बिंदुसार - Bindusar
बिंदुसार - Bindusar
चंद्रगुप्त मौर्य के पश्चात् उसका पुत्र बिंदुसार 298 ई.पू. में सिंहासन पर बैठा। उसका शासनकाल भारतीय इतिहास में कोई विशेष महत्व नहीं रखता, इसका कारण यह भी है कि उसके समय के इतिहास के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। जैन और बौद्ध स्रोतों के अनुसार चंद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् भी कुछ समय के लिए चाणक्य जीवित रहा, अतः बिंदुसार के प्रारंभिक समय में उसी की नीति चलती रही।
बिंदुसार ने अपने पिता की दिग्विजय नीति का अनुसरण किया। उसने पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों के की संपूर्ण भूमि पर आधिपत्य स्थापित किया।
अनेक विद्वानों के अनुसार सम्राट चंद्रगुप्त के शासनकाल में ही पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों के बीच के विस्तृत क्षेत्र पर मौर्यों का आधिपत्य हो गया था। संभावना है कि इन नगरों में विद्रोह हो गया था, परंतु चाणक्य की नीति द्वारा इसका दमन कर दिया गया।
बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान के अनुसार उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला तथा उसके आसपास के प्रदेशों में बिंदुसार के शासनकाल में विद्रोह हुआ था। उस समय बिंदुसार का ज्येष्ठ पुत्र सुशीम वहाँ का प्रांतीय शासक था।
सुशीम उस विद्रोह को दबाने में सफल नहीं हुआ, तब बिंदुसार ने उज्जयिनी के शासक अशोक को विद्रोह दबाने के लिए भेजा। अशोक ने तक्षशिला जाकर विद्रोह का दमन किया। इस विवरण से इस तथ्य की पुष्टि होती हैं कि बिंदुसार अपने पिता से प्राप्त विशाल साम्राज्य की रक्षा करने में सफल रहा। चाहे उसने नवीन राज्य को विजित कर अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार न भी किया हो, परंतु वह समस्त उत्तरी भारत के साथ-साथ दक्षिणी भारत का भी स्वामी था।
बिंदुसार ने अपने पैतृक साम्राज्य को अक्षुण्ण रखने के साथ ही अपने पिता द्वारा प्रतिपादित विदेशनीति का भी अनुसरण किया।
उसके समय में सीरियन साम्राज्य का स्वामी अतिओकस सोटर प्रथम था, जो सेल्युकस का उत्तराधिकारी था। उसने मेगास्थनीज़ की जगह डायमेक्स को अपना राजदूत बनाकर पाटलिपुत्र भेजा था। इसके बारे में यूनानी लेखकों ने चर्चा की है। इस काल में ही बिंदुसार एवं मिस्र के राजा के बीच मित्रवत संबंध की चर्चा भी मिलती है। इन सारी बातों से यह स्पष्ट होता है कि सम्राट बिंदुसार की नीति पड़ोसी राजाओं के साथ संपर्क बनाए रखने की थी।
पुराणों के अनुसार बिंदुसार ने 25 वर्ष तक राज्य किया। अतः उसका शासनकाल 298 ई.पू. से 272 ई.पू. तक रहा।
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