विदेशी निवेश की सीमाएं व दोष - Limitations and demerits of foreign investment

विदेशी निवेश की सीमाएं व दोष - Limitations and demerits of foreign investment


(i) मेजबान देशों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश / विदेशी निवेश की सीमाएं या दोष -


(1) प्रतिस्पर्धा पर कुप्रभाव-विकासशील देशों व अल्पविकसित देशों में स्थापित विदेशी कंपनियां मेजबान देश की घरेलू औद्योगिक इकाइयों को कुप्रभावित करती है। ये घरेलू इकाइयां विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की उच्च टेक्नोलॉजी, प्रबंधकीय श्रेष्ठता, विश्व व्यापी ब्रांड छवि सूदृढ वित्तीय आधार से प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर पाती। इसके अलावा विकासशील व अल्पविकसित देशों के लोग विदेशी ब्रांडों को खरीदना बड़े गर्व की बात मानते हैं। इससे घरेलू इकाइयों को हानि होती है। कई बार बहुराष्ट्रीय कंपनिया मेजबान देश की घरेलू कंपनियों को अधिग्रहण करके मेजबान देश में एकाधिकार वाली स्थिति उत्पन्न करके प्रतिस्पर्धा को बहुत कम कर देती है, जैसे- भारत में हिदुस्तान यूनीलीवर (जो विदेशी कंपनी यूनीलीवर की सहायक कंपनी है) ने बहुत सी भारतीय घरेलू कंपनियों का अधिग्रहण कर लिया है। 


(2) विदेशों पर निर्भरता में वृद्धि - विदेशी निवेश के कारण विदेशों पर निर्भरता में वृद्धि होती है। विदेशों से जो मशीनें, कच्चा माल, तकनीक आदि आयात की जाती है। उनके कल पूर्जो, टेक्नीशियन्स आदि के लिए उन्हीं देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। अर्थात विदेशी तकनीक के रख-रखाव के लिए भी हमें विदेशों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।


(3) विदेशी विनिमय का बाहरी प्रवाह:- मूल देश में स्थापित सहायक कंपनी को रॉयल्टी तकनीकी फीस, लाभ, पूंजी पर ब्याज आदि के रूप में मूल कंपनी को भुगतान विदेशी मुद्रा में करना पडता है दीर्घकाल में यह भुगतान निवेश की गई पूजी से कहीं अधिक होता है इससे मेजबान देश में विदेशी विनिमय का बाहरी प्रवाह बढ़ जाता है। इसके अलावा मेजबान देश को मूल देश से पूजी उत्पादों व मध्यवर्ती उत्पादों का भी आयात करना पडता है, क्योंकि घरेलू पूंजी उत्पाद व मध्यवर्ती उत्पाद विदेशी टेक्नोलॉजी से मेल नहीं खाते। इससे भी विदेशी विनिमय के बाहरी प्रवाह में वृद्धि होती है।


(4) आंतरिक वितीय साधनों का अपर्याप्त विकास- विदेशी पूंजी का आंतरिक वित्तीय साधनों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत में नियोजन के प्रारंभिक काल में आंतरिक बचतों की दर बहुत कम रही। इसका कारण विदेशी सहायता का उपलब्ध होना था। देश में आंतरिक बचत बढ़ाने के पूर्ण प्रयास नहीं किए गए क्योंकि जरूरत पड़ने पर विदेशी पूंजी का ही प्रयोग किया जाता है।


(5) अनिश्चितता:- विदेशी निवेश के संबंध में सदैव अनिश्चितता बनी रही है। यह कभी भी विदेशों को वापिस जा सकती है। विदेशी पूंजी कभी भी किसी अर्थव्यवस्था का स्थायी अंग नहीं बन सकती। आपत्तिकाल में जब विदेशी पूंजी की सबसे अधिक आवश्यकता होती हैं, इसकी उपलब्धता बहुत कम जाती है।

वैश्विक वित्तीय संकट की दशा में विदेशी संस्थागत निवेशक पोर्टफोलियों निवेश को वापस ले जाते हैं। इससे घरेलू अर्थव्यवस्था में पूंजी की कमी हो जाती है, शेयरों की कीमतों में गिरावट आ जाती हैं, जिससे शेयर बाजार संकट आ जाता है। इसके अलावा इससे घरेलू करेंसी के बाहरी मूल्य मे कमी आ जाती है, क्योंकि विदेशी संस्थागत निवेशक अपनी पूजी को अपने मूल देश में वापस ले जाते है, जिससे विदेशी मुद्रा की माग बढ़ जाती है। वर्ष 2008-09 में ऐसी स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था में तथा विश्व की अधिकतर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में आई इस तरह पोर्टफोलियो निवेश केवल अच्छे समय का साथी है तथा बहुत अनिश्चित है।


(6) घरेलू उत्पादकों के लिए हानिकारक:- विदेशी पूंजी के द्वारा स्थापित उद्योगों के कारण घरेलू उत्पादकों को हानि उठानी पड़ सकती है

ये विदेशी उद्यमों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते। उनके लाभों में कमी होती है। इसका उनके विकास पर प्रतिकूल पड़ता है। कई बार उन्हें उत्पादन ही बंद करना पड़ता है।


(7) असंतुलित विकासः - विभिन्न देशों में विदेशी पूंजी का निवेश उन्हीं उद्योगों में किया गया है जिनमें लाभ की मात्रा अधिक है। इसके फलस्वरूप मेजबान देशों में आवश्यक तथा आधारभूत उद्योगों का उचित विकास नहीं हो पाया है। परिणामस्वरूप मेजबान देशों का औद्योगिक विकास संतुलित ढंग से नहीं हो पाया।


(8) घरेलू तकनीक के विकास में बाधा:-विदेशी पूंजी के साथ-साथ विदेशी तकनीक भी आयात की जाती है। इसका घरेलू तकनीक तथा अनुसंधानों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जब हम कोई तकनीक विदेशों से आयात कर लेते हैं तो उस तकनीक का घरेलू उत्पादन, अनुसंधान व विकास छोड़ देते हैं। इससे स्वदेशी आधुनिक तकनीक का विकास नहीं हो पाता। इससे मेजबान देशों के उद्योग विदेशों पर निर्भर हो जाते हैं।