बाल केन्द्रित शिक्षा का महत्व - importance of child centered education

बाल केन्द्रित शिक्षा का महत्व - importance of child centered education


प्राचीनकाल में शिक्षा का उद्देश्य बच्चों के मस्तिष्क में कुछ जानकारी भरना मात्र समझा जाता था। आधुनिक शिक्षा शास्त्र के अनुसार शिक्षक * बच्चे के सर्वागीण विकास का प्रयास करना चाहिये। इसके लिये उसे बाल मनोविज्ञान की जानकारी होनी चाहिये। इस जानकारी के बिना न तो वह बच्चे को समझ सकता है और न ही उसकी कठिनाइयों को ही दूर कर सकता है। आधुनिक शिक्षक अपने को अधिक से अधिक आकर्षक और सुगम बनाना चाहता है। कुशल अध्यापक बनने के लिए उसे यह ज्ञात होना चाहिये कि शिक्षार्थियों का मनोविज्ञान क्या है। बाल मनोविज्ञान शिक्षक को शिक्षार्थी की आवश्यकताओं तथा अन्य अनेक विषयों से परिचित कराता है।


इस प्रकार गिजुभाई ने बाल मनोविज्ञान के जिन मुख्य बिन्दुओं का अपनी शैक्षिक योजना में समावेश किया उनकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं.


1. बच्चे को समझना (Understanding the Child) - किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए व्यक्ति को उन लोगों के मनोविज्ञान की जानकारी होनी चाहिये, जिनसे उनका सरोकार होता है। यदि शिक्षक को बच्चों के मनोविज्ञान की जानकारी नहीं होगी तो वह उन्हें सिखायेगा ही क्या? इसीलिये जॉन एडम्स (John Adams) ने शिक्षक के लिए विषय से अधिक बच्चे की जानकारी आवश्यक मानी है। बच्चे के सम्बन्ध में शिक्षक को उसके व्यवहार के मूल आधारों, आवश्यकताओं, मानसिक स्तर, रुचियों, योग्यताओं, व्यक्तित्व इत्यादि का विस्तृत ज्ञान होना चाहिये। व्यवहार के मूल आधारों का ज्ञान तो सबसे अधिक आवश्यक है क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य ही बच्चे के व्यवहार को परिमार्जित करना है। अतः शिक्षा बच्चे की मूल प्रवृत्तियों प्रेरणाओं और संवेगों पर आधारित होनी चाहिये। व्यवहार के इन मूल आधारों को नई दिशा में मोडा जा सकता है इनका शोधन किया जा सकता है और इनको बच्चे में से निकाला जा सकता है। इसलिये सफल शिक्षक इनके शोधीकरण (Sublimation) का प्रयास करता है बच्चा जो कुछ सीखता है, उससे उसकी आवश्यकताओं का बड़ा निकट सम्बन्ध है। स्कूल में पिछड़े हुएBackward) बच्चों में अधिकतर ऐसे होते है जिनकी आवश्यकतायें स्कूल में पूरी नहीं होती। इसीलिये वे सड़क पर लगे बिजली के बल्बों को फोड़ते हैं, स्कूल से भाग जाते हैं और आस-पड़ोस के लोगों को तंग करते हैं तथा मुहल्ले के बच्चों को पीटते है।

मनोविज्ञान के ज्ञान के अभाव में शिक्षक सजा (punishment) या पिटाई के द्वारा इन दोषों दूर करने का प्रयास करता है परन्तु बच्चों को समझने वाला शिक्षक यह जानता है कि इन दोषों का मूल उनकी शारीरिक, सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं में है। बाल मनोविज्ञान शिक्षक को बच्चों के व्यक्तिगत भेदों से परिचित कराता है और यह बतलाता है कि उनमें रुचि, स्वभाव तथा बुद्धि आदि की दृष्टि से भिन्नता पायी जाती है। अतः कुशल शिक्षक मन्द बुद्धि, सामान्य बुद्धि तथा कुशाग्र बुद्धि बच्चों में भेद करके उन्हें उनकी योग्यताओं के अनुसार शिक्षा देता है। शिक्षा देने में शिक्षक को बच्चों और समाज की आवश्यकताओं में समन्वय करना होता है। स्पष्ट है कि इसके लिए उसे बच्चे की पूर्ण मनोवैज्ञानिक जानकारी होनी चाहिये।


