उन्नीसवीं सदीं में विधवा पुनर्विवाह - Widow Remarriage in the Nineteenth Century

 उन्नीसवीं सदीं में विधवा पुनर्विवाह - Widow Remarriage in the Nineteenth Century


यह ब्रह्म समाज के कार्य क्षेत्रों में एक अत्यंत प्रमुख मुद्दा तथा उसने इसे लोकपिय बनाने हेतु सराहनीय कार्य किया। लेकिन इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान ईश्वरचंद विद्यासागर (1820-91) का था। ईश्वरचंद विद्यासागर संस्कृत कालेज कलकत्ता के आचार्य थे। उन्होंने संस्कृत और वैदिक उल्लेखों से यह सिद्ध किया कि वेद, विधवा पुर्नविवाह की अनुमति देते हैं। उन्होंने लगभग 1,000 हस्ताक्षरों से युक्त एक प्रार्थना पत्र सरकार को भेजा। अंततः उनके प्रयत्नों से 1856 में हिंदू विधवा पुर्नविवाह अधिनियम बना, जिसके अनुसार विधवा विवाह को वैध मान लिया गया और ऐसे विवाह से उत्पन्न हुये बच्चे वैध घोषित किये गये।

महाराष्ट्र में जगन्नाथ शंकर सेठ एवं भाऊ दाजीने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। विष्णु शास्त्री पंडितने 1850 में विधवा पुर्नविवाह एसोसिएशन की स्थापना की। 1852 में गुजरात में सत्य प्रकाश की स्थापना करके करसोनदास मूलजी ने भी विधवा पुर्नविवाह की दिशा में सराहनीय प्रयत्न किये।


इसी प्रकार के प्रयास बंबई में फर्ग्युसन कालेज के प्रोफेसर दी. के. कर्वे एवं मद्रास में वीरेशलिंगम पंतुलुने भी किये। प्रो. कर्वे ने विधुर होने पर 1893 में स्वयं एक विधवा से विवाह किया। वे 'विधवा पुर्नविवाह संघ के सचिव थे। 1899 में उन्होंने पूना में एक विधवा आश्रम स्थापित किया। जिसमें विधवाओं को जीविकोपार्जन के साधन प्रदान किये जाते थे।

1906 में उन्होंने बंबई में भारतीय महिला विश्वविद्यालयकी स्थापना की। भारत में पहला कानूनी विधवा पुर्नविवाह 7 दिसम्बर 1856 को कलकत्ता में संपन्न हुआ। इसके साथ ही बी.एम. मालाबारी, नर्मदा, जस्टिस गोविंद महादेव रानाडे एवं के. नटराजन ने भी विधवा पुनर्विवाह की दिशा में सराहनीय प्रयास किये।


उन्नीसवी सदी की शुरुआत में जहां मिशनरी स्कूलों में अधिकांश लड़कियां गरीब परिवारों की थी वहीं इन नए खुले स्कूलों में ऊंची जातियों की लड़कियां पढ़ने गई। बंगाल में उस समय जनाना [अंतःपुर] या अंदरमहल के नाम से जाने वाले स्थानों पर भी स्त्रियों की प्रौढ़ शिक्षा के लिए इन आंदोलनकारियों ने धावा बोला।

'गृह शिक्षा' आंदोलन के नाम से मशहूर इस आंदोलन की शुरुवात अंग्रेज़ स्कॉटलैंड तथा उत्तरी अमेरिकी मिशनरियों द्वारा की गई जिसमें कुछ वर्षों बाद सवर्ण भी शामिल हो गए। कुछ समय पश्चात सवर्णों ने पाठ्यक्रम को बंगाली आवश्यकताओं के अनुसार तैयार कर लिया।


उन्नीसवीं सदी के मध्य में बंबई प्रेसीडेसी में सुधार आंदोलन उभरे जिसकी शुरुआत 'दकियानूसी पुजारियों' और 'जातिवादी संस्थानों पर हमलों से हुई। बंगाल में शुरुवाती हमले रूढ़िवादी हिंदूरीति-रिवाजों पर शास्त्रार्थ के रूप में हुए तथा इसके पश्चात सुधार आधारित संगठनों तथा स्कूलों एवं गृहों जैसे संस्थानों की स्थापना की गई।

1850 के दशक में समाज सुधार आंदोलनों के खिलाफ रूढ़िवादी हिंदुओं की प्रतिक्रिया में उल्लेखनीय तेजी आयी । यह तेजी आंशिक तौर पर इन अभियानों की बढ़ती ताकत के स्वाभाविक विरोध के सिद्धांत पर और आंशिक रूप से यह प्रतिक्रिया अंग्रेजों द्वारा दी जा रही इन आंदोलनकारियों को समर्थन के कारण आयी क्योंकि रूढ़िवादियों का मानना था कि यूरोपीय लोग हिंदुओं को अपमानित करने के लिए आंदोलनकारियों को ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे है। अन्य समाज सुधारकों की भांति ईश्वरचंद्र विधासागर ने 1850 में विधवा पुनर्विवाह पर लगे प्रतिबंध को समाप्त करने के लिए अभियान चलाया और उन्होंने बांग्ला में एक पुस्तिका प्रकाशित की जिसमें कहा गया कि विधवा पुनर्विवाह शास्त्र सम्मत है। विद्यासागर ने अपनी पुस्तिका का अंग्रेजी में अनुवाद किया और उसकी प्रतियाँ अंग्रेज अधिकारियों को दी।

