जनजातियों का वर्गीकरण - Classification of Tribes

 जनजातियों का वर्गीकरण - Classification of Tribes


भारतीय समाज में विविधता की तरह यहां के जनजातीय परिदृश्य में भी पर्याप्त विविधता है, अर्थात हमारे देश में जनजातीय संरचना में पर्याप्त भिन्नता है। यहां प्रजातीय, भाषाई, सामाजिक-सांस्कृतिक, भौगोलिक सकेंद्रण एवं आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर जनजातीय समुदायों में भिन्नता है। भारतीय जनजातीय वर्गीकरण को प्रमुख रूप से निम्न आधारों पर देखा जा सकता हैं -


A. भौगोलिक वर्गीकरण


B. प्रजातीय वर्गीकरण


C. भाषाई वर्गीकरण


D. आर्थिक गतिविधियों के आधार पर वर्गीकरण


E. वंश एवं सत्ता के आधार पर वर्गीकरण


F. आकार के आधार पर वर्गीकरण


G. विकास के स्तर के आधार पर वर्गीकरण


भौगोलिक वर्गीकरण को आगे, जनजातियों के भौगोलिक वितरण के अंतर्गत देखेंगे, अतः यहां हम भारतीय जनजातियों के प्रजातीय एवं भाषाई वर्गीकरण को समझेगें।


प्रजातीय वर्गीकरण प्रजातीय अध्ययनों के आधार पर विश्व के समस्त मानव समूहों को कुछ प्रजातियों में वर्गीकृत किया गया है, जनजातीय समुदाय भी इसका अपवाद नहीं है। हमारे देश में प्रजातीय अध्ययनों का प्रारंभ सन् 1890 में हरबर्ट रिजले के अध्ययन से माना जाता है। रिजले ने शरीर मापन प्रणाली द्वारा, वैज्ञानिक अध्ययन का प्रयास किया। रिजले 1891 की जनगणना कार्य के प्रमुख थे, जनगणना से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्यों को अपनी पुस्तक 'The Peoples of India' में प्रकाशित किया, जो 1915 में प्रकाशित हुई थी। इस अध्ययन में रिजले ने जनजातियों का कोई पृथक अध्ययन नहीं किया था वरन् भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या के साथ जनजातियों का भी प्रजातीय अध्ययन प्रस्तुत किया।


रिजले के विश्लेषण के अनुसार भारत के अधिकांश जनजातीय समुदाय “द्रविड़" प्रजाति के हैं। जे.एच. हट्टन ने भारत के जनजातीय समुदायों को नीग्रेटो, प्रोटो आस्ट्रेलॉयड एवं मंगोलॉयड तीन श्रेणी में रखा है। इसी प्रकार वी.सी. गुहा ने भी नीग्रेटो, प्रोटो आस्ट्रेलॉयड एवं मंगोलॉयड तीन प्रजातीय श्रेणियों का उल्लेख किया है। मजूमदार एवं मदान का मत है कि भारत की जनजातियों का संबंध द्रविड़ एवं मंगोल प्रजाति से है।


प्रजातीय दृष्टि से जिन विद्वानों ने जनजातियों के प्रजातीय वर्गीकरण प्रस्तुत किए हैं, उनके आधार पर भारतीय जनजातियों को मुख्यतः तीन प्रजातीय समूहों में वर्गीकृत किया गया है -


1. भारत एक ऐसा देश है, जहाँ प्रचीनकाल से ही अनेक संस्कृतियों का सम्मिश्रण हुआ है, संस्कृतियों के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप प्रजातीय मिश्रण भी हुआ है, अतः भारत की जनसंख्या में बहुत से प्रजातीय तत्व समय-समय पर जुड़ते एवं विलुप्त होते रहे हैं, जनजातीय जनसंख्या भी इसका अपवाद नहीं है।


2. भाषा सम्प्रेषण का माध्यम वो है, वह सांस्कृतिक मूल एवं प्रकृति को भी इंगित करती है, यही वजह है कि भाषाई अध्ययन प्रायः सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययनों को दिशा प्रदान करते रहे हैं। जनजातीय समुदायों की अपनी विशिष्ट भाषा (अथवा बोली) उन्हें विशिष्ट पहचान प्रदान करती है। प्रायः प्रत्येक समुदाय की अलग भाषा अथवा बोली है, तो अपवादस्वरूप एक ही समुदाय जो अलग-अलग क्षेत्र में निवासरत् है, क्षेत्र के अनुसार उनकी भाषा अथवा बोली में भी परिवर्तन होता है।


