अशोक का (धम्म) धर्म - Ashoka's (Dhamma) religion
अशोक का (धम्म) धर्म - Ashoka's (Dhamma) religion
विश्व के इतिहास में अशोक इसलिए विख्यात है कि उसने निरंतर मानव की नैतिक उन्नति के लिए प्रयास किया। जिन सिद्धांतों के पालन से नैतिक उत्थान संभव था अशोक के लेखों में उन्हें 'धम्म' इंगित किया है। अशोक के स्तंभ लेखों में धम्म की व्याख्या इस प्रकार की गई है- धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पाप रहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दान, दया तथा शुचिता । इसके साथ ही प्राणियों का वध न करना, जीव हिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर,
मित्र, संबंधियों ब्राह्मण तथा श्रमणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास के प्रति उचित व्यवहारा इन गुणों के अतिरिक्त शिष्य द्वारा गुरु का आदर भी धम्म के अंतर्गत माना गया है। एक अन्य स्थान पर अशोक ने अल्प व्यय तथा अल्प संग्रह को भी धम्म का अंग माना है। इसके साथ ही धम्म की प्रगति में बाधक पाप की भी व्याख्या की है- निष्ठुरता, क्रोध, ईर्ष्या आदि पाप के लक्षण हैं। इसके अतिरिक्त आत्म-परीक्षण पर बल दिया है।
वास्तव में अशोक का धम्म कोई संकीर्ण तथा साम्प्रदायिक धर्म नहीं था। अशोक के धार्मिक जीवन और विचारों पर कलिंग के युद्ध का बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।
इस युद्ध का उसके हृदय पर गहरा असर पड़ा और वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया। इसके पूर्व अशोक शैव था और उसे नरसंहार, पशुबलि से कोई विरोध नहीं था। सम्राट बनने के आठ वर्ष बाद तक वह इसी स्थिति में रहा। राज्यारोहण के नवें वर्ष उसने कलिंग के शक्तिशाली राज्य पर आक्रमण किया एवं भीषण संग्राम के पश्चम् उसे विजय प्राप्त हुई। युद्ध भूमि के करुण क्रंदन का उस पर प्रभाव पड़ा, उसका हृदय करुणा से भर गया तथा उसने भविष्य में युद्ध न करने का दृढ़ निश्चय किया। इसके पश्चात् वह बौद्ध भिक्षु के संपर्क में आया, बौद्ध धर्म के प्रति उसकी रुचि बढ़ गई और उसने बौद्ध मत ग्रहण कर लिया।
अशोक का धम्म क्या था, इस विषय में विद्वानों में कुछ मतभेद हैं। डॉ. आर.डी. भंडारकर के अनुसार “अशोक का धम्म धर्मनिरपेक्ष बौद्ध धर्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है।" डॉ. एन.के. शास्त्री ने लिखा, “अशोक ने बौद्ध धर्म को एक शुष्क बौद्धिक ज्ञान की खोज के स्थान पर एक आकर्षक, भावनात्मक एवं लोकप्रिय धर्म में परिवर्तित कर दिया। डॉ. स्मिथ ने लिखा, “अशोक का धम्म किसी एक संप्रदाय विशेष से संबंधित न था अपितु वह सभी भारतीय धर्मों के लिए समान था । "
जिन कारणों से अशोक के धम्म का निर्माण हुआ, उनमें यह आवश्यक था कि अपने व्यक्तिगत धर्म तथा उस धर्म में अंतर करता जिसे वह अपनी प्रजा में फैलाना चाहता था।
