एकादश व्रत - Eleven fast

एकादश व्रत - Eleven fast


गांधी जी सच्चे प्रयोगवादी थे। सत्य एवं अहिंसा को आधार बनाकर उन्होंने ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित किए जो समाज के नवनिर्माण के लिए प्रेरणास्पद थे। अपनी प्रयोगधर्मिता के कारण उन्होंने एकादश व्रतों की संकल्पना को प्रस्तुत किया। ऐसा नहीं है कि ये व्रत गांधीजी की देन है अपितु इनमें से कुछ व्रत तो पहले से ही भारतीय जन मानस में धार्मिक मूल्यों के रूप में प्रतिष्ठित थे। बौद्ध एवं जैन दर्शनों में पाच व्रतों का उल्लेख है जिनका पालन धार्मिक मतावलबी काफी समय से करते आए हैं। हिंदू धर्म के अनुवाबी भी इनमें से कई व्रता का पालन करते रहे हैं। परंतु बहुत हद तक यह व्रत पालन एक धार्मिक परिधि में था। व्यक्तिगत उत्थान के लिए था।


गांधीजी की यह विशेषता थी कि उन्होंने इस वैयक्तिक उत्थान के माध्यम को समाज परिवर्तन का माध्यम बनाने का प्रस्ताव दिया। एकादश व्रतों में उन्होंने वैयक्तिक उत्थान एवं सामाजिक उत्थान व्रतों की अवधारणा का धार्मिक परिधि बंधन तोड़कर इसे सामाजिक बदलाव के सूत्र के रूप में प्रस्तावित मन्वय किया।


किया। हालांकि यह व्रत आश्रम निवासियों के लिए अभिव्यक्त किए गए थे परंतु हम इसमें सामान्य जनता के लिए आह्वान आसानी से सुन सकते हैं। इन व्रतों में पाच व्रतों के साथ उन्होंने अस्पृश्यता उन्मूलन, स्वदेशी शरीर-श्रम, अभव, सर्वधर्म समानत्व आदि का समावेश किया। हम देख सकते हैं कि ये सभी व्रत गुलाम भारत के जनमानस में अहिंसक क्रांति का घोष करने के सिद्धांत है। उनके एकादश व्रत उनके जीवन का निचोड़ कहे जा सकते हैं।


यह ग्यारह व्रत है 


1. सत्य


2. अहिंसा


 3. अस्तेय


4. ब्रह्मचर्य


5. अपरिग्रह


6. शरीर


7. अस्वाद,


8. सर्वत्र भय वर्जन


9. सर्वधर्म समानत्वं


10. स्वदेशी


11. स्पर्श भावना


1. सत्य 


सत्य ही परमेश्वर है। सत्य का अर्थ है अस्तित्व का स्वीकार जैसा में हूँ, दूसरा भी वैसा ही है। मान्य व्यवहार में असत्य न बोलना या उसका आचरण न करना ही सत्य का अर्थ नहीं है। किन्तु सत्य ही परमेश्वर है, और उसके अलावा और कुछ नहीं है। इस सत्य की खोज और पूजा के लिए ही दूसरे सभी नियमों की आवश्यकता रहती है और उसीमें से उनकी उत्पत्ति है। इस सत्य का उपासक अपने कल्पित देशहित के लिए भी असत्य नहीं बोलेगा, असत्य का आचरण नहीं करेगा। सत्य के लिए वह प्रल्हाद के समान मातापितादि गुरुजनों की आज्ञा का भी विनयपूर्वक भंग करना अपना धर्म समझेगा।


2. अहिंसा 


सत्य के साक्षात्कार का अहिंसा ही एक मार्ग एवं एक साधन है। अहिंसा के बगैर सत्य की खोज असंभव है।


अहिंसा के पालन के लिए केवल हिंसा न करना ही पर्याप्त नहीं है। अहिंसा का व्यापक अर्थ है अपने से परे समस्त बराचर जगत के प्रति समभाव रखना। इस व्रत का पालन करने वाला घोर अन्याय करनेवाले के प्रति भी क्रोध नहीं करेगा, किन्तु उस पर प्रेमभाव रखेगा, उसका हित चाहेगा और करेगा। किन्तु प्रेम करते भी अन्यायी के वश नहीं होगा, अन्याय का विरोध करेगा, और वैसा करने में वह जो कष्ट दे उसे धैर्यपूर्वक और अन्यायी से द्वेष किये बिना सहेगा।