(अ) नीग्रेटो- इस प्रजाति के लोगो का कद छोटा, त्वचा का रंग काला एवं बाल उनी होते हैं। दक्षिण भारत की कुछ जनजातियां इस प्रजाति के अंतर्गत आती हैं।


(ब) प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड- इस प्रजाति के लोगो की नाक चपटी, त्वचा का रंग गहरा भूरा-काला एवं बाल घुंघराले होते है। मध्य भारत एवं दक्षिण भारत जनजातियों में इस प्रजाति का प्रतिनिधित्व है।


(स) मंगोलॉयड- इस प्रजाति के शारीरिक लक्षणों में मध्यम कद, त्वचा का रंग नीला, चपटी नाक एवं गोल आंखे तथा भूरे रेशमी बाल प्रमुख हैं। भारत की उत्तर-पूर्व की जनजातियों में इस प्रजाति के लक्षण पाए जाते हैं। भारत एक ऐसा देश है, जहां प्रचीनकाल से ही अनेक संस्कृतियों का सम्मिश्रिण हुआ है। संस्कृतियों के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप प्रजातिय सम्मिश्रण भी हुआ है। अतः भारत की जनसंख्या में बहुत प्रजातिय तत्व समय-समय पर जुड़ते एवं विलुप्त होते रहे हैं, जनजातीय जनसंख्या भी इसका अपवाद नही है।


2. भाषाई वर्गीकरण - 


जनजाति की प्रमुख विशेषताओं में एक विशेषता भाषा अथवा बोली का होना भी है। अर्थात प्रत्येक जनजातीय समुदाय की अपनी एक भाषा अथवा बोली होती है। भाषा सम्प्रेण का माध्यम तो है ही, वह सांस्कृतिक मूल एवं प्रकृति को भी इंगित करती है। यही वजह है कि भाषाई अध्ययन प्रायः सामाजिक, सांस्कृतिक अध्ययनों को दिशा प्रदान करते रहे है। जनजातीय समुदाय की अपनी विशिष्ट भाषा इन्हें विशिष्ट पहचान भी प्रदान करते है।

प्रायः प्रत्येक समुदाय की अलग भाषा अथवा बोली होती है। तो अपवाद स्वरूप एक ही समुदाय जो अलग-अलग क्षेत्र में निवासरत है क्षेत्र के अनुसार इनकी भाषा अथवा बोली में भी परिवर्तन होता है।


भाषा के आधार पर भारत की जनजातियों को निम्न श्रेणियों में रखा जा सकता है-


(अ) दृविड़ भाषा परिवार इस भाषा परिवार की जनजातियां जो भाषा अथवा बोली व्यवहार में लाती हैं वह कुर्गी, तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम आदि भाषाओं के शब्दों का समावेश करती हैं। केरल की कादर जनजाति में व्ययहृत वोली मलयाली की उपबोली है। मध्य भारत की गोंड जनजाति की बोली गोंडी भी तमिल, तेलगू एवं मलयाली भाषा के शब्दों से संबंधित है। दक्षिण एवं मध्य भारत की जनजातियां इस भाषा परिवार के अंतर्गत आती हैं।


(ब) ऑस्ट्रिक भाषा परिवार इसे ऑस्ट्रो एशियाटिक भाषा परिवार भी कहते हैं। मध्य एवं पूर्वी भारत की जनजातियों की भाषा एवं बोली इस परिवार के अंतर्गत आती है। जैसे मध्य क्षेत्र के कोल समुदाय की बोली, निकोबार द्वीप समूह के निकोबारी एवं बिहार तथा झारखण्ड के संथाल समुदाय की बोली कोरकू, गदावा आदि जनजातियों की बोली इस भाषा परिवार से संबंधित मानी जाती है।


(स) सिनोटिब्तियन भाषा परिवार इसे चीनी तिब्बती भाषा परिवार भी कहते हैं। उत्तर-पूर्व भारत की - जनजातियां इस भाषा परिवार के अंतर्गत मानी जाती हैं। मणिपुरी, नागा, असमी, बर्मी तथा अन्य भाषा एवं बोलिया जो उत्तर-पूर्व में प्रचलित है इसी भाषा परिवार के अंतर्गत आती हैं। इस प्रकार, भारत के जनजातीय समुदायों में, एशिया के लगभग सभी महत्वपूर्ण भाषा परिवारों के तत्व विद्यमान हैं। वर्तमान में भाषाई सम्मिश्रण एवं एक साथ एकाधिक भाषाओं का प्रयोग जनजातीय समुदायों में भी देखा जा सकता है। 


