शिक्षण के प्रकार- अनुकूलन, प्रशिक्षण, मतारोपण एवं अनुदेशन - Modalities of Teaching - Conditioning, Training, Instruction & Indoctrination
शिक्षण के प्रकार- अनुकूलन, प्रशिक्षण, मतारोपण एवं अनुदेशन - Modalities of Teaching - Conditioning, Training, Instruction & Indoctrination
शिक्षण के स्वाभाविक स्वरुप को समझने के लिए इसके अर्थ को दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में जानना आवश्यक है। शिक्षण कला के साथ-साथ एक विज्ञान भी है जिसमें शिक्षण क्रिया के संचालन शैली के साथ-साथ शिक्षण क्रिया का विभिन्न चरों में विश्लेषण तथा मूल्यांकन भी किया जाता है। ऐसी कई क्रियाएँ हैं जो शिक्षण से जुड़ी हुई हैं तथा शिक्षण के समान प्रतीत होती हैं किन्तु इससे वस्तुतः भिन्न होती हैं। इस खंड में आप शिक्षण की प्रकृति एवं विशेषताओं तथा इसकी प्रकारता यथा अनुकूलन, प्रशिक्षण, अनुदेशन एवं मतारोपण का अध्ययन करेंगे।
शिक्षण शब्द 'शिक्ष' धातु से मिलकर बना है जिसका अर्थ है सीख देना या सिखाना प्रथम अर्थ में शिक्षण को एक डॉक्ट्रिन के रूप में देखा जा सकता है जो ज्ञान के पुंज से व्यक्ति को परिचित कराता है।
जैसे गीता, कुरान, बाइबल आदि । द्वितीय अर्थ में इसे एक व्यवसाय के रूप में देखा जा सकता है जिसमें समाज के कुछ सदस्य अन्य सदस्यों विशेष रूप से बच्चों तथा कम परिपक्व सदस्यों को शिक्षित करने का कार्य करते हैं। तीसरे अर्थ में इसे एक प्रणाली के रूप में देखा जाता है जिसमें ज्ञान का संचार एक अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व तथा अनुभवी व्यक्ति से कम परिपक्व व्यक्ति को किया जाता है, जिसमें प्रथम व्यक्ति सीख देता है तथा दूसरा व्यक्ति कुछ सीखता है।
दार्शनिक परिप्रेक्ष्य:
आदर्शवाद के अनुसार शिक्षण एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें शिक्षक अर्थात् वह व्यक्ति जो सीख देता है तथा शिक्षार्थी, जो सीखता है, उसे आत्म अनुभूति की ओर अग्रसर करता है। यथार्थवाद के अनुसार शिक्षक शिक्षार्थी के विकास की प्रक्रिया को नियंत्रित एवं समन्वयित करता है
प्रकृतवादी शिक्षक शिक्षार्थी को पूर्ण स्वतंत्रता देकर अपने व्यक्तित्व को स्वाभाविक रूप से विकसित करने के लिए प्रेरित करता है। प्रयोजनवादी शिक्षण व्यवस्था में शिक्षक शिक्षार्थी को अपने परिस्थितियों में उत्पन्न समस्याओं के समाधान में संलग्न करता है तथा इस प्रकार प्राप्त अनुभवों से शिक्षार्थी में सूझबूझ तथा कौशल का विकास होता है।
मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्यः
व्यवहारवादी अधिगम सिद्धांत के अनुसार शिक्षण बाह्य कारकों के प्रभाव से उत्पन्न एक क्रिया के रूप में माना जाता है। इसमें शिक्षार्थी को प्रस्तुत उद्दीपन के उत्तर में सही अनुक्रिया करने के लिए सहायता दी जाती है तथा सही अनुक्रिया का पुनर्बलन भी किया जाता है। इस प्रकार शिक्षार्थी सशक्त उद्दीपन अनुक्रिया संबंध स्थापित करता है। संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत के अनुसार शिक्षण एक गतिशील एवं विचारशील प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक शिक्षार्थी के समक्ष नवीन परिस्थितियों को प्रस्तुत करता है तथा शिक्षार्थी इन परिस्थितियों का प्रत्यक्षीकरण कर अंतर्दृष्टि तथा आलोचनात्मक समझ विकसित करता है। निर्माणवादी अधिगम सिद्धांत के अनुसार शिक्षण एक सीखने सिखाने की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाला शिक्षक तथा अन्य शिक्षार्थियों के साथ विचार-विमर्श कर समस्या का समाधान या ज्ञान का निर्माण करता है।
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