सामाजिक विकास के प्रमुख निर्धारक - Major Determinants of Social Development
सामाजिक विकास के प्रमुख निर्धारक - Major Determinants of Social Development
यद्यपि सामाजिक विकास को किसी भी एक ढाँचे में बाँधकर रख पाना अत्यंत मुश्किल है तथापि यहाँ सामाजिक विकास के कुछ प्रमुख निर्धारकों का उल्लेख किया जा रहा है।
1. परिवार समस्त मानव समूहों में परिवार को एक महत्वपूर्ण प्राथमिक समूह के रूप में माना जाता है। इसके सदस्य आपस में रक्त संबंध अथवा विवाह संबंध द्वारा जुड़े होते हैं और इनमें एक भावनात्मक बाध्यता पाई जाती है। जन्म के पश्चात शिशु सवप्रथम अपनी माँ या परिवार के सदस्यों के संपर्क में आता है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में परिवार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। और यहीं वह सामाजिक जीवन से संबंधित मौलिक बातों के बारे में संज्ञान प्राप्त करता है। अतः सामाजिक विकास में पारिवारिक संदर्भ की प्रमुख भूमिका होती है.
2. पालन शैली जब शिशु का जन्म होता है तो सबसे पहले उसका तादात्म्य माता पिता के साथ स्थापित होता है, उसके बाद वह परिवार के अन्य सदस्यों के साथ संपर्क स्थापित करता है। शिशु के सामाजिक जीवन का निर्माण उसके माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा किया जाता है। वर्तमान संदर्भ में विभिन्न परिवारों एवं संस्कृतियों के मध्य शिशु की पालन शैली में पर्याप्त पाया पाया जाता है, यथा पश्चिमी संस्कृति में बच्चों में स्वायत्तता स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति विकास के बीजारोपण को प्राथमिकता दी जाती है। दूसरी ओर भारतीय समाज में आज्ञापालन, सेवा, आदर एवं परोपकार या परिवार अथवा समाज के लिए त्याग की भावना के सृजन पर जोर दिया जाता है। इस संबंध में प्रत्येक माता-पिता अनुशासन लागू करने के ढंग से एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं। इसके अलावा प्रोत्साहन एवं दंड के लिए उचित व्यवहार के चुनाव में भी अपनी शिक्षण शैली तथा बच्चों के प्रति स्नेह प्रदर्शन इत्यादि में भी अंतर पाया जाता है।
3. सहोदर संबंध परिवार में बालकों के भाई-बहन अथवा सहोदर आदि भी उसके विकास पर प्रभाव डालते हैं। माता-पिता की अपेक्षा बच्चे अपने भाई अथवा बहन के साथ ज्यादा सहज महसूस करते हैं और वे उनकी समस्याओं से जुड़े सुझावों को सरलता से प्रस्तुत कर पाते हैं। उनमें से अग्रज सहोदर की भूमिका बालक की देखभाल में ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। माता-पिता की ओर से विशिष्ट ध्यान पहले बालक को दिया जाता है तथा उस बालक से माता-पिता की उम्मीदें भी अधिक होती है। बड़े सहोदर से यह आशा की जाती है कि वह अपने से छोटे सहोदर के साथ संयमित व्यवहार तथा जिम्मेदाराना संवाद बनाएं प्रायः यह देखा गया है कि जन्म क्रम में पहले और बाद वाले बालकों की विशेषताएँ अलग-अलग होती हैं और बड़े सहोदर अपेक्षाकृत ज्यादा परिपक्व संयमी व्यावहारिक तथा पारिवारिक व सामाजिक मानकों का पालन करने वाले होते हैं।