3. आर्थिक गतिविधियों के आधार पर वर्गीकरण


किसी भी समुदाय की अर्थव्यवस्था या आजीविका का प्रारंभिक स्वरूप, प्रत्यक्ष रूप से उसके आस-पास के पर्यावरण (प्राकृतिक संसाधनों) पर निर्भर रही है, विकास के स्तरों के साथ ही यह प्रत्यक्ष निर्भरता कम होती गई, परंतु जनजातीय समुदायों की अर्थव्यवस्था एवं प्राकृतिक संसाधनों के बीच घनिष्ठ एवं अन्योन्यश्रित संबंध रहे हैं। यही कारण है कि अलग-अलग क्षेत्रों के जनजातीय समुदाय अलग-अलग प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में संलग्न रहकर अपनी आजीविका अर्जित करते रहे हैं।


भारत के जनजातीय समुदायों को उनकी आर्थिक गतिविधियों के आधार पर निम्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है -


A. आखेटक एवं खाद्य संग्राहक - जनजातियां कुछ जनजातीय समुदाय मुख्यतः आखेटक एवं वन से खाद्य पदार्थ संग्रहण के द्वारा अपनी आजीविका चलाते रहे हैं। आज भी कुछ समुदाय इस प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में संलग्न हैं जैसे वनो से शहद, चिरोंजी, महुआ आदि एकत्रित करना तथा मछली पकड़ना कंदमूल, जंगली जानवरों एवं पक्षियों के पंख इत्यादि एकत्रित करने वाले समुदाय जैसे बिरहोर, कोरवा, बैगा, कादर, चेंचू आदि समुदाय हैं।


B. कृपक जनजातियां - कुछ जनजातियों की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है। यद्यपि पूर्व में इनके बीच स्थानांतरित कृषि प्रचलित थी परंतु वर्तमान में यह स्थाई कृषि है, क्योंकि स्थानांतरित कृषि अब संभव नहीं है। बैगा, संथाल, नागा, गोंड़ आदि इस श्रेणी के अंतर्गत रखे जा सकते हैं।


C. पशुपालक - जनजातियां पशुपालन के द्वारा अपनी आजीविका को अर्जित करने वाले समुदाय, पशुपालक जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। टोडा, खस एवं कोरवा जनजातियां पशुपालक जनजातीय समुदाय हैं।


D. औद्योगिक श्रमिक - स्वतंत्रता के पश्चात देश में बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण हुआ, ज्यादातर सदूर क्षेत्रों में जनजातीय बसाहटों के नजदीक स्थापित हुए एवं जनजातीय समुदाय के लोग बड़ी संख्या में इन उद्योगों में श्रमिक का कार्य करने लगे। वर्तमान में बहुत से जनजातीय समुदाय इस श्रेणी में आते हैं।


E. दैनिक श्रमिक - अधिकांश जनजातीय समुदायों में दैनिक श्रमिक के रूप में कार्य कर अपनी आजीविका चलाते हैं, ये स्थानीय स्तर पर, गैर जनजातीय समुदायों में दैनिक श्रमिक का कार्य करते हैं। जैसे गौड, कोरकू, भील आदि जनजातियां हैं।


F. घरेलू कार्य - गैर जनजातीय समुदायों के संपर्क एवं संचार के साधनों में वृद्धि के परिणामस्वरूप जनजातीय समुदाय उनके घरेलू कार्य में संलग्न हुए। आज बहुत से समुदायों के महिला एवं पुरूष इस कार्य से अपनी आजीविका अर्जित करते हैं।


G. हस्तशिल्प एवं कारीगरी - कुछ जनजातियां हस्तशिल्प एवं कारीगरी के माध्यम से वस्तुएं बनाकर अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। जैसे- गुज्जर, किन्नौरी, इरूला, अगरिया इत्यादि।


H. शासकीय सेवक - सभी जनजातियों में कुछ व्यक्ति शासकीय सेवक के रूप मे आजीविका अर्जित करते हैं।


इस प्रकार आर्थिक गतिविधियों के आधार पर भारत में निवासरत जनजातीय समुदायों में पर्याप्त भिन्नता है।


