परिवार का विकास क्रम - family development
परिवार का विकास क्रम - family development
मॉर्गन ने परिवार के विकास क्रम की जो रूपरेखा प्रस्तुत की वह निम्नानुसार है:-
1. रक्त-संबद्ध परिवार : मॉर्गन ने इसे परिवार की पहली अवस्था माना है। यूथ (समूह)-विवाह के इस रूप में एक पीढ़ी के सभी पुरुष और सभी स्त्री एक-दूसरे के पति-पत्नी होते थे, लेकिन पीढ़ियों के बीच यौन संबंध पर निषेध रहता था। इसका अर्थ यह हुआ कि माता-पिता और उनकी संतानों के बीच विवाह नहीं होता था। लेकिन सगे भाई-बहन, निकट के और दूर के चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई-बहन सब एक-दूसरे के भाई-बहन होने के कारण एक-दूसरे के पति-पत्नी होते थे। चूँकि परिवार की इस अवस्था में सभी ! पुरुष और सभी स्त्री परस्पर पति-पत्नी होते थे यानि स्त्री और पुरुष जोड़े के रूप में नहीं बंधे होते थे, इसलिए यह निश्चित नहीं हो पाता था कि बच्चे का पिता कौन है, लेकिन माता कौन है यह निश्चित था। हालाँकि हरेक माँ अपने बच्चों समेत परिवार के अन्य बच्चों को भी अपनी संतान कहती थी और उनके प्रति माता का कर्तव्य निभाती थी। विवाह का यह रूप वन्य-जीवन की अवस्था के उन चरणों के अनुकूल है जब मनुष्य घुमंतू और सामुदायिक जीवन व्यतीत कर रहा था।
2. पुनालुआन परिवार : यह भी यूथ विवाह का ही रूप था। लेकिन परिवार की यह अवस्था भाई-बहनों के बीच यौन-संबंध पर निषेध से शुरू हुई। पहले सगे भाई-बहनों और बाद में धीरे-धीरे दूर के भाई-बहनों के बीच यौन-संबंध पर रोक लगायी गई होगी। चूँकि भाई-बहन की आयु में ज़्यादा फासला नहीं होता इसलिए उनके बीच यौन-संबंध पर रोक लगाना अधिक कठिन रहा होगा। इस तरह के परिवार में होता यह था कि बहनों का एक अथवा अनेक समूह एक गृहस्थी का मूल केंद्र बन जाते थे, जबकि उनके सगे भाई दूसरी गृहस्थी का कई बहनों के कुछ समान पति होते थे। उनके भाइयों को इस संबंध से रखा जाता था, यानि वे उनके पति नहीं हो सकते थे। पति अब एक-दूसरे को भाई न कहकर पुनालुआ' कहते थे। 'पुनालुआ' का अर्थ होता है अंतरंग सखा, सहभागी इसी प्रकार भाइयों का एक दल कुछ स्त्रियों के साथ विवाह-संबंध में बंधा होता था। ये स्त्रियाँ उनकी बहनें नहीं होती थीं। ये स्त्रियाँ भी एक-दूसरे को 'पुनालुआ' कहती थीं। रक्त-संबंद्ध अवस्था के समान परिवार की इस अवस्था में भी बच्चे की माँ की पहचान ही सुनिश्चित होती थी, पिता की पहचान सुनिश्चित करना कठिन था। यही कारण था कि इन दोनों ही परिवारों में वंश माँ के नाम पर चलता था। परिवार के इस रूप के लिए आदिम साम्यवादी अवस्था वाले समुदायों की अपेक्षाकृत स्थायी बस्तियाँ पूर्वमान्य हैं।
