वैज्ञानिक पद्धति एवं सामाजिक शोध - Scientific Method and Social Research

वैज्ञानिक पद्धति एवं सामाजिक शोध - Scientific Method and Social Research


हिंदी का शब्द विज्ञान जो अंग्रेजी के साइंस शब्द के लिए प्रयुक्त होता है, दो शब्दों विज्ञान के मेल से बना है जिसका अर्थ विशिष्ट ज्ञान से है, अर्थात ऐसा ज्ञान जो ऐन्द्रियक आधार पर वस्तु को ढंग से अर्जित किया गया हो। अतः हर प्रकार का ज्ञान विज्ञान नहीं है। केवल वही ज्ञान, विज्ञान की श्रेणी में आता है, जो क्रमबद्ध रूप में संकलित एवं विश्लेषण किया गया हो। यह किसी घटना के कारण और परिणाम का विश्लेषण करके उनके पारस्परिक संबंधों को उजागर करता है। विज्ञान ज्ञान का एक भंडार है और ज्ञान प्राप्ति की एक सुव्यवस्थित पद्धति है। 


वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method)


विज्ञान को ज्ञान की एक शाखा और अध्ययन की एक विशिष्ट पद्धति दोनों रूपों में देखा गया है। ज्ञान की एक शाखा के रूप में विज्ञान की विशेषताओं का वर्णन विश्लेषण से कही महत्वपूर्ण एक पद्धति के रूप में विज्ञान की विशेषताओं पर प्रकाश डालना है. इस संबंध में कार्ल पियर्सन ने कहा है कि, "तथ्य स्वयं विज्ञान की रचना नहीं करते. अपितु तथ्यों के अध्ययन की विधि उनको विज्ञान का रूप प्रदान करती है। "


(1) वस्तुपरकता : अध्ययन/विश्लेषण के दो प्रमुख रूप है व्यक्तिपरक और वस्तुपरका व्यक्तिपरक अध्ययन में अध्ययनकर्ता के मनोभाव, मूल्य, विचार और धारणाएं समाहित होते हैं। हमारा रोजमर्रा का बहुत सा ज्ञान इसी प्रकार का होता है। या ज्ञान पक्षपात और अभिनतियों से भरा होता है।

जब हम यह कहते हैं कि यह वस्तु अच्छी है या यह व्यक्ति कुरूप या बुरा है, हमारे ये कथन हमारे मनोभावों से रंगे होने के कारण व्यक्तिपरक निष्कर्ष कहे जाते हैं। वस्तुपरक ज्ञान पक्षपातों. अभिनतियों, मनोभावों, मूल्यों, धारणाओं आदि से मुक्त होता है। किसी वस्तु व्यक्ति या घटना के अध्ययन को इन सभी तत्वों से दूर रखने का यत्न किया जाता है एवं तथ्यों के साक्ष्यों और तार्किक आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।


(2) सत्यापनशीलता : वैज्ञानिक ज्ञान सत्यापनशील होता है, अर्थात ऐसा ज्ञान, जिसका साक्ष्यों के आधार पर परीक्षण कर उसकी सत्यता को परखा जा सकता है। साक्ष्यों से तात्पर्य मूर्त तथ्यों से है,

जिनकी सत्यापन की परख देखकर, सुनकर, तोलकर, माप या गणना करके की जा सकती है। कई सदियों तक पृथ्वी के गोल या चपटी होने. सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी के चक्कर लगाने के बारे में काफी मतभेद रहा है। किंतु. 16वीं शताब्दी के ज्योतिषी कोपरनिकस ने अपने शोध प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि सूर्य की परिक्रमा पृथ्वी करती है। इसी प्रकार के अन्य के उदाहरण लिए जा सकते हैं।


(3) नैतिक तटस्थता : विज्ञान या वैज्ञानिक पद्धति नैतिक दृष्टि से निरपेक्ष और तटस्थ होती है. अर्थात क्या अच्छा या बुरा है, यह क्या होना चाहिए, इसका निर्णय विज्ञान नहीं करता। ये प्रश्न विज्ञान की परिधि में नहीं आते। इन प्रश्नों का निर्णय समाज के मूल्यों द्वारा होता है। हमारे मूल्य ही यह बताते हैं कि हमारे लिए क्या आवश्यक और महत्वपूर्ण है। विज्ञान हमें केवल यह बताता है कि आवश्यकता से अधिक खाने या सिगरेट पीने से हमारी आयु कम होती है।

विज्ञान लंबी आयु अथवा विलासी जीवन दोनों में से एक चुनने में मदद नहीं करता। इस चयन प्रक्रिया में हमारे मूल्य सहायक हो सकते हैं। अणु शक्ति का प्रयोग रचनात्मक और विनाशात्मक दोनों प्रयोजनों के लिए किया जा सकता है। इनके प्रयोग के बारे में हमारे सामाजिक मूल्य ही मार्गदर्शन कर सकते हैं।


(4) विधिवतता : वैज्ञानिक पद्धति उटपटांग और मनमाने ढंग से संपादित नहीं की जाती। इसकी एक निश्चित कार्य विधि और इसके विभिन्न चरणों में एक तार्किक अनुक्रम होता है। एक वैज्ञानिक गवेषणा में सर्वप्रथम समस्या को निश्चित शब्दों में परिभाषित कर इसके सत्यता की परीक्षा हेतु तथ्यों के संकलन और विश्लेषण की एक योजना बनाई जाती है जिसे शोध प्रारूप कहा जाता है। इसी प्रारूप के अनुसार तथ्यों का संकलन और विश्लेषण किया जाता है।


(5) निश्चितता : यह विज्ञान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। विज्ञान शब्दों को ढीले-ढाले या अनिश्चित अर्थों में प्रयोग की अनुमति नहीं देता। एक वस्तु किसी व्यक्ति को भारी लगती है, वही वस्तु किसी दूसरे को हल्की लग सकती है। इसी प्रकार, किसी व्यक्ति को एक मरीज का बुखार कम लग सकता है, जबकि दूसरा व्यक्ति उसी व्यक्ति के बुखार को अधिक बताता है। विज्ञान ने कम या भारी वजन की समस्या को तुला-बाटों से और मरीज के बुखार को थर्मामीटर के प्रयोग से हल कर दिया है। अब वजन और बुखार दोनों घटनाओं को निश्चित एवं सर्वमान्य माप और मात्रा में प्रदर्शित किया जा सकता है।


(6) पूर्व-कथनीयता : विज्ञान का अंतिम लक्ष्य घटनाओं पर नियंत्रण स्थापित कर मानव के जीवन को अधिकाधिक खुशहाल बनाना है। यह तभी संभव है

जब घटनाओं के बारे में पहले से भविष्योक्ति कर आने वाले संकट के बारे में मानव को चेतावनी दी जा सके। भविष्योक्ति का कार्य सामान्यतः पहले ज्योतिषी या ज्ञानी कहे जाने वाले व्यक्ति किया करते थे। अब भी वे करते हैं।

उनकी भविष्योक्ति अटकलों या अंतःप्रज्ञा पर आधारित होती थी. अतः उनमें संशय और संदेह बना रहता था। वैज्ञानिक की भविष्योक्ति अनुभवी तथ्यों पर आधारित होने के कारण उसके सत्य होने की संभावना अधिक रहती है।


(7) विश्वसनीयता : वैज्ञानिक ज्ञान निरंतर कुछ निश्चित प्रक्रिया एवं दशाओं के अंतर्गत बार-बार दोहराया जाता है और दोहराने पर यदि हर बार समान परिणाम प्राप्त होते हैं, तभी इस ज्ञान को विश्वसनीय माना जाता है। न्यूटन ने पेड़ के नीचे सोते समय जब पेड़ से सेव को नीचे गिरते हुए देखा तब उसने परीक्षण के तौर पर अन्य सेवों और वस्तुओं को ऊपर फेंका।

परिणामतः ऊपर फेंकी गई सभी वस्तुएं नीचे आ गिरी। इस परीक्षण के आधार पर ही उसने गुरुत्वाकर्षण शक्ति के नियम का प्रतिपादन कर यह बताया कि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के भीतर जो भी वस्तु ऊपर फेंकी जाएंगी, वह नीचे आ गिरेगी और ऊपर नहीं जाएगी।


वैज्ञानिक मापदंड इस बात की मांग करते हैं कि शोध कार्य किया जाना चाहिए ताकि उसकी पुनरावृति करके प्राप्त तथ्यों की पुष्टि की जा सके। यहां यह उल्लेखनीय है कि भौतिक विज्ञान में जिस प्रकार पुनरावृति अध्ययन समान दशा में संभव है, उसी प्रकार सामाजिक विज्ञानों में नहीं होते। शोध क्या है ? विविध क्षेत्रों में अनुसंधान यह शोध शब्द का प्रयोग अलग-अलग परिभाषित अर्थ में किया गया है। शोध में तीन प्रक्रिया सम्मिलित होती हैं : खोजना, परिष्करण करना और प्रमाणीकरण करना। वैज्ञानिक जगत में इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता है।