3. अस्तेय


 (चोरी न करना) दूसरे की चीज को उसकी इजाजत के बिना लेना तो चोरी है ही, लेकिन मनुष्य अपनी कम से कम जरूरत के अलावा जो कुछ लेता या संग्रह करता है, वह भी चोरी ही है। इस व्रत के पालन के लिए यही काफ़ी नहीं है कि दूसरे की वस्तु उसकी अनुमति के बिना न ली जाया वस्तु जिस उपयोग के लिए मिली हो, उससे ज्यादा समय तक उपयोग करना भी चोरी है। इस व्रत के मूल में सूक्ष्म सत्य तो यह छिपा हुआ है कि परमात्मा प्राणियों के लिए नित्य की केवल आवश्यक वस्तु ही रोज उत्पन्न करता है। उससे अधिक पैदा नहीं करता। इसलिए अपनी कम से कम आवश्यकता से अधिक, जो कुछ भी मनुष्य लेता है, वह चोरी में शामिल है।


4. ब्रह्मचर्य


इसका अर्थ है- ब्रह्म की, सत्य की खोज में चर्या, अर्थात् उससे संबंध रखने वाला आचार इसका मूल अर्थ है- सभी इंद्रियों का संयमा ब्रह्मचर्य के पालन के बिना ऊपर के व्रतों का पालन अशक्य है। ब्रह्मचारी किसी स्त्री पर कुदृष्टि न करें केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु वह मन से भी विषयों का चिन्तन या सेवन न करे। और विवाहित हो तो अपनी पत्नी या अपने पति के साथ भी विषयभोग न करे, किन्तु उसे मित्र समझकर उसके साथ निर्मल संबंध रखे। अपनी पत्नी या दूसरी स्त्री का अथवा अपने पति या दूसरे पुरुष का विकारमय स्पर्श या उसके साथ विकारमय भाषण या दूसरी विकारमय चेष्टा भी स्कूल ब्रह्मचर्य का अंग है। ब्रह्मचर्य वस्तुतः इंद्रियों के संयम के माध्यम से अपने स्व के विस्तार करने का आधार है।


5. अपरिग्रह


 सच्चे सुधार की निशानी अधिक ग्रहण करना नहीं, बल्कि विचार और इच्छापूर्वक कम ग्रहण करना है। ज्यों-ज्यों परिग्रह कम होता जाता है सच्चा सुख, संतोष और सेवाशक्ति बढ़ती है। अपरिग्रह अस्तेय के अंतर्गत ही है। अनावश्यक वस्तु जिस तरह ली नहीं जा सकती, उसी तरह उसका संग्रह भी नहीं किया जा सकता। इसलिए जिस खुराक या साझोसामान की जरूरत न हो, उसका संग्रह करना इस व्रत का भंग है। अपरिग्रही दिनोंदिन अपना जीवन और भी सादा करता जाय।


6. शारीरिक श्रम-


 जिनका शरीर काम कर सकता है, उन स्त्री-पुरुषों को अपने रोजमर्रा के खुद करने के लायक सभी काम ख़ुद ही कर लेने चाहिए। बिना कारण दूसरों से सेवा नहीं लेनी चाहिए मनुष्य मात्र शरीर निर्वाह शारीरिक श्रम से करें तभी वह समाज के और अपने द्रोह से बच सकता है जिनका शरीर चल सकता है और जिन्हें समझ आ गयी है, उन सभी स्त्रीपुरुषों को अपना नित्य का सारा काम, जो स्वयं ही कर लेने योग्य हो, कर लेना चाहिए और दूसरे की सेवा बिना कारण नहीं लेनी चाहिए। किन्तु बालकों की अथवा पंगु लोगों की और वृद्ध स्त्रीपुरुषों की सेवा प्राप्त हो तो उसे करने की सामाजिक जिम्मेदारी को उठाना प्रत्येक समझदार मनुष्य का धर्म है। इस आदर्श का अवलम्बन करके आश्रम में वही मजदूर रखे जाते हैं, जहाँ अनिवार्य हो, और उनके साथ मालिक नौकर का व्यवहार नहीं रखा जाता।


