चंद्रगुप्त का उदय - Rise of Chandragupta
चंद्रगुप्त का उदय - Rise of Chandragupta
बौद्ध अनुश्रुतियों का सहारा चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन पर प्रकाश डालने के लिए लिया जाता है, जिसके अनुसार चंद्रगुप्त के पिता ने उनकी माँ को असहाय अवस्था में छोड़ दिया था। उन्होंने पाटलिपुत्र में जाकर आश्रय लिया और वहाँ एक बालक को जन्म दिया, जिसे चरवाहे ने पाला। चरवाहे ने बाद में उसे एक शिकारी के हाथों बेच दिया। चंद्रगुप्त इस शिकारी के यहाँ रहते हुए गाँव के बच्चों से मिलकर राजसी खेल खेला करता था। एक दिन इसी प्रकार राजा बन कर वह जनता से न्याय करने का अभिनय कर रहा था। उसी समय चाणक्य उस मार्ग से गुजर रहा था, वह छू खड़ा रह कर सारा खेले देख रहा था। वह चंद्रगुप्त की सहज प्रतिभा से अत्यंत प्रभावित हुआ। उसने चंद्रगुप्त को शिकारी से मोल ले लिया। इसके बाद चाणक्य उसे तक्षशिला ले गया और थोड़े ही समय में उसे आवश्यक शिक्षाओं से संपन्न कर दिया।
चाणक्य तक्षशिला के प्रसिद्ध आचार्य थे, वे वेदों के ज्ञाता, शास्त्र पारंगत, मंत्रविद्या में निपुण थे। वे एक बार तक्षशिला से पाटलिपुत्र आए, उन्हें आशा थी कि मगध का प्रतापी सम्राट धनानंद उनका सम्मान करेगा। धनानंद ने चाणक्य का अपमान किया तो उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि वह नंद वंश का नाश कर डालेगा। चाणक्य ने जो प्रतिज्ञा सबके सामने की थी, उसे पूरा करने में वे पूरी शक्ति के साथ लग गए। इस कार्य में चंद्रगुप्त उसका प्रधान सहायक था।
महावंश की कथा के अनुसार चाणक्य और चंद्रगुप्त ने नंदवंश का नाश करने के उद्देश्य से पहले मगध के नगरों और ग्रामों पर आक्रमण करना शुरु कर दिया था।
पर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। फिर वे मगध साम्राज्य के सीमांत पर गए और वहाँ की राजनीतिक परिस्थिति से लाभ उठाकर उन्होंने पश्चिमी भारत को सिकंदर की अधीनता से मुक्त किया। 323 ई.पू. में सिकंदर की मृत्यु हो गई थी और पंजाब में यवन-शासन के विरुद्ध विद्रोह शुरु हो गया था। चाणक्य और चंद्रगुप्त इस विद्रोह के नेता थे। पंजाब और पश्चिमी भारत को यवनों की अधीनता से मुक्त कर चाणक्य और चंद्रगुप्त ने उन्हें एक शासनसूत्र में संगठित किया और फिर भारत के इस सीमांत की सेना की सहायता से मगध साम्राज्य को अपने अधीन किया। नंद को मारकर चंद्रगुप्त स्वयं मगध के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ और इस प्रकार उसने संपूर्ण उत्तरी भारत में एक साम्राज्य की स्थापना की 321 ई. पू. में चंद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर आसीन हुआ।
सेल्यूकस के साथ संघर्ष
चंद्रगुप्त का अंतिम संघर्ष सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस के साथ हुआ। जिस समय चंद्रगुप्त भारत को विजय करने में लगा हुआ था उसी समय पश्चिम एशिया में सेल्यूकस भारत पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा था। सेल्यूकस सिकंदर के उन सेनानायकों में था, जिन्होंने उसकी मृत्यु के बाद उसके साम्राज्य को आपस में बाँट लिया था। उसने सिकंदर का अनुकरण करते हुए 305 ई.पू. में भारत पर आक्रमण कर दिया। इधर चंद्रगुप्त भी सावधान था, सिंध के तट पर दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ। सेल्यूकस पराजित हुआ और उसे चंद्रगुप्त के साथ संधि करनी पड़ी। इस संधि की चार शर्तें थीं-
1. वर्तमान अफगानिस्तान तथा बलुचिस्तान का संपूर्ण प्रदेश सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को दे दिया।
2. सेल्यूकस ने अपनी कन्या का विवाह चंद्रगुप्त के साथ कर दिया।
3. चंद्रगुप्त ने पाँच सौ हाथी उपहार के रूप में सेल्यूकस को भेंट किए।
4. एक यूनानी राजदूत मेगास्थनीज़ पाटलिपुत्र में आया।
चंद्रगुप्त की इस विजय का एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि उत्तर पश्चिम में चंद्रगुप्त के साम्राज्य की एक निश्चित भौगोलिक सीमा निर्धारित हो गई। इसके फलस्वरूप चंद्रगुप्त का राज्य काफी विस्तृत हो गया। उसका विशाल साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में मैसूर तक तथा पूर्व में कामरूप से लेकर पश्चिम में हिरात, काबुल, कंधार, बलुचिस्तान तक फैला हुआ था। उसके साम्राज्य की सीमाएँ हिन्दू कुश पर्वत के पश्चिम में दूर तक फैली हुई फारस की सीमा को स्पर्श कर रही थीं। इससे पहले भारत में इतना बड़ा साम्राज्य किसी राजा ने कायम नहीं किया था।
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