हिन्दी की जनपदीय राजस्थानी बोली के लोक-साहित्य का परिचय - Introduction to the folk literature of the regional Rajasthani dialect of Hindi
हिन्दी की जनपदीय राजस्थानी बोली के लोक-साहित्य का परिचय - Introduction to the folk literature of the regional Rajasthani dialect of Hindi
जनपदीय बोलियों में लोक-साहित्य का सर्वाधिक अनुसन्धानानुरूप राजस्थानी भाषा में मिलता है। राजस्थानी का प्रयोग अनेक स्थानों पर मारवाड़ी कहकर किया गया है। मरुस्थलीय प्रदेश होने के कारण कई स्थानों पर मरुभाषा का भी प्रयोग मिलता है। कहा जाता है कि 16वीं शताब्दी तक राजस्थानी और गुजराती कोई भिन्न भाषा न होकर एक ही भाषा के रूप में जानी जाती थी। मालवी का भाषा साहित्य भी राजस्थानी भाषा परिवार के अन्तर्गत ही आता है। राजस्थानी लोक-साहित्य और इसकी संस्कृति का इतिहास बहुत पुराना है। सन्त सान्निध्य के कारण विशेषकर जैन सन्तों के कारण राजस्थानी परिवेश सन्त काव्य की प्रवृत्ति से प्रभावित होता गया।
इन सन्तों ने लोकभाषा के महत्त्व को समझकर जिस साहित्य का सृजन किया, वह लोकभाषा में था । वर्तमान परिस्थिति में भी राजस्थानी संस्कृति अपनी लोकसभ्यता से दूर नहीं हो पायी है जिसके कारण यहाँ का लोक-साहित्य आज भी यहाँ के जनमानस के बीच प्रासंगिक है। राजस्थानी भाषा में सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप विपुल मात्रा में लोक गीत, नाटक, मुहावरे, कहावतें आदि प्रचलित हैं।
1. लोक गीत :
लोक-गीतों का सम्बन्ध विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक प्रसंगों से है। इन लोकगीतों के गायन के प्रसंग भी भिन्न-भिन्न होते हैं।
गर्भधारण से लेकर मृत्युपर्यन्त के षोडश संस्कारों को लोक गीत अपने में समाहित किये हुए है। विविध प्रसंगों के साथ ही मेहनत-मजदूरी करते समय भी लोक मानस द्वारा इन लोक-गीतों को गुनगुनाते हुए देखा जा सकता है। राजस्थानी लोक गीतों के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न प्रकार के लोक गीत प्रचलित हैं। मंगल प्रसंगों पर मंगलगान बच्चे के जन्मदिन, शादी-ब्याह, विदाई यहाँ तक कि मृत्यु प्रसंगों पर रुदाली नामक लोक- गीतों का प्रसंगानुरूप गायन होता है। लोकगीतों को ऋतुवर्णन, श्रमगीत, धार्मिक संस्कारों से सम्बन्धित गीत, स्त्रियों के शृंगार गीत (जिनमें संयोग और वियोग की स्थितियों का वर्णन किया जाता है), बाल गीत, धार्मिक गीत आदि श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।
श्रावण अर्थात् सावन मास में महिलाएँ स्थानीय भाषा में ऋतुगान करती हैं। लोक गीत गायन के साथ सावन माह का स्वागत होता है। सावन के आते ही धरा मानों सोलह शृंगार कर लेती है। बाग-बगीचे अपने सौन्दर्य की छटा बिखेरने लगते हैं। तब सावन के झूलों के गीत गाये जाते हैं। प्रोषित पतिका स्त्रियाँ प्रिय के वियोग में पपीहे के बहाने लोक गीत गायन कर अपना वियोग वर्णित करती हैं। इसे पपड़या गीत कहते हैं। पपइया का एक उदाहरण देखिए-