उनकी सलाह पर विद्यासागर ने 1855 में भारत के गवर्नर जनरल को विधवा पुनर्विवाह के लिए कानून बनाने के लिए एक याचिका दी। याचिका में दलील दी गयी कि ऐसे अनेक हिंदू थे जिन्होंने विधवा पुनर्विवाह पर अमल किया किंतु अब वे ऐसा इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रितानी सरकार के अधीन अदालतों ने इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया है। इसके अलावा विधवा पुनर्विवाह पर लगाया गया प्रतिबंध नैतिक संकट उत्पन्न करता है।


ग्रांट ने बिक के समर्थन में विधवा पुनर्विवाह के निश्चित जैविक कारण बताते हुए तर्क दिए। इसके पश्चात उन्होंने अनुभूत साक्ष्यों के आधार पर इसके नैतिक कारण बताए।

उनका मानना था कि विधव पुनर्विवाह पर प्रतिबंध अपरिहार्य रूप से विधवाओं को नैतिक पतन एवं पापाचार की ओर उन्मुख करता है। यह अनिवार्य रूप से खतरनाक पैमाने पर अवैध संतानोत्पत्ति एवं गर्भपात का कारण बनता है इन औरतों ने अपरिहार्य रूप से अपने आप को भ्रष्ट एवं दुश्चरित्र गतिविधियों में लिप्त कर लिया है। इन स्त्रियों पर लागू किया जाने वाले कठोर एवं अप्राकृतिक कानूनों से उन्हें भ्रष्ट एवं पतित होने से नहीं बचाया जा सकता। इसके साथ ही ऐसे कानूनों के कारण उन स्त्रियों की भी बदनामी होती है जिनके साथ ये विधवाएँ संबन्धित होती है।


यद्यपि 1856 में कानून पारित कर दिया गया किंतु इसके परिणामस्वरूप बहुत कम पुनर्विवाह हुए।

समाज सुधारकों ने खुद भी इसे एक मुर्दा पत्र की संज्ञा दी। जहां उन्नीसवीं सदी के पूर्वाध में समाज के पतन के लिए स्त्रियों को जिम्मेदार ठहराया गया वही उन्नीसवी सर्दी के उत्तरार्ध में सामाजिक पतन के लिए बच्चों की ओर इशारा किया गया। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में यह विचार तेजी से उभरा कि औद्यौगिकीकरण के परिणामस्वरूप बाल श्रमिकों की दशा इतनी दयनीय हो गयी है की बाल मजदूरों की जीवन स्थिति में सुधार लाने के लिए यूरोप सरीखे सुधार आंदोलनों की आवश्यकता है। 1880 में भारत में इन विचारों के विकास पर दो आंदोलन रोशनी डाल सकते है। जो दो महत्वपूर्ण आंदोलन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में उभरे उनमें से एक था औद्योगिक श्रमिकों की दशा में सुधार के लिए फैक्ट्री कानून बनाए जाने की मांग का आंदोलन एवं दूसरा था बाल विवाह विरोधी आंदोलन।


1875 में बंबई सरकार ने कानून की आवश्यकता की जांच करने के लिए एक श्रम आयोग गठित किया। हालांकि आयोग के अधिकांश सदस्यों का मत था कि कारखाना कानून की कोई आवश्यकता नहीं है, परंतु संसद तथा अखबारों में उनको सदस्यों अपनी राय बदलने के लिए राजी करने की बहस जारी थी। पहला भारतीय फैक्ट्री कानून 1881 में पारित किया गया जिसमें वयस्क तथा बाल श्रमिकों में भेद करते हुए व्याख्या कि गई कि 12 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति बाल कहलाएगा। भारत सरकार ने 1890 तथा 1891 में अन्य फैक्ट्री कमीशन का गठन किया जिसके परिणामस्वरूप इंडियन फैक्ट्रीज [अमेंडमेंट] एक्ट बना। नए कानून के अनुसार 'बाल' का अर्थ है वह व्यक्ति जिसकी आयु 14 वर्ष से कम हो उनकी नौकरी की न्यूनतम आयु सात वर्ष से बढ़ाकर नौ वर्ष कर दी गई। राष्ट्रवादी आंदोलन वाला स्त्री आंदोलन: बन गयी स्त्री की राष्ट्रमाता छवि


भारतीय स्वतंत्रता आंदलनों का मूल ढांचा पितृसत्तात्मक राष्ट्रवाद का है लेकिन भारत में स्त्री आदलनों भी इसी ढांचे के साथ विकसित होता हुआ दिखाई देता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के दौरान विकसित होते हुए स्त्री आंदलनों को भारत के तत्कालीन राष्ट्रवादी आदलनों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है, लेकिन कई स्तरों पर उनके अपने संघर्ष भी रहे हैं। इस संघर्ष की शुरुआत वहीं से स्पष्ट होने लगती है जब राष्ट्रवादी आदलनों के अगुआ स्त्री की तत्कालीन दिशा में सुधार तो लाना चाहते हैं लेकिन उसे परंपरागत परिवार के दायरे में सीमित रखकर और सामाजिक स्तर पर स्त्री की राष्ट्रमाता की छवि निर्मित करके। जहाँ न तो स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व है और न ही उसकी अस्मिता।