4. वंश एवं सत्ता के आधार पर वर्गीकरण


वंश परंपरा एवं सत्ता, किसी भी समुदाय की पारिवारिक संरचना को निर्धारित करती है। भारत की जनजातियों को इस आधार पर देखें, तो कुछ समुदाय पितृवंशीय, कुछ मातृवंशीय हैं। इसी प्रकार कुछ जनजातियाँ पितृसत्तात्मक तो कुछ मातृसत्तात्मक हैं। इस आधार पर प्रमुख प्रकार निम्नांकित है


अ. मातृवंशीय एवं मातृसत्तात्मक समुदाय भारत की जनजातियों में कुछ स्थानों की जनजातियां मातृवंशीय समुदाय है उत्तर पूर्व की खासी एवं गारो इसी प्रकार की जनजातियाँ हैं। इनके परिवार में वंश परंपरा स्त्री के वंश से निर्धारित होती है प्रायः वंश परंपरा से ही सत्ता निर्धारित होती है। खासी एवं गारो समुदाय में मातृ सत्तात्मक परिवार देखे जा सकते हैं अर्थात इनके परिवार में मुखिया महिला होती है। वही महत्वपूर्ण निर्णय लेती हैं।


ब. पितृवंशीय एवं पितृसत्तात्मक समुदाय भारत में निवासरत अधिकांश जनजातीय समुदाय पितृवंशीय एवं पितृ सत्तात्मक हैं। इन समुदायों में परिवार की वंश परंपरा पुरूष के वंश से निर्धारित होती है एवं परिवार का मुखिया पुरूष होता है। उत्तर एवं मध्य क्षेत्र की जनजातियों जैसे गोड़, संथाल इत्यादि इसी प्रकार की जनजातियाँ हैं।


5. आकार के आधार पर वर्गीकरण 


भारत में निवासरत जनजातीय समुदायों में कुछ समुदायों की जनसंख्या बहुत अधिक है। तो कुछ की बहुत कम है अर्थात इनके आकार में पर्याप्त भिन्नता है। आकार के आधार पर भारत की जनजातियों को मुख्यतः तीन प्रकारों में रखा जाता है -


अ. लघु समुदाय इस श्रेणी में वे समुदाय रखे जा सकते हैं जिनकी जनसंख्या काफी कम है। अण्डमान एवं निकोवार के जारवा, ग्रेट अण्डवानी एवं मध्य प्रदेश के खैरवार तथा पारधी ऐसे ही लघु समुदाय हैं।


ब. मध्यम समुदाय कुछ जनजातीय समुदाय ऐसे भी है जिनकी जनसंख्या न तो बहुत कम है और न ही बहुत अधिक है। ये मध्यम समुदाय कहे जा सकते हैं जैसे मध्य प्रदेश में बारेला, पटेलिया, जोकि भील जनजाति की उप जनजातियाँ हैं। स. बृहद समुदाय- जनसंख्या के आधार पर कुछ जनजातियां समुदाय बड़े समुदाय है इनको बृहद समुदाय कहा जा सकता है जैसे भील, गोड़, मुण्डा, संथाल, इत्यादि ।


6. विकास के स्तर के आधार पर वर्गीकरण


विकास के मानदण्डों के आधार पर कोई समुदाय किस सोपान पर है। यह भी वर्गीकरण का एक प्रमुख आधार है। इस आधार पर भारत की जनजातियों को निम्न तीन प्रकारों में रखा जाता है - 


अ. आदिम जनजाति (अति पिछड़ी जनजातियाँ)- इस श्रेणी में वे समुदाय रखे जाते हैं जो सामान्यतः विकास की प्रक्रिया में काफी पीछे रह गए हैं। हमारे देश में इस प्रकार के 75 जनजातीय समुदाय हैं। मध्य प्रदेश के बैगा, भारिया, एवं सहारिया ऐसे भी समुदाय है।


ब. विकास की प्रक्रिया में शामिल जनजातियाँ- इस श्रेणी में वे जनजातीय समुदाय आते है जिन्होने विकास की प्रक्रिया में सहभागिता की है। इससे लाभ लिया है जैसे उत्तर एवं मध्य क्षेत्र की जनजातियाँ तथा दक्षिण भारत की जनजातियों जैसे मुण्डा, गौड़, टोडा, इत्यादि।


स. विकास की प्रक्रिया में अग्रणी जनजातियाँ- हमारे देश में कुछ जनजातीय समुदाय ऐसे भी है जिन्होने विकास का अधिक लाभ लिया है एवं वे अधिक जागरूक समुदाय भी है। जैसे उत्तर पूर्व की जनजातियों, नागालैण्ड के नागा इसी प्रकार के समुदाय है।