मॉर्गन और एंगेल्स से पहले बखोफेन नामक विद्वान ने परिवार के इन आरंभिक रूपों पर कार्य किया था। उनकी पुस्तक मदर राईट्स का प्रकाशन 1861 में हो चुका था। इसमें उन्होंने माँ के नाम पर वंश चलने के उपर्युक्त कारण प्रस्तुत किए थे और इस आधार पर इस नतीजे पर भी पहुँचे थे कि माँ का और आमतौर पर स्त्रियों का समाज में इतना ऊँचा स्थान था, जितना कि उनको बाद में कभी नहीं मिला। इसे व्यक्त करने के लिए उन्होंने मातृ-अधिकार (Maternal Right) धारणा का प्रयोग किया था। यहीं से मातृसत्ता की धारणा के विकसित होने की राह खुली, जिसके बारे में आप आगे पढ़ेंगे।
गोत्र : मॉर्गन का मत है कि अधिकतर स्थानों में गोत्र का उद्भव पुनालुआन परिवार से ही हुआ होगा। गोत्र के तहत वे लोग आते हैं जो आपस में यौन संबंध स्थापित नहीं कर सकते। पुनालुआन परिवार की नींव सगे भाई-बहनों के विवाह पर प्रतिबंध लगाने से पड़ी। बाद में धीरे-धीरे नज़दीक और दूर के सभी भाई-बहन इस प्रतिबंध के दायरे में आते गए। मॉर्गन ने लिखा है कि जब एक बार ज्यादा-से-ज्यादा दूर के रिश्ते के मौसेरे भाई-बहनों समेत तमाम भाई-बहनों के यौन-संबंध पर प्रतिबंध लग जाता है तो उपर्युक्त समूह गोत्र में बदल जाता है यानि तब उन मातृवंशी रक्त-संबंधियों का बहुत सख्ती के साथ एक सीमित दायरा बन जाता है,
जिन्हें आपस में विवाह करने की इजाजत नहीं होती। मातृ-परंपरा यानि माता के नाम पर वंश चलने के कारण गोत्र की पुत्रियों की संतान ही उसकी सदस्य रह पाती थी।
यहाँ ध्यान देने की ज़रूरत है कि जब किसी कबीले में गोत्र का निर्माण हो रहा होता है तो एक साथ कम-से-कम दो गोत्र ज़रूर वज़ूद में आते हैं। कारण, यदि कुछ लोग इस आधार पर एक समूह में संगठित होंगे जिनके बीच आपस में विवाह नहीं हो सकता तो इसी क्रम में ऐसे लोग भी चिन्हित होते जाएंगे जिनके साथ उक्त समूह के लोग विवाह संबंध कायम कर सकें। इसलिए मॉर्गन ने लिखा है कि हर कबीला कम-से-कम दो गोत्रों में तो ज़रूर बँटा होता है। कबीले की आबादी बढ़ जाने पर इन आदिम गोत्रों से पुनः पुत्री-गोत्रों की शाखा प्रशाखा फूटती जाती है। गोत्र बहिर्विवाही समूह था। यानि गोत्र के सदस्य आपस में विवाह नहीं कर सकते था। इस रीति का आज भी पालन होता है। कबीला अंतर्विवाही समूह था। यानि कबीले के सदस्य उसके भीतर ही अपने से भिन्न गोत्र में विवाह करते थे। युग्म परिवार गोत्र व्यवस्था का अभिन्न अंग था। गोत्र-व्यवस्था: गोत्र-व्यवस्था के आधार पर संगठित समाज के बारे में एंगेल्स ने लिखा है कि उसमें न तो कोई शासक था और न ही कोई शासित। श्रम विभाजन यदि था भी तो स्वाभाविक स्वरूप का ही यानि केवल स्त्री और पुरुष के बीच ही। पुरुष युद्ध में भाग लेते थे. शिकार करते थे, मछली मारते थे. आहार की सामग्री जुटाते थे और इन तमाम कार्यों के लिए आवश्यक औजार तैयार करते थे। स्त्रियाँ घर की देखभाल करती थीं। वे खाना पकाती थीं.
