हिंदू सामाजिक व्यवस्था - Hindu social system

हिंदू सामाजिक व्यवस्था - Hindu social system


भारत में लगभग 4000 वर्ष पूर्व एक वैदिक संस्कृति के तहत हिंदू सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। सबसे पहले हिंदू सामाजिक व्यवस्था का उल्लेख तथा परिचय वेदों के माध्यम से ही प्राप्त होता है। वेदों को आर्यों की देव माना जाता है तथा यह एक रूप से द्रविड़ संस्कृति पर आर्यों की श्रेष्ठ को स्थापित करने के प्रयोजन से धार्मिक विश्वास तथा नई सामाजिक व्यवस्था को लागू करने से संबंधित है। तत्कालीन समाज में व्यक्ति का कर्म, गुण और अभिरुचि के आधार पर सामाजिक स्थिति को निर्धारित किया जाता था, जन्म आधारित तत्व गौण थे।


के.एम. कपाड़िया इस बारे में लिखते हैं कि चूंकि वेदों से ही हिंदू कानूनों का अभ्युदय हुआ माना जाता है. अतः हिंदू कानून निर्माताओं ने अपने नियमों तथा प्रतिबंधों की वैधता और औचित्य को बनाए रखने के लिहाज से वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते रहते थे। इसके बावजूद हिंदू सामाजिक व्यवस्था कभी भी स्थिर नहीं रही है। अर्थात् इसमें गतिशीलता के संपुट सदैव विद्यमान रहे हैं।


गौतम, बोधायन, याज्ञवल्क्य आदि संहिताओं में वर्ण विभाजन के बारे में चर्चा प्रस्तुत की गई है तथा इसे एक प्रमुख सामाजिक संस्था के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। हिंदू सामाजिक व्यवस्था में धार्मिक अनुभव के संदर्भों से बाहरी तथा भीतरी (देह और आत्मा) सारतत्वों की धारणा प्रस्तुत की गई है। हिंदू धारणा तथा जीवन पूर्ण रूप से विभाजित चार आश्रमों के इर्द-गिर्द सृजित है। हिंदू सामाजिक व्यवस्था इन वर्णाश्रमों द्वारा भौतिकता, आध्यात्मिकता, लौकिक सफलता तथा मुक्ति के संयुक्त रूप से गुथी हुई व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के इन चार स्तरों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास) से होकर गुजरना पड़ता है। ए सभी स्तर आयु तथा योग्यता के अनुरूप परिवर्तित होते रहते थे। इसी प्रकार से हिंदू सामाजिक जीवन में चार प्रकार के पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की अवधारणा भी रखी गई है। यह विभाजन इस बात की ओर भी ध्यान आकृष्ट करता है कि हिंदू सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति के धार्मिक, आर्थिक तथा सुखवादी पहलुओं को समान रूप से महत्व दिया गया है। इसके अलावा पाँच प्रकार के ऋणों (देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण, अतिथि ऋण तथा जीव ऋण) तथा उनसे संबंधित पाँच महायज्ञों (देव यज्ञ, ऋषि यज्ञ. पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ तथा जीव यज्ञ) के बारे में भी चर्चा हिंदू सामाजिक जीवन में देखने को मिलती है। साथ ही कर्म का सिद्धांत पुनर्जन्म का सिद्धांत और पूर्व नियति की धारणा भी हिंदू सामाजिक व्यवस्था के मूल में पाई जाती है।


हिंदू सामाजिक व्यवस्था में अनेक तत्व सम्मिलित हैं तथा सभी को यहाँ व्याख्यायित कर पाना दुष्कर है। अतः प्रमुख संबंधित तत्वों का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।