लोक-साहित्य : शिक्षा-व्यवस्था - Folklore: Education System

लोक-साहित्य : शिक्षा-व्यवस्था - Folklore: Education System

लोक-साहित्य मौखिक रूप से समाज के ज्ञानचक्षु का उन्मीलन करता रहा है। महर्षि अरविन्द का कथन है- "भारत में शिक्षा, राष्ट्रीय सिद्धान्तों पर भी सर्वोत्तम, सर्वाधिक शक्तिशाली, अंतरंग और जीवनपूर्ण है, लोक उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम है।" एक लोक गीत में सामाजिक घोषणा है कि अब मिथिला वाले अवध वालों को अपनी बेटी नहीं देंगे -


अब मिला अपनी बेटी ना दई है, बलु बेटी रहि है कुंआर अवध के लोग बड़ा निरमोही तिरिया कदर नाहीं जाने जब मोरी बेटी रहली गरभ से हो, अवध दियो बनवास । बेटी के मोरी लियो अगिन परीक्षा, तबो दियो घर से निकार । अइसन अवधिया के बेटी ना दिहों, बलू बेटी रखि हो कुँआर ।


कविता की मारक क्षमता अद्भुत होती है। शिक्षा देने की इससे सशक्त मारक क्षमता भला क्या हो सकती है। एक दूसरा उदाहरण है, जब स्वयं सीता कहती हैं-


अइसन राम के मुँह नाहीं देखब,


बलू जइवों धरती समाय । मुख देखते पाप ली मोही लागे, गरभ दिया बनवास ॥ फाटी के धरतीया बेबस होइ गइली,


सिया गइली धरती समाय ।


दहेज आदि के लिए स्त्रियों की हत्या करना, उन्हें जीवित जला देना को देखकर बेटी का पिता पूरे समाज से विद्रोह करता है और लोक गीत में कहता है-


जो हम जनती बेटी लागी हीत यारी, तोहके रखर्ती कुँआर । चाहे जमाना देत हमरा के गारी हो, तोहके रखती कुंआर । जेतना केहू बेटवा के दूध-भ -भात खिलाबल, ओतना मोर बेटी दिल्ली छींटि ओसारी।


हो बेटी रखती कुँआर....।


यह मार्मिक कथन वास्तविक समाज द्वारा प्रदत्त शिक्षा है जो किसी भी पाषाणहृदय व्यक्ति को पिघला दे। जो एक छोटे से गीत के स्वर- कथ्य एवं संवेदनात्मक प्रस्तुति द्वारा समूचे समाज के तिमिर में बन्द नेत्र का उन्मीलन कर देना लोकसाहित्य की शिक्षा-व्यवस्था है।