7. अस्वाद 


मनुष्य जब तक जीभ के रसों को न जीते, तब तक ब्रह्मचर्य का पालन बहुत कठिन है। भोजन केवल शरीर पोषण के लिए हो, स्वाद या भोग के लिए नहीं। ऐसा अनुभव होने से कि मनुष्य जहाँ तक जीभ के रसों को नहीं जीतता, वहाँ तक ब्रह्मचर्य का पालन अति कठिन है, अस्वाद को अलग व्रत माना गया है। भोजन केवल शरीरयात्रा के लिये ही हो, भोग के लिये कभी नहीं। इसलिए उसे औषध समझकर संयमपूर्वक लेने की जरूरत है। इस व्रत का पालन करनेवाला, ऐसे मसाले वगैरह का त्याग करेगा, जो विकार उत्पन्न करें। मांसाहार, तंबाकू, भांग इत्यादि का आश्रम में निषेध है। इस व्रतमें स्वाद के लिए उत्सव या भोजन के समय अधिक खिलाने के आग्रह का निषेध है।


8. अभय 


जो सत्यपरायण रहना चाहे, वह न तो जात-बिरादरी से डरे, न सरकार से डरे, न चोर से दरे, न बीमारी या मौत से डरे, न किसी के बुरा मानने से डरे सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का पालन निर्भयता के बिना असंभव है। और हाल में जहाँ सर्वत्र भय व्याप रहा है, वहाँ निर्भयता का चिन्तन और उसकी शिक्षा अत्यन्त आवश्यक होने से उसे व्रतों में स्थान दिया गया है। जो सत्यपरायण रहना चाहता है, वह न जाति से, बिरादरी से, न सरकार से न चोर से, न गरीबी से और न मौतसे डरता है।


9. सर्वधर्म 


समभाव जितनी इज्जत हम अपने धर्म की करते हैं, उतनी ही इज्जत हमें दूसरे के धर्म की भी करनी चाहिए। जहां यह वृत्ति है, वहां एक-दूसरे के धर्म का विरोध हो ही नहीं सकता, न परधर्मी को अपने धर्म में लाने की कोशिश ही हो सकती है। हमेशा प्रार्थना यही की जानी चाहिए कि सब धर्मों में पाये जाने वाले दोष दूर हो। आश्रम की ऐसी मान्यता है कि जगत में प्रचलित प्रख्यात धर्म सत्य को व्यक्त करनेवाले है। किन्तु उन सभी का अपूर्ण मनुष्य के द्वारा व्यक्त होने से, सभी में अपूर्णता अथवा असत्यका मिश्रण हुआ है। इसलिए हमें अपने धर्म के लिए जैसा मान हो, वैसा ही प्रत्येक धर्म के लिए रखना चाहिए। 


10. स्वदेशी 


अपने आसपास रहने वालों की सेवा में ओत-प्रोत हो जाना स्वदेशी धर्म है जो निकट वालों को छोड़कर दूर बालों की सेवा करने को दौड़ता है, वह स्वदेशी धर्म को भंग करता है। स्वदेशी व्रत को उन्होंने महाव्रत के नाम से पुकारा था। गान्धीजी के अनुसार स्वदेशी व्रत राष्ट्र का एक महान विस्तृत धर्म है। गान्धी जी ने स्वदेशी शब्द का सम्बन्ध स्वधर्म से जोड़ दिया था जिसके लिये भगवान श्री कृष्ण ने पहले ही कहा है कि स्वधर्मे निधन श्रेयः परथमाँ भयावहः गान्धी जी अपने स्वधर्म स्वरूपी स्वदेशी व्रत का पालन करना भयावह ही नहीं आत्महत्या से भी अति निकृष्ट समझते थे।


11. अस्पृश्यता 


निवारण हुआछूत हिन्दू धर्म का अंग नहीं है बल्कि यह उसमें छुपी हुई सदन है, वहम है, पाप है। इसका निवारण करना ही प्रत्येक हिन्दू का धर्म है, कर्तव्य है। हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता की रूद्रि ने जड़ जमा ली है। इसमें धर्म नहीं किन्तु अधर्म है, ऐसी मान्यता होने के कारण अस्पृश्यता निवारण को नियम में स्थान दिया गया है। अस्पृश्य माने जाते लोगों के लिए दूसरी जातियों के बराबर ती आश्रम में स्थान है।


महात्मा गांधी ने एकादश व्रतों के जरिए वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्थान के लिए एक मार्गनिर्देशी सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे के पूरक बने और विकास में सहायक बने। इन व्रतों के जरिए गांधीजी ने समाज परिवर्तन को अहिंसक दिशा देने का प्रयास किया। इन व्रतों के माध्यम से गांधीजी का उद्देश्य लोगों एवं समाज को बदलाव के लिए तैयार करना और प्रयास करना था। समाज परिवर्तन में सभी लोग सहभागी बने और अपनी अपनी क्षमता अनुसार इस बदलाव में सहायक हो, एकादश व्रत इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाए गए थे।