कपड़े बुनती और सिलाई करती थीं। दोनों अपने-अपने कार्य-क्षेत्र के स्वामी थे। पुरुषों का जंगल में आधिपत्य था और स्त्रियों का घर में। प्रत्येक उन औज़ारों का स्वामी था जिन्हें उसने बनाया था और जिनका वह इस्तेमाल करता था। गृहस्थी आदिम साम्यवादी अवस्था का स्वरूप लिए हुई थी। एक गृहस्थी में कई परिवार साथ-साथ रहते थे।
1. युग्म परिवार युग्म यानि जोड़ी में एक पुरुष और एक स्त्री के साथ-साथ रहने का बीज यूथ विवाह या उससे पहले ही पड़ गया होगा। आखिर, अनेक पतियों और अनेक पत्नियों वाले समूह में भी अस्थायी तौर पर ही सही, लेकिन जोड़ियाँ बनती ही होंगी। यह और बात है कि जैसे-जैसे गोत्र का विकास हुआ और उन भाइयों' और 'बहनों' के वर्गों की संख्या बढ़ती, जिनमें विवाह नहीं हो सकता था, वैसे-वैसे जोड़े में रहने की लोगों की प्रवृत्ति तेज होती गई। एंगेल्स का मत है यह वन्य-जीवन के उन्नत चरण और बर्बरता के निम्न चरण यानि वन्य-जीवन और बर्बरता के सीमांत पर वज़ूद में आता है।
युग्म-परिवार में पति या पत्नी कभी भी अपनी इच्छा से विवाह भंग कर सकते थे।
इसके इस कदर कमज़ोर और अस्थायी होने के कारण पहले से चली आ रही आदिम साम्यवादी अवस्था वाली गृहस्थी को कोई आंच नहीं आई। स्त्री के नाम पर वंश का चलना और उसका महत्व बरकरार रहा। एक नई बात यह हुई कि अब बच्चे के पिता की पहचान भी सुनिश्चित हो गई युग्म-परिवार में यूथ सीमित होते-होते अंतिम इकाई में बदल गया। मॉर्गन ने माना है कि रक्त-संबंधियों के बीच विवाह पर प्रतिबंध लगाने में नैसर्गिक वरण की भी भूमिका होती है। नैसर्गिक वरण के सिद्धांत के मुताबिक, मनुष्य उन्हीं आचार विचार को अपनाता है, जो समूची मानव प्रजाति के बचे रहने और सभ्यता की ओर की विकास-यात्रा पर उसके बने रहने के अनुकूल हो। यदि वह ऐसा न करे तो उसका पीछे छूटते चले जाना और अंततः नष्ट हो जाना तय है। मॉर्गन ने लिखा है कि जिन कबीलों में रक्त-संबंध आधारित विवाह नहीं होते थे यानि जो बहिर्विवाही थे उनमें होने वाले विवाहों से पैदा हुई संतानें शरीर और मस्तिष्क से अपेक्षाकृत अधिक बलवान होती थी। जब दो विकासशील कबीले मिलकर एक जनसमूह बन जाते.... तो एक नया और विकसित मस्तिष्क तैयार हो जाता था, इसलिए गोत्रों के आधार पर संगठित कबीले अधिक पिछड़े हुए कबीलों पर हावी हो जाते थे या अपनी तर्ज पर उनको भी साथ-साथ खींच ले चलते थे।
यूथ के धीरे-धीरे युग्म-परिवार में रूपांतरण के पीछे नैसर्गिक वरण का हाथ होता है यानि यह स्वाभाविक है। इस हिसाब से युग्म परिवार की अवस्था तक मानव को पहुँचना ही था।
इसलिए एंगेल्स ने लिखा है कि यदि नई सामाजिक प्रेरक शक्तियाँ आकार नहीं लेतीं तो परिवार का कोई नया रूप उत्पन्न नहीं होता। एंगेल्स के मुताबिक, अमरीका की खोज और उस पर कब्जा होने से पहले तक वहाँ सर्वत्र परिवार का यही रूप विद्यमान था। वहाँ इसके रूपांतरण के लिए आवश्यक सामाजिक शक्तियाँ नहीं पनप पाई। लेकिन, एशिया में पशुपालन के रूप में इस प्रकार की प्रेरक शक्ति ने ज़रूर आकार लिया।