4. पारिवारिक संरचना और आकार परिवार में माता-पिता के अलावा अन्य सदस्यों (यथा दादा-दादी या अन्य लोग, बड़े भाई-बहनों के साथ शिशु का संबंध कैसा है यह भी उसके सामाजिक अथवा सांवेगिक विकास पर प्रभाव डालता है। अतः परिवार की संरचना शिशु के सामाजिक विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभाती है यथा शिशु एकल परिवार का सदस्य है अथवा संयुक्त परिवार का अथवा विस्तृत परिवार का जिन शिशुओं कोपरिवार में स्वीकृति मिलती है, वे बाहरी परिवेश से भी स्वीकृति की ही उम्मीद रखते हैं, परंतु परिवार से बाहर उम्मीद के अनुरूप व्यवहार न मिलने पर बालक निराश होता है, कभी-कभी क्रोधित भी हो उठता है। इसके विपरीत जो चालक परिवार और बाहर दोनों ओर अस्वीकृति पाते हैं प्रायः अंतर्मुखी प्रवृत्ति के होते हैं। अर्थात यदि बालक को माता-पिता अथवा परिवार के अन्य सदस्यों का प्रोत्साहन प्राप्त होता है तो उसमें बहिर्मुखता का विकास होता है। इस प्रकार वह बालक कई सामाजिक व्यवहारों को अनुग्रहित करने में सक्षम हो पाता है।
5. मित्र मंडली बालक जब परिवार के वातावरण से बाहर निकलता है तो वह कुछ बाहरी बालकों के साथ संबंध स्थापित करता है। यह मित्रों का समूह उसकेसामाजिक विकास में उल्लेखनीय योगदान देते हैं। बालक अपने ही उम्र के बालकों के साथ अंतः क्रिया करके अपनी योग्यताओं
6. अथवा निर्योग्यताओं के बारे में सूचना एवं प्रतिपूर्ति प्राप्तकरता है। वे एक मानक के समान कार्य करते हैं और इसके आधार पर वे बालक आपसी क्रियाकलापों की तुलना करते हैं बालक जैसे जैसे बड़ा होता जाता है वह मित्र मंडली के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करना पसंद करने लगता है। अंतः यह कहा जा सकता है कि सामाजिक विकास में मित्र मंडली की भूमिका
7. खेल की भूमिका निःसंदेह बालक मित्र मंडली के साथ संबंध स्थापित करने के साथसाथ खेल-कूद जैसी क्रियाओं में भी संलिप्त होता है खेल या क्रीड़ा एक आनंददायक कार्य है जिसमें बालक का जुड़ाव स्वयं के लिए होता है, जो बालक के बहुमुखी विकास के लिए लाभदायक होता है। इसके अलावा खेल, बालक का मित्रों के साथ संपर्क तनाव की कमी, संज्ञानात्मक विकास तथा अन्वेषण की प्रवृत्ति को प्रखर करने में सहायता करता है। यह बच्चों की एक-दूसरे के प्रति तादात्मय और सीखने की प्रवृत्ति में भी वृद्धि करता है। खेल बालक में अतिरिक्त शारीरिक ऊर्जा का संचार करता है तथा उसे तनाव से भी मुक्त करता है
8. जनसंचार माध्यम पिछले कुछ वर्षों में, खासकर 80 के दशक के बाद से जनसंचार माध्यमों का विस्तार विशेषकर टेलीविजन का प्रचलन व्यापक स्तर पर हुआ है। स्वस्थ मनोरंजन, शैक्षणिक कार्यक्रमों के प्रोत्साहन, विविध सूचनाओं को उपलब्ध कराने तथा समाजोपयोगी व्यवहार के लिए प्रतिरूप उपलब्ध कराने में टेलीविजन की भूमिका महत्वपूर्ण है। वहीं इसके विपरीत चालकों में पढ़ाई के प्रति निष्क्रियता, अरुचि, अवज्ञा एवं स्वछन्दता के साथ-साथ हिंसा तथा आक्रामक व्यवहारों के संवर्धन में भी टेलीविजन की भूमिका अहम होती है इस संबंध में माता-पिता या पारिवारिक सदस्यों की यह जिम्मेदारी है कि बालकों को अच्छे कार्यक्रमों को देखने के लिए प्रोत्साहित करें।
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