एक प्रकार से अशोक का व्यक्तिगत धर्म तो बौद्ध धर्म था, परंतु जिस धर्म को उसने अपनी प्रजा में फैलाने का प्रयत्न किया, वही उसका धर्म अथवा 'धम्म' कहे जाने का अधिकारी है। डॉ. रोमिला थापर ने लिखा है, “अशोक निश्चित ही बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुआ और उसका अनुयायी बन गया। लेकिन उसके समय का बौद्ध धर्म केवल एक धार्मिक विश्वास न था अपितु वह विभिन्न स्तरों पर समाज को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करने वाला एक कुशल राजनीतिज्ञ के लिए उससे समझौता करना आवश्यक था।"
उपर्युक्त आधारों पर अशोक ने अपने धर्म (धम्म) का निर्माण किया। 'धम्म' प्राकृत भाषा का शब्द हैं,
जिसे संस्कृत भाषा में धर्म कहते हैं। धर्म की व्याख्या अथवा उसका दर्शन अत्यंत विस्तृत है और उसी विस्तृत आधार पर अशोक ने अपने धर्म का निर्माण किया।
अशोक के बौद्ध होने का स्पष्ट प्रमाण उसके चतुर्दश शिलालेखों में से तेरहवें शिलालेख में मिलता है। अशोक ने बुद्ध मत के व्यावहारिक पक्ष के समर्थक सिद्धांतों का प्रचार आरंभ किया। उसके द्वारा प्रचार किए जाने वाले धर्म को 'अशोक का धम्म' कहा जाता है। अशोक का धम्म तत्कालीन सभी धर्मों का सार था। उस पर सभी धर्मों का प्रभाव था। उसके धम्म से अभिप्राय आचार के सर्वसम्मत नियमों से था। दया, दान,
सत्य, गुरुजन तथा माता-पिता की सेवा, अहिंसा आदि गुण ही अशोक के धम्म थे। उसने अनेक स्थानों पर जनता के साधारण व्यवहारों और धम्म व्यवहार में तुलना की है। उसने ऐसे नैतिक सिद्धांतों का प्रचार किया जिन्हें प्रत्येक जाति, धर्म तथा देश के व्यक्ति मान सकते थे। वस्तुतः अशोक ने जिस धर्म को अपनाया और प्रचार किया वह सर्वहितकारी तथा लोक कल्याणकारी धर्म था।
अशोक का धम्म अत्यधिक मानवीय था। इस धर्म के प्रचार से अशोक अपने साम्राज्य के लोगों में तथा बाहर अच्छे जीवन के आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था।
उसका अपने शासनकाल में निरंतर यह • प्रयास रहा कि प्रजा के सभी वर्गों और संप्रदायों के बीच सहमति का आधार बना रहे। उसके धम्म की सबसे बड़ी विशेषता सहिष्णुता की भावना थी। वह संसार की सभी जातियों और धर्मों में समन्वय स्थापित करना चाहता था। उसने पारंपरिक सहिष्णुता तथा श्रद्धा पर विशेष बल दिया और इन भावनाओं को दृढ़ करने के लिए कई मार्गों का प्रतिपादन किया। उसके अनुसार किसी भी धर्म की निंदा नहीं करनी चाहिए एवं सभी धर्मों के मूल तत्वों की अभिवृद्धि करने का प्रयास करना चाहिए। अपने धर्म के धार्मिक ग्रंथों का अनुशीलन करना चाहिए। अपने धर्म का आदर करना एवं दूसरे धर्मों का अनादर करने से अपने धर्म को हानि पहुँचती है, अतः दूसरे धर्मों का भी आदर करना चाहिए।
अशोक ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति को उपदेश तक ही सीमित नहीं रखा अपितु अपने जीवन में भी उसे पूर्ण रूप से चरितार्थ किया।
उसने अहिंसा के सिद्धांत को मनुष्य तक ही सीमित न रखते हुए पशु पक्षियों के जीवन को भी पवित्र माना।
अशोक के धर्म प्रचार के कार्य - बौद्ध धर्म अंगीकार करने के पश्चात् अशोक ने उसका विपुल प्रचार किया। उसके साम्राज्य में सभी धार्मिक संप्रदायों को अपना धर्म पालन करने की पूरी स्वतंत्रता प्राप्त थी परंतु फिर भी उसने साम्राज्य में तथा विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भारी प्रयत्न किए। कलिंग युद्ध के पश्चात् उसने यह प्रतिज्ञा ली थी कि वह रणघोष के स्थान पर धर्मघोष करेगा। अपने सप्तम अभिलेख में उसने कहा कि, “मैं धर्म की घोषणा करूंगा। धार्मिक शिक्षाओं का प्रचार करूंगा। जो लोग उसे सुनेंगे उसके अनुसार आचरण करने के लिए प्रेरित होंगे, उनका आध्यात्मिक विकास होगा और धर्म की वृद्धि के साथ उनकी वृद्धि होगी।" इस लेख द्वारा हमें अशोक के धर्मप्रचार के उद्देश्य का बोध होता है।
सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को राजधर्म के रूप में प्रतिष्ठापित किया। अशोक के उत्तराधिकारियों द्वारा भी इसे स्वीकार किए जाने के कारण यह धर्म बहुत वर्षों तक राजधर्म रहा। अशोक ने धर्मप्रचार के लिए बड़ी लगन और उत्साह से कार्य किए। अहिंसा के प्रचार के लिए कई कदम उठाए। उसने युद्ध बंद कर दिए और स्वयं को तथा राजकर्मचारियों को मानव मात्र के नैतिक उत्थान में लगाया। जीवों के वध रोकने के लिए हर संभव प्रयास किए। अशोक ने घोषणा की कि ऐसे सामाजिक उत्सव नहीं होने चाहिए जिनमें अनियंत्रित आमोद-प्रमोद हो, जैसे मांस भक्षण, मल्लयुद्ध, जानवरों की लड़ाई आदि। इनके स्थान पर धम्म सभाओं की व्यवस्था की गई, जिससे जनता में धम्म के प्रति अनुराग पैदा किए जाने का प्रयास होता था। अशोक ब्राह्मणों, श्रमणों को दान देता था।
धर्मविजय के लिए ही अशोक ने धर्म यात्राएँ प्रारंभ कीं। इससे पूर्व सम्राट आनंद व मौज के उद्देश्य से यात्राएँ करते थे, वे विहार-यात्राएँ करते थे। अशोक ने धर्म यात्राएँ प्रारंभ की। इनमें श्रमणों, ब्राह्मणों और वृद्धों का दर्शन, उन्हें दान देना, जनता के पास जाकर उसे उपदेश देना और धर्म विषयक विचार करना होता था। अपने राजकर्मचारियों को अशोक ने यह आदेश दिया कि वे जनता के कल्याण के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहें, किसी को अकारण दंड न दें और किसी के प्रति कठोरता का बर्ताव न करें।
अशोक ने एक नवीन प्रकार के कर्मचारियों की नियुक्ति की, जिन्हें धम्ममहामात्र कहा गया है।
इनका मुख्य कार्य जनता को धम्म की बातें समझाना, उनमें धम्म के प्रति रुचि पैदा करना था। वे समाज के सभी वर्गों के कल्याण तथा सुख के लिए कार्य करते थे। उनका कार्य धर्म के मामले में लोगों में सहमति बढ़ाना भी था। लोगों की अन्याय से रक्षा करना, कारावास के कैदियों को मुक्त कराना या उनका दंड कम करवाना भी उनका कार्य था। इस प्रकार स्पष्ट है कि धर्ममहामात्रों तथा उनके अधीनस्थ कर्मचारियों का कार्य सभी संप्रदायों में मेल कायम करवाना एवं जनता के हित और सुख के लिए यत्न करना था। ये धर्म महामात्र केवल मौर्य साम्राज्य में नहीं अपितु सीमां तवर्ती स्वतंत्र राज्यों में भी नियुक्त किए गए थे।
विदेशों में धर्म विजय के लिए जो महामात्र नियुक्त किए गए थे, वे अंत महामात्र कहलाते थे।