भँवर बागों में आइज्यो जी, बागों में नार अकेली पपइयो बोल्यो जी। सुन्दर गोरी किस विध आऊँ जी, ओ जी म्हारी मरणी नार अकेली ।
और भी,
मोरनी बागाँ मां बोले आधी रात मां ।
तीज और होली के अवसर पर भी लोक-गीतों का गायन किया जाता है जिसे राजस्थानी में फाग कहा जाता है। एक उदाहरण देखिए-
रसिया रस लूटो होली में,
राम रंग पिचुकार, भरो सुरति की झोली में
राजस्थानी लोक-गीतों में श्रमगीतों का प्रचलन भी है। खेत में घर में परिश्रम करते हुए ये श्रमगीत गाये जाते हैं।
राजस्थान में खेत में काम करते समय जो श्रमगीत गाया जाता है उसे भगत कहते हैं। इन गीतों का स्वरूप अन्य भाषाओं के लोक गीतों जैसा ही होता है।
इसके अतिरिक्त संस्कार गीतों में बच्चे के जन्म के समय जो गीत गाया जाता है उसे जच्चा अर्थात् सोहर कहते हैं।
विवाह के समय बनड़ा, बाने बैठना, बड़ा विनायक, चाक पूजन, रातिजोगो, देवी गीत, सती गीत, विवाह के समय भाँवरे, ओळू अर्थात् विदाई आदि अवसरों पर प्रसंगानुरूप गीत गायन होता है । बनड़ी का उदाहरण देखिए -
आ तो बाबुल के रे बागा की बहार बनड़ी। बनड़ी रूपा री गनगोरा के उनिहार बनड़ी ॥
गाँवों में विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ समय-समय पर दस्तक देती रहती हैं। इनमें से कई संसर्गजन्य भी होती हैं। ऐसी ही एक बीमारी है, 'चेचक'। चेचक आने पर सेडल माता के गीत गाये जाने का प्रचलन है। ऐसी मान्यता है कि इन गीतों के गायन से माता की कृपा होती है और चेचक दूर हो जाती है। यानी चेचक आदि बीमारियों को दूर करने के लिए भी लोक गीत गाया जाता है।
इसके अलावा बच्चों को बहलाने-फुसलाने आदि के समय बाल-गीतों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार राजस्थानी लोक संस्कृति में भिन्न-भिन्न अवसरानुकूल लोक-गीतों का प्रचलन मिलता है।
2. लोक गाथा:
राजस्थानी लोक-साहित्य में लोक गाथाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राजस्थानी लोक गाथाएँ अपने स्वरूप और विषय में पर्याप्त भिन्नता लिये हुए हैं। लोक-गाथाएँ कथावस्तु प्रधान होने के कारण आकार में लोक- गीतों से अपेक्षाकृत बड़ी होती हैं। लोक गाथा में गायन भी है और कथन भी इसमें किसी चरित्र विशेष के व्यक्तित्व और कृतित्व का बखान किया जाता है। चरितमूलक लोक गाथाओं के गायन में काफी समय लगता है और प्रायः ये वीर रस से ओतप्रोत रहती हैं। पाबूजी री पड़ राजस्थानी लोक मानस की अत्यन्त प्रिय लोक गाथा हैं। अपनी कर्त्तव्यपरायणता के कारण पाबूजी राजस्थानी संस्कृति में देवतुल्य प्रतिष्ठित हैं।
राजस्थानी की विभिन्न उपभाषाओं तथा स्थानीय बोलियों में अन्य अनेक लोक गाथाएँ प्रचलित हैं, जिनमें से कवि कल्लोल- कृत 'ढोला मारू रा दूहा', पद्मा तेली महेश्वरी-कृत 'रुक्मिणी मंगल', 'कृष्ण-रुक्मिणी रो ब्यावलो', रतना खाती- कृत 'नरसीजी रो मायरो', श्री गणपति स्वामी कृत 'जीणमाता रो गीत' आदि लोक गाथाएँ समय-समय पर प्रकाशित भी हुई हैं।
कवि कल्लोल- कृत 'ढोला मारू रा दूहा' को हिन्दी में सम्पादित कर पुस्तक की भूमिका में लोक-साहित्य की महत्ता की चर्चा की गई है।
इस कृति का सम्पादन श्री नरोत्तमदास स्वामी