लोक-साहित्य राष्ट्र- एकता - Folklore Nation-Unity

लोक-साहित्य राष्ट्र- एकता - Folklore Nation-Unity


भारत की सभी भाषाओं के लोक-साहित्य अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि हमारा देश तात्त्विक आधार पर एक ही है। लोक-गीतों में राष्ट्रीय एकता, भावात्मक मौलिक ऐक्य भाव, सांस्कृतिक जुड़ाव का सुदृढ ठोस आधार निहित है। इसी को लक्ष्य कर डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का कथन है कि भले ही आकाश के खण्ड हो सके किन्तु भारतीय स्त्री- हृदय जिन आदर्शों एवं भावनाओं से प्रतिपादित है, उनका बँटवारा नहीं हो सकता। भारतीय स्त्री ही अधिकांश लोक-गीतों की कवयित्री ऋषि है। उसके सुरीले कण्ठ की अमृत ध्वनि गीतों के रूप में मूर्त है। इस मंगलमयी गीत की भाषा के अनेक रूप हैं किन्तु उनमें छिपे हुए अर्थों का रूप एक ही है।

आज जिस कौमी एकता की आवश्यकता महसूस की जा रही है वह एकता बिना किसी मिलावट या रुकावट के लोक-गीतों में विद्यमान है । सन् 1971 युद्ध का नायक कैप्टन अब्दुल हमीद आज भी गाजीपुर-मऊ क्षेत्र के लोक-गीतों में जीवन्त रूप से साँस ले रहा है-


अब्दुल हमीद एक यहीं का मुसलमान था, लोड़ दिया टैंक सारे, हुआ देश पर कुर्बान था...।


ऐसे अनेक वीरों की गाथाएँ जो जन-मानस के कण्ठ में विराजती हैं, शुद्ध रूप से राष्ट्रीयता को प्रस्तुत करती हैं। अब्दुल हमीद की शौर्यगाथा जितना महिमापूर्ण ढंग से लोक-गीतों में है, शायद ही इतिहास के पन्नों में उसे उस रूप में लिखा गया है।

लोक अपना नायक बिना किसी भूमिका के चुन लेता है और उसके वर्णन में वह बड़े ही स्वाभाविक ढंग से सभी वर्जनाओं को तोड़ देता है। लोक गीतों के बारीक धागे में समूचे राष्ट्र की मणियों को पिरोया जा सकता है। यह न केवल आज के परिवेश में प्रासंगिक है अपितु समकालीन साहित्य को पूर्णरूप से परिभाषित करने का सामर्थ्य भी रखता है। सन् 1971 में जब देश पर घोर संकट आया तो समूचा जनमानस आन्दोलित हो उठा था । घर-घर से किसानों- मज़दूरों के बच्चे सेना में भर्ती के लिए उठ खड़े हुए थे। उसका आह्वान लोक गीतों में कुछ इस प्रकार हुआ था-


माई हो ललनवाँ देइद, बहिनी हो बीरनवाँ देइद, सीमाँ पर लड़े खातिर, धनिया हो, सजनवाँ देइद... ।