इनका कार्य उन देशों में सड़कें बनवाना, सड़कों पर वृक्ष लगवाना, कुएँ खुदवाना, प्याऊ बिठाना, पशुओं और मनुष्यों की चिकित्सा के लिए चिकित्सालय खुलवाना और इसी प्रकार के अन्य उपायों से जनता का हित और कल्याण संपादित करना था। अशोक के इन लोकहितकारी कार्यों के परिणामस्वरूप लोग महामात्रों को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे। अशोक इन परोपकारी कार्यों के द्वारा इन विदेशी राज्यों में अपना धर्म- साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुए। इन धर्म विजय की नीति के कारण ही अन्य देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया। इतने सुसंगठित रूप से कार्य करने के परिणामस्वरूप सम्राट को अपने उद्देश्य में आशा के अनुरूप सफलता मिली।
अशोक ने धम्म प्रचार के लिए विभिन्न साधनों का प्रयोग किया। उसने विभिन्न स्थानों पर शिलाओं तथा स्तंभों पर अपने विचारों को लिखवाया।
ये शिलोलख एवं स्तंभलेख उसके प्रचार के साधन बने। इन अभिलेखों को चार भागों में बाँटा जा सकता है- (1) चौदह शिलालेख- ये शाहबाजगढ़ी (पेशावर), मंसेहरा (हजारा), कालसी (देहरादून), गिरनार
(काठियावाड़), सोपारा (थाना) (मुंबई), धौली और जौगढ़ (उड़ीसा) तथा चेर्रागुड्डी (कुर्नूल जिला) में पाए गए हैं जिनकी कुल संख्या 14 है।
(2) लघु शिलालेख ये रूपनाथ (जबलपुर), वैराट (जयपुर), सहसराम (बिहार), मस्की (रायपुर), मैसूर में पाँच स्थानों पर, गुजरी (मध्य प्रदेश),
कुर्नूल में एक स्थान पर, उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर जिले में एक स्थान पर और एक आंध्र प्रदेश में प्राप्त हुए हैं। इनकी कुल संख्या 13 है।
(3) सात स्तंभ अभिलेख- ये भारत के पृथक-पृथक सात स्थानों पर प्राप्त हुए हैं। इनमें से एक स्तंभ को फिरोज शाह तुगलक दिल्ली ले गया था।
(4) अन्य अभिलेख - ये रूम्मिनदेई (लुंबिनीवन), तक्षशिला, जलालाबाद, बराबर आदि विभिन्न स्थानों पर पाए गए हैं।
तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन अपने शासनकाल के सतरहवें वर्ष में अशोक ने बौद्ध संघ की आंतरिक फूट को दूर करने के लिए साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में एक सभा बुलाई,
यह तृतीय बौद्ध संगीति थी। इसमें देश भर के बौद्ध भिक्षु शामिल हुए। इस संगीति का अध्यक्ष मोग्गलिपुत्र तिस्स (Moggaliputta-Tissa) थे। कुछ ग्रंथों में इसी को उपगुप्त भी लिखा गया। इस महासभा द्वारा भी यह प्रयत्न किया गया कि विविध बौद्ध संप्रदायों के मतभेदों को दूर कर सत्य सिद्धांतों का निर्णय किया जाए। इस कार्य के लिए आचार्य तिस्स द्वारा हजार विद्वान एवं अनुभवी भिक्षुओं का चुनाव किया गया। आचार्य तिस्स की अध्यक्षता में नौ मास तक इन भिक्षुओं की सभा होती रही। इस सभा में धर्म संबंधी विवादग्रस्त विषयों पर विचार हुआ। इस सभा ने बौद्ध धर्म में फैलती हुई फूट का विनाश किया और धर्म को दृढ़ता प्रदान की गई। इस सभा के बाद विदेशों में प्रचारक भेजने का कार्य तेजी से हुआ। अशोक के समय में पाटलिपुत्र में हुई इस महासभा और आचार्य तिस्स के पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म भारत से बहुत दूर-दूर तक के देशों में फैल गया।
