सावयवी समाज की विशेषताएं - Features of an organic society

 सावयवी समाज की विशेषताएं - Features of an organic society


दुर्खीम कहते हैं कि जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि तथा जनसंख्या के नैतिक घनत्व में वृद्धि यह दो प्रमुख कारण श्रम विभाजन को त्वरित गति देते हैं। जिससे यांत्रिकी समाज सावयवी का स्वरूप ग्रहण करता है। इस प्रकार समाज की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं।


1. विभेदीकरण की जटिल प्रक्रिया सावयवी समाज की आवश्यकताए बराबर बढ़ती रहती है। जितना अधिक समाज में विशिष्टीकरण होगा उतनी अधिक समाज की विशिष्ट आवश्यकताए होंगी। वास्तविकता यह है कि विशिष्टीकरण की अधिकता ही समाज में विभेदीकरण और विभेदीकरण मुख्यतः श्रम विभाजन के द्वारा आता है और यही सावयवी समाज की प्रमुख विशेषता है।

12

2. समाज के विभिन्न अंगों एवं व्यक्तियों में अन्योन्याश्रयन की वृद्धि औद्योगिक समाज की बहुत - बड़ी विशेषता इसकी प्रकार्यात्मक निर्भरता है। समाज में कोई भी कार्य अपने आपमें पूर्ण नहीं है। हर काम एक दूसरे पर निर्भर होता है। उदाहरण के लिए यदि सूरत में स्थित कारखाने में कच्चे माल के लिए पूरे दुनिया पर निर्भर है और एक कारीगर के काम को दूसरा कारीगर आगे बढ़ाता है। यह सिलसिला वस्तु को बाजार में उपभोक्ता तक पहुंचाता है। इस तरह से गांव के एक साधारण से श्रमिक आदमी की मेहनत संपूर्ण राष्ट्र तक पहुंचती है। दुर्खीम इस कार्य को प्रकार्यात्मक निर्भरता कहते हैं। सावयवी समाज में विविधता होते हुए प्रकार्यात्मक निर्भरता के कारण संपूर्ण समाज में संबद्धता पाई जाती है। भी


3. श्रम विभाजन में वृद्धि तथा विभिन्न व्यवसायों और पेशों का विकास दुर्खीम के अनुसार, - सावयवी समाज में एक प्रकार का गतिशील घनत्व होता है। इससे उनका तात्पर्य यह था कि यदि समाज में विभेदीकरण होता है तो इसके परिणामस्वरुप समाज के व्यक्तियों में प्रभावपूर्ण संपर्क होते हैं। सावयवी समाज में व्यक्ति खुले रुप में मिलते हैं। वास्तव में सावयवी समाज कई खंडों में बढ़ जाता है और एक खंड दूसरे खंड से प्रकार्यात्मक रुप से जुड़ा होता है।

दुर्खीम का यह भी कहना है कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि घनत्व की गतिशीलता भौतिक घनत्व पर निर्भर करती है और भौतिक घनत्व तभी अधिक होता है जब बड़ी संख्या में लोग एक दूसरे के संपर्क में आते हैं। अतः यह कहा जाना चाहिए की सामाजिक विभेदीकरण समाज के सदस्यों में वृद्धि यानी जनसंख्या वृद्धि के कारण होता है।


4. सामूहिक प्रतिनिधान


दुर्खीम ने सामूहिक प्रतिनिधान की अवधारणा का प्रयोग केवल श्रम विभाजन के लिए ही किया हो ऐसा नहीं है। उन्होंने सामाजिक तथ्यों और धर्म के समाजशास्त्र में भी इसका उपयोग किया है। इस अवधारणा का संबंध अपने मूल में सावयवी समाज के साथ है। समाज में लोगों की जो विचार संवेग अनुबंध रीति-रिवाज आदि होते हैं। इन सब की अभिव्यक्ति सामूहिक प्रतिनिधियों में होती है। सामूहिक प्रतिनिधि एक प्रकार से सावयवी समाज की साझा संस्कृति होती है।