विवाह-पूर्व तथा विवाहेतर यौन-संबंध - Pre-Marital and Extra-Marital Sex Relations

विवाह-पूर्व तथा विवाहेतर यौन-संबंध - Pre-Marital and Extra-Marital Sex Relations  


गैर जनजातीय समाजों की तरह आदिवासी समाजों में यौन-संबंधों के आधार पर स्त्री के चरित्र की उत्तमता या अधमता निर्धारित नहीं की जाती। बहुत से आदिवासी समाजों में विवाह - पूर्व यौन-संबधों को गलत नहीं माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह प्रेम करने की कला और यौन जीवन को समझने के लिए एक प्रकार का व्यावहारिक प्रशिक्षण है, जो आमतौर पर विवाह में परिणित हो जाता है। कुछ आदिवासी समुदायों में ऐसे त्यौहार और उत्सव होते हैं जब यौन-संबधी प्रतिबंध अपने आप ढीले पड़ जाते हैं (विद्यार्थी एवं राय, 1977)। 'हो' समुदाय में माघी पर्व पर और ओरॉव जनजाति में खद्दी पर्व पर स्त्रियों और पुरूषों को यौन संबंध स्थापित करने की स्वतंत्रता रहती है।


मध्य भारत के आदिवासी समूहों में पूर्व-वैवाहिक यौन-संबंध स्थापित करने की स्वतंत्रता रहती है, बशर्ते लड़की गर्भवती न हो जाए, क्योंकि लड़की का गर्भवती होना उसके माता-पिता के लिए बहुत ही लज्जाजनक है,

चाहे वह लड़की सेवा-विवाह-प्रथा के अनुसार उस परिवार में सेवा करने वाले भावी दामाद के द्वारा ही गर्भवती हुई हो। इस गर्भवती लड़की को गर्भाधान कराने वाले पुरुष का नाम बताना पड़ता है। नाम बता देने पर गाँव और परिवार के लोग उस पुरुष को उस लड़की से विवाह करने के लिए बाध्य करते हैं। परंतु, इस प्रकार के विवाह में वधू-मूल्य या तो दिया नहीं जाता और यदि दिया भी जाता है तो केवल रस्म अदायगी की तरह।


आदिवासी समुदायों में विवाह- पूर्व यौन-संबंधों की तरह विवाहेतर संबंधों के प्रति उतनी उदासीनता नहीं होती है। ज्यादातर आदिवासी समुदायों में शादीशुदा लोगों के विवाहेतर संबंध को अपराध की तरह देखा जाता है पर कुछ आदिवासी समुदायों में शादी के बाद भी स्त्री को अपने पिता के घर रहने के दौरान यौन संबंध बनाने की छूट होती है, परंतु वह जब अपने ससुराल जाती है तो उसे यौन-संबंधी कठोरतम नियमों का पालन करना पड़ता है।

उदाहरण के लिए देहरादून की खस आदिवासी समुदाय में एक लड़की को अपने ससुराल में यौन-संबधी नियमों का कठोरता से पालन करना पड़ता है, पर जब वही लड़की अपने मायके आती है तो उसे यौन-संबधी अनेक छूट मिल जाती हैं। ऐसे ही कोनयाक नगा समुदाय में विवाह के बाद भी स्त्रियाँ अपने मायके में ही रहती हैं और अनेक पुरुषों से यौन-संबंध बनाए रख सकती हैं। आमतौर पर पहले बच्चे के जन्म के बाद ही वे अपने ससुराल जाती हैं। यदि पति को यह मालूम भी हो जाए की यह संतान उसकी नहीं है तो भी पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि आदिवासी समुदायों में यौन-संबंधों को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जाता, बल्कि विवाह का मुख्य आधार स्त्री की प्रजनन क्षमता, श्रम विभाजन और आर्थिक सहयोग होता है।


आदिवासी समुदायों में स्त्री की प्रजनन क्षमता और उनकी उत्पादन प्रक्रियाओं में भागीदारी को बहुत महत्व दिया | जाता है। वधू-मूल्य (bride-price), जो विवाह के समय वर के पिता द्वारा वधु के पिता या परिवार वालों को दिया | जाता है, एक तरह से लड़की के उत्पादन और प्रजनन अधिकारों का मूल्य होता है जिसका लाभ विवाह के बाद वर पक्ष को मिलता है।


सिक्किम के भोटिया और लद्दाख के बोद आदिवासी समुदायों में वधु-मूल्य बहुत महत्वपूर्ण होता है और यदि कोई | पुरुष इसका भुगतान करने में असमर्थ होता है तो उसे लड़की के घर में एक निश्चित अवधि तक कार्य करना पड़ता है जिसका निर्धारण गाँव की परिषद करती है या फिर उसे या उसके परिवार वालों को लड़की के सगे या चचरे भाई के विवाह के लिए लड़की खोजनी पड़ती है (भसीन, 2007 )