विदेशों में धर्म प्रचार- बौद्ध धर्म के आंतरिक झगड़ों के समाप्त हो जाने और संघ में एकता स्थापित हो जाने पर आचार्य तिस्स ने देश-विदेश में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए एक महान योजना तैयार की। सम्राट अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं, भिक्षुणियों, धर्म प्रचारकों, उपदेशकों तथा यहाँ तक कि राज परिवार के सदस्यों को भी विदेशों में भेजा। ये सभी लंका, सुमात्रा, चीन, जापान, एशिया माइनर, यूनान और उत्तरी अफ्रीका के मिस्त्र आदि देश गए। सिंहल द्वीप जाने वाले जत्थे का नेतृत्व सम्राट अशोक के पुत्र राजकुमार महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा ने किया था। अपनी इस धर्म विजय के विषय में अशोक स्वयं कहता है कि "देवनामप्रिय धर्म के द्वारा इस विजय को मुख्य विजय समझता है। पड़ोसी देशों, यहाँ तक कि छह सौ योजन दूर के देशों में भी यह विजय देवनामप्रिय को मिली है।" ये बौद्ध प्रचारक अपने साथ अपने देश की सभ्यता और संस्कृति भी ले गए।
अशोक की धर्मनीति का प्रभाव- अशोक का धम्म रूढ़िवादी, कर्मकाण्ड नीति, दर्शनमूलक अथवा सूक्ष्मतत्वापेक्षी न था। वह तो अति सरल, विशुद्ध, व्यावहारिक और सर्वग्राह्य आचार तत्वों से समन्वित था। अशोक के अनुसार धार्मिक कलहों का प्रधान कारण धर्मों के कर्मकाण्ड होते हैं, जबकि आधारमूलक रूप सर्वत्र समान ही होता है। उसने धर्म विजय को साधारण विजय से अधिक कल्याणकर बताया है। अशोक का धम्म मानव जगत के लिए ही नहीं वरन् समस्त प्राणी जगत के लिए था। अतः उसने हिंसात्मक मनोरंजन के कारण विहारयात्राओं का परित्याग कर दिया। आम्र कुंज लगवाए, प्रति दो मील पर कुएँ खुदवाए, धर्मशालाएँ, जलशालाएँ बनवाई। उसने अपनी पाकशाला के लिए भी जीव हिंसा बंद करवा दी। उसके संपूर्ण शासन की आधार पीठिका धम्म थी। उसने अपने धम्म में अधिकांशतः उन्हीं सिद्धांतों का समावेश किया था, जो उसके साम्राज्य के विभिन्न संप्रदायों को भी मान्य हों।
अशोक द्वारा बौद्ध धर्म को स्वीकार करने का भारत के इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा। साम्राज्य विस्तार की नीति को त्याग कर धर्म विजय को लक्ष्य बनाकर उसने भारतीय इतिहास को एक नई दिशा दी। अशोक ने मात्र इस धर्म को अपनाया ही नहीं, अपितु इसका बड़ा धर्म प्रचारक हो गया। उसने विदेशों में भी धर्म प्रचारक भेजे, जिसके परिणामस्वरूप भारतीयों का बाहरी देशों के साथ संपर्क स्थापित हुआ। इसके साथ ही वैचारिक आदान-प्रदान एवं व्यापारिक संबंध भी कायम हुए। एक प्रकार से भारत के संबंध का क्रमिक इतिहास यहाँ से शुरु होता है। राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण बौद्ध धर्म फलने-फूलने लगा, अन्यथा संभव है कि यह धर्म धीरे-धीरे लुप्त हो गया होता। अशोक के आश्रय दिए जाने के कारण यह एक सशक्त आंदोलन के रूप में आगे बढ़ा।
भारत के कई पड़ोसी देशों में आज भी बौद्ध धर्म प्रचलित है। लंका, बर्मा, श्याम (थाइलैंड) आदि देशों से भारत के संबंध के पीछे बौद्ध धर्म का प्रमुख हाथ था। तत्कालीन भारत को तो इसने प्रभावित किया ही, साथ ही आधुनिक काल के इतिहास को भी प्रभावित किया है।
इन सभी प्रभावों के साथ अशोक की धार्मिक नीति का एक प्रमुख दुष्परिणाम भी निकला। अशोक की धर्म विजय और अहिंसा की नीति के फलस्वरूप मौर्य समाज की सैनिक शक्ति क्षीण हो गई और वह पतनोन्मुख हो गया।
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