निजी संपत्ति का प्रादुर्भाव : एशिया में मनुष्य को ऐसे पशु मिल गए, जिन्हें पालतू बनाया जा सकता था। यह बर्बर अवस्था का मध्य चरण था। पालतू पशु के रूप उसे ऐसी संपदा मिल गई थी, जिसके ऊपर शिकार अथवा खाद्य-संग्रह की तुलना में कम मेहनत करनी पड़ती थी और जिससे मांस और दूध के रूप में अत्यधिक स्वास्थ्यकर भोजन मिलने लगा था। यह संपदा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती थी। आर्य और सामी जनों जैसे उन्नत कबीलों ने पशुपालन को मुख्य पेशा बना लिया और बर्बर लोगों के विशाल जनसमुदाय से अलग हो गए।
इसे एंगेल्स ने पहला बड़ा श्रम विभाजन कहा है।
पशुपालक कबीले दूध, दूध से बनी वस्तुएँ, मांस, खालें, ऊन, ऊन कातकर और बुनकर बनाए गए कपड़े आदि जैसे विविध और विपुल वस्तुओं के स्वामी होते गए। इन चीजों की जैसे-जैसे वृद्धि होती गई वैसे-वैसे व्यक्तिगत उपयोग के अलावा बहुत कुछ शेष भी बचने लगा। उधर ऐसे कबीले भी थे जिन्होंने पशुपालन नहीं अपनाया था। नतीजतन, विनिमय की शुरुआत हो गई। बर्बर अवस्था के इस चरण से पहले भी विनिमय अपवादस्वरूप ही होता था, लेकिन पशुपालन के परिणाम स्वरूप विनिमय सामान्य सामाजिक रीति हो गया।
आरंभ में पशुओं पर गोत्र/कबीले का ही स्वामित्व था, और इसलिए विनिमय गोत्र के मुखिया अथवा कबीले के प्रमुख के माध्यम से ही होता था, लेकिन जैसे-जैसे पशुओं के रेवड़ लोगों की पृथक संपत्ति बनते गए, वैसे-वैसे विनिमय भी व्यक्तियों के बीच ही होने लगा। एंगेल्स के मुताबिक, सामूहिक संपत्ति का निजी संपत्ति में रूपांतरण कब और कैसे हुआ, यह हम आज तक नहीं जान सके हैं। लेकिन मुख्यत: यह इसी बर्बर अवस्था के मध्यम चरण में हुआ होगा।
जहाँ तक खेती की बात है तो एंगेल्स का अनुमान है कि बर्बर अवस्था के निम्न चरण में एशियाई लोगों को बागवानी, जो कि खेती का पूर्ववर्ती रूप है, का ज्ञान नहीं था। लेकिन मध्यम चरण तक आते-आते वह शुरू हो गई होगी। लंबे और कड़ाके के जाड़े के दिनों के दौरान ज़रूरी चारे और अनाज का पहले से ही इंतजाम किए बिना पशुपालन संभव नहीं था। पशुपालन के लिए चारे और अनाज की खेती करना जरूरी था । इस तरह पशुओं के चारे की ज़रूरत ने खेती को जन्म दिया और एक बार जब पशुओं के लिए अनाज का उत्पादन किया जाने लगा तो फिर उसे मनुष्यों का भोजन बनने में देर न लगी। ध्यान देने की ज़रूरत है कि पशु भले ही अलग-अलग परिवारों की संपत्ति हो गए थे पर खेती की ज़मीन कबीले की संपत्ति बनी रही।
दास प्रथा की शुरुआत : पशुपालन, खेती, घरेलू दस्तकारी आदि का विकास हुआ तो गोत्र या गृह-समुदाय के सदस्यों के ज़िम्मे रोजाना पहले से कहीं ज्यादा काम आ पड़े। जितनी तेजी से पशुधन में वृद्धि होती जाती थी उतनी तेजी से परिवार नहीं बढ़ता था। काम का बोझ तो बढ़ रहा था, लेकिन काम करने वाले हाथ नहीं। ऐसे में बाहर से काम करने वालों को लाने की ज़रूरत उत्पन्न हुई।
यही कारण है कि अब युद्ध में बंदी बनाए गए लोग पहले की तरह मार दिए जाने अथवा विजयी कबीला द्वारा भाइयों के रूप में स्वीकार किए जाने की जगह दास बनाए जाने लगे। इस तरह समाज दो वर्गों में बंट गया। एक ओर दासों के स्वामी हो गए और दूसरी ओर दास।
मातृसत्ता का बिनाश: पशु और उसके उत्पाद अलग-अलग परिवारों की निजी संपत्ति बने तो युग्म विवाह और मातृवंशीयता आधारित गोत्र समाज पर खतरा मंडराने लगा। हमने युग्म-परिवार के सदर्भ में देखा कि किस तरह परिवार में जो श्रम विभाजन था, उसके अनुसार आहार जुटाने और उसके लिए आवश्यक औज़ार जुटाने का काम पुरुष का था। इसलिए इन औज़ारों पर उसी का अधिकार होता था। पति-पत्नी अलग होते थे तो घर का सामान स्त्री के पास रह जाता था और पुरुष अपने औजार साथ ले जाता था। यह उस जमाने की सामाजिक रीति थी। इस रीति के अनुसार आहार के नए स्रोत पशु और बाद में श्रम के नए औजार दास - इन दोनों पर ही पुरुष का ही अधिकार हुआ।
पशु और उसके उत्पाद भोजन के स्रोत होते गए तो आजीविका के लिए घरेलू परिक्षेत्र और इसलिए, स्त्रियों पर पुरुषों की निर्भरता भी कम होती गई।
अब उत्पादन का स्थल घरेलू दायरा नहीं, बल्कि बाहरी दायरा हो गया था, जहाँ के स्वामी पुरुष थे। उत्पादन के साधन पर भी उन्हीं का स्वामित्व था । श्रम विभाजन पहले सा ही था। हुआ केवल यह था कि स्त्रियों का श्रम उत्पादनमूलक न रह जाने के कारण महत्वहीन हो गया था। एंगेल्स ने स्त्रियों के उत्पादन की प्रक्रिया से दूर होने और घरेलू श्रम के भर के दायरे में सीमित हो जाने को उनके कमज़ोर पड़ने का महत्वपूर्ण कारण माना है। यही वजह है कि एंगेल्स ने घोषणा के स्वर में कहा कि जब तक स्त्रियों को सामाजिक उत्पादन के काम से अलग और केवल घर के के काम-काज तक ही सीमित रखा जाएगा, तब तक स्त्रियों का स्वतंत्रता प्राप्त करना और पुरुषों के समान अधिकार पाना असंभव है और असंभव ही बना रहेगा।
यहाँ उत्तराधिकार की रीति पर गौर करना ज़रूरी है। मातृवंशीयता के कारण गोत्र के किसी पुरुष सदस्य की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति उसके गोत्र-संबंधियों को मिलती थी।
चूँकि उसके बच्चे उस गोत्र के सदस्य नहीं होते थे, जिसका कि वह सदस्य होता था, इसलिए बच्चे मरहूम पिता की संपत्ति के उत्तराधिकार से वंचित थे।
शुरू में संपत्ति साधारण होती थी, इसलिए वह किसे मिल रही है यह महत्वपूर्ण नहीं था। लेकिन, पशु-संपदा जैसे-जैसे बढ़ती गई और आहार का प्रमुख जरिया बनती गई वैसे-वैसे परिवार में पुरुष की स्थिति भी श्रेष्ठ होती गई। उसकी मज़बूत होती स्थिति ने उसके भीतर उत्तराधिकार की पुरानी रीति को पलट देने की लालसा पैदा कर दी। फिर क्या था यह फैसला लिया गया कि आगे से गोत्र के पुरुष सदस्यों के वंशज गोत्र में ही रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से बाहर कर पिताओं के गोत्रों में शामिल कर दिए जाएंगे। इस प्रकार, मातृ सत्ता और मातृ-वंशानुक्रम का विनाश कर पितृ सत्ता और पितृ-वंशानुक्रम की स्थापना को एंगेल्स ने स्त्री जाति की विश्व ऐतिहासिक महत्व की पराजय कहा। चूँकि यह सब निजी संपत्ति के प्रादुर्भाव का परिणाम था, इसलिए स्त्री अधीनता के खत्म होने के लिए एंगेल्स ने निजी संपत्ति के ख़त्म किए जाने को ज़रूरी माना।
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