभी भी विश्वसनीय साहित्य का सुजन नहीं कर पाते। ऐसे लेखकों के विवरणों को पढ़ने के उपरांत उनका बाह्य एवं आंतरिक परीक्षण अनिवार्य होता है। लेखक कई बार उन महत्त्वपूर्ण प्रसंगों के विषय में लिखता है, जिनके आगे-पीछे हुई की उसे जानकारी नहीं होती। जैसे अंतरराष्ट्रीय बैठकों के समय उनके आगे-पीछे की चर्चाओं की जानकारी लेखक को नहीं होती। अतः ऐसे लेखकों द्वारा प्रदत्त जानकारी में गलतियों की संभावना अधिक होती है। अनेक बार लेखक के घटना स्थल पर रहने के बाद भी उसे आँखों से कम दिखना, ऊँचा सुनना आदि शारीरिक दुर्बलताओं के कारण वृत्तांत लिखते समय उससे अनजाने में गलतियाँ हो सकती है। अत: इन बातों का भी ध्यान रखना चाहिए।


उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि लेखक के ईमानदार होने के बाद भी अनजाने में उसके लेखन में गलतियाँ किन किन कारणों से हो सकती हैं उन पर विचार कर शोधकर्ता को लेखन की जाँच करनी पड़ती है। इस प्रक्रिया के बाद ही मूल स्रोतों के परीक्षण की प्रक्रिया पूर्ण होती है।











मूल ऐतिहासिक स्रोतों के परीक्षण का सारांश के रूप में पुनरीक्षण करने पर लेख का प्रथमतः बाह्य परीक्षण करना और उसके बाद लेख का स्थल, काल एवं लेखक निश्चित करना और आंतरिक परीक्षण के समय सत्मक परीक्षण से लेख को देखना एवं पढ़ना तथा उसे सूक्ष्मता से समझना एवं नकारात्मक परीक्षण के द्वारा लेख लिखने के पीछे लेखक की ईमानदारी को जांचना और लेखक के ईमानदार होने के बाद भी कुछ गलतियाँ पाए जाने पर उनके कारणों को खोजना इत्यादि संपूर्ण चरणबद्ध स्रोत परीक्षण प्रक्रिया है।


इतिहास के स्रोतों का बाह्य एवं आंतरिक परीक्षण करने में तथ्यों एवं साक्ष्यों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है अत: इतिहास के स्रोतों के बाह्य एवं आंतरिक परीक्षण का विवेचन करने के साथ साथ इतिहास में तथ्य एवं साक्ष्य की भूमिका का विवेचन भी अनिवार्य है जो इस प्रकार है