2. शिक्षण विधि (Teaching Method)- शिक्षा शास्त्र शिक्षक को यह बतलाता है कि बच्चों को क्या पढाया जाये। परन्तु असली समस्या यह है कि कैसे पढाया जाये? इस समस्या को सुलझाने में बाल मनोविज्ञान शिक्षक की सहायता करता है। बाल मनोविज्ञान सीखने की प्रक्रिया,

विधियों, महत्वपूर्ण कारकों, और हानिकारक दशाओं, रुकावटों, सीखने का वक्र तथा प्रशिक्षण, संक्रमण आदि विभिन्न तत्वों से परिचित कराता है। इनके ज्ञान से शिक्षक बच्चों की सीखने में सहायता कर सकता है। शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षण की विधियों का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करता है और उनमें सुधार के आय बतलाता है।


3. मूल्यांकन और परीक्षण (Evaluation and Testing)- शिक्षण से ही शिक्षक की समस्या हल नहीं हो जाती है। उसे बच्चों के ज्ञान और विकास का मूल्याकन और परीक्षण करना होता है। मूल्याकन से परीक्षार्थी की उन्नति का पता चलता है। शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक और शिक्षार्थी बार बार यह जानना चाहते हैं कि वे कहाँ प्रगति कर रहे हैं और यदि उनको सफलता अथवा असफलता मिली है तो क्यों और उसमें क्या परिवर्तन किये जा सकते हैं। जहाँ शिक्षक स्वयं विद्यार्थी का मूल्यांकन करता है वहाँ उसे यह सीखने में भी सहायता करता है

कि बिद्यार्थी स्वयं अपनी प्रगति का निष्पक्ष रूप से मूल्याकन कर सके। मूल्याकन से प्रेरणाओं पर बड़ा प्रभाव पड़ता हैजिससे उसका व्यवहार परिवर्तित होता है। सभी प्रकार की मूल्याकन विधियाँ मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होती हैं। बाल मनोविज्ञान से शिक्षक को किसी शिक्षण परिस्थिति में बच्चे के मूल्यांकन से ही सहायता नहीं मिलती है, बल्कि शिक्षक के रूप में अपनी योग्यता का भी पता चलता है।


4. पाठ्यक्रम (Curriculum) - समाज और व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये स्कूल के पाठ्यक्रम का विकास व्यक्तिगत विभिन्नताओं, प्रेरणाओं, मूल्यों और सीखने के सिद्धांतों के मनोवैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित होना चाहिये। पाठ्यक्रम बनाने में शिक्षक यह ध्यान रखता है कि शिक्षार्थी की और समाज की क्या आवश्यकताएँ है और सीखने की कौन-सी क्रियाओं से ये आवश्यकताएँ सर्वोत्तम रूप से पूर्ण हो सकती हैं।

भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में तथा विभिन्न स्तरों पर कुछ सीखने की क्रियाएँ बांछनीय हो सकती हैं और कुछ अवांछनीय। यह निश्चित करने में शिक्षक को विकास की विभिन्न अवस्थाओं का मनोवैज्ञानिक ज्ञान होना चाहिये। संक्षेप में क्रियात्मक होने के लिए प्रत्येक पाठ्यक्रम को एक समुचित मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित होना चाहिये। यह मनोवैज्ञानिक आधार बाल मनोबिज्ञान प्रस्तुत करता है।


5. मानव सम्बन्ध (Human Relations) - बाल मनोविज्ञान ने शिक्षक को मानव सम्बन्धों को समझने में सहायता दी है। शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक है। स्कूल में पहुॅचकर बच्चे के सम्मुख शिक्षक उसके माता-पिता का स्थान ले लेते हैं।

प्रत्येक बालक अपने सामने शिक्षक का एक आदर्श रखता है। दूसरी ओर शिक्षक भी यह सोचता है कि आदर्श शिक्षक कैसा होना चाहिए। शिक्षक सम्बन्धी विद्यार्थियों और शिक्षकों के इन शिक्षक संबंधी आदशों की परस्पर अन्तः क्रिया से कक्षा का व्यवस्थापन निर्धारित होता है। शिक्षा मनोविज्ञान से शिक्षक-विद्यार्थी के परस्पर सम्बन्धों को बेहतर बनाने में सहायता मिलती है और सीखने के संवेगात्मक पहलुओं तथा सम्बन्धों के महत्व का पता चलता है। कक्षा का वातावरण शिक्षा की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह वातावरण जहाँ एक और शिक्षक शिक्षार्थी के परस्पर सम्बन्धों से भी बनता है। वहीं दूसरी ओर शिक्षार्थियों के परस्पर सम्बंधों से भी बनता है। इस प्रकार प्रत्येक बच्चा एक सामूहिक परिस्थिति में बिकसित होता है। बाल मनोविज्ञान कक्षा में बच्चों के परस्पर सम्बन्धों का समन्वय बनाने में शिक्षक की सहायता करता है।


स्कूल का वातावरण शिक्षक विद्यार्थी सम्बन्धों, शिक्षार्थी के परस्पर सम्बन्धों के अतिरिक्त शिक्षकों के परस्पर और शिक्षक के प्रधानाध्यापक से सम्बन्ध पर निर्भर रहता है। बाल मनोविज्ञान इस दशा में भी सम्बन्धों को बेहतर बनाने में सहायक सिद्ध होता है।


6. व्यवस्थापन और अनुशासन (Adjustment and Discipline) - सम्बन्धों के उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्कूल में शिक्षार्थियों के व्यवस्थापन और अनुशासन में मनोविज्ञान की आवश्यकता अत्यधिक महत्वूर्ण है। व्यवस्थापन का अर्थ यह है कि किसी विशेष परिस्थिति में कोई व्यक्ति कितनी अच्छी तरह प्रतिक्रिया करता है। इसमें व्यक्ति और उसके परिवेश के सम्बन्ध का पता चलता है। इसका परम लक्ष्य मानसिक आरोग्य की पूर्ण स्थिति प्राप्त करना है। बाल मनोविज्ञान व्यवस्थापन अनुशासन और मानसिक आरोग्य सभी पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करता है। अच्छे व्यवस्थापन में किसी एक में परिवर्तन न होकर दोनों में ही परिवर्तन है। उदाहरण के लिये शिक्षक और शिक्षार्थी के परस्पर व्यवस्थापन में जहाँ एक और शिक्षार्थी में परिवर्तन आवश्यक होते हैं वहीं शिक्षक में भी परिवर्तन अपेक्षित हैं। इस दोहरे परिवर्तन में किसी के भी व्यक्तित्व को आघात नहीं पहुंचता और स्वस्थ व्यक्तियों का विकास हो सकता है। अनुशासन की मूल समस्यायें भी प्रेरणा की और लक्ष्यों की समस्यायें हैं। अतः उनको सुलझाने में मनोविज्ञान सहायक होता है।

कभी-कभी तो कुछ शरारत बच्चों में अच्छे समायोजन की सूचक होती है और शिक्षक को उन्हें दबाने के स्थान पर प्रोत्साहित करना होता है। मनोविज्ञान यह बतलाता है कि एक ही व्यवहार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रेरणाओं का कारण हो सकता है। बच्चों के व्यवहार में शिक्षक को उनके असली प्रेरक कारणों का पता लगाना है, जिससे कि वह उनमें आवश्यक रूपांतर कर सके। इस कार्य में बाल मनोविज्ञान शिक्षक की सहायता करता है। 


7. प्रयोग (Experimentation)- बाल मनोविज्ञान अनुसंधान में भी सहायता करता है। शिक्षा सिद्धांत या व्यवहार में शिक्षक के सामने ऐसी अनेक समस्यायें उत्पन्न होती हैं जिनको सुलझाने के लिये उसको नये नये प्रयोग करने की आवश्यकता होती है। शिक्षा स्वयं बहु लकुछ शिक्षक के प्रयत्न और भूल तथा सूझ पर निर्भर है। उसमें शिक्षक सदैव कुछ बनेबनाये सिद्धांतों पर नहीं चल सकता।

नयी-नयी परिस्थितियों में नयी-नयी समस्याओं को सुलझाने के लिये शिक्षक को स्वयं प्रयोग करने चाहिये और उससे निकले निका उपयोग करना चाहिये। मनोविज्ञान के क्षेत्र में होने वाले नये-नये अनुसंधानों से जो नये नये तथ्य प्रकाश में आते हैं, उनकी जाँच करने लिये भी शिक्षक को प्रयोग करने की आवश्यकता है। इस प्रकार स्कूल के दैनिक जीवन में शिक्षा सम्बन्धी अनुसंधान की भारी संभावनायें निहित हैं।


8. कक्षा की समस्याओं का निदान और निकारण (Diagnosis and Elimination of problems in the classroom) - बाल मनोविज्ञान शिक्षक को कक्षा में शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं के निदान और निराकरण में सहायता देता है। 

इस तरह की अनेक समस्यायें निम्नलिखित हो सकती हैं-


(अ) पिछडे हुए बच्चे की प्रगति के लिये क्या उपाय किये जाये? 


(ब) विषमायोजित (maladjusted) बच्चे को सुधारने के लिये क्या विधि अपनाई जाये?


(स) बच्चों में अनुशासन हीनता को कैसे दूर किया जाये?


(द) किसी शारीरिक अथवा मानसिक रूप से पीड़ित बच्चे को किस तरह पढ़ाई के औसत स्तर पर लाया जाये? 


(च) बच्चों में आत्म-प्रेरणा किस तरह उत्पन्न की जाये? 


(छ) समस्याग्रस्त बच्चे को कैसे शिक्षा दी जाये?


(ज) बच्चों में यौन-सम्बन्धी अपराधों को किस तरह रोका जाये? 


(झ) बच्चों में किशोरापराध की प्रवृत्तियों को कैसे सुधारा जाये


उपर्युक्त समस्याओं को सुलझाने के लिये शिक्षक को इन समस्याओं के कारणों का निदान करना पड़ेगा। इस निदान के लिये उसको मानव मनोविज्ञान का व्यापक ज्ञान होना चाहिये। निदान के साथ-साथ शिक्षक का काम इन समस्याओं का निराकरण करना भी है। इसके लिये सबसे पहले उसे अपनी शिक्षण पद्धति और सीखने की प्रक्रिया का स्वयं विश्लेषण करके उसके गुण-दोषों को समझना चाहिये। फिर उसको उन विधियों की खोज करनी चाहिये,

जिनसे विशेष परिस्थितियों में बालक में अनुकूलन उत्पन्न किया जा सके। यह सब शिक्षक के मनोवैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित है।


उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि शिक्षक के लिये मनोविज्ञान का ज्ञान कितना आवश्यक है। आधुनिक जनतन्त्रीय समाज में शिक्षक का लक्ष्य एक चिन्तनशील एवं क्रियाशील व्यक्ति के रूप में बच्चे का विकास करना है। इस विकास में एक व्यक्ति के रूप में उसका बहु तसी परिस्थितियों के साथ समायोजन होता है। इस समायोजन में शिक्षक के निर्णयों और सूझ-बूझ का बड़ा महत्व है। इसमें वह एक व्यवहारिक विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान का प्रयोग करता है। इसीलिये आजकल शिक्षकों को उनके प्रशिक्षण में मनोविज्ञान की शिक्षा दी जाती है, जिससे कि आधुनिक जनतन्त्रीय समाज में शिक्षा के लक्ष्यों और बालक के जीवन के बीच की गहरी खाई को पाट कर उनमें समन्वय स्थापित कर सके। शिक्षक को एक और शिक्षार्थी को तो दूसरी और अपने को समझना है। इस ज्ञान में मनोविज्ञान सहायक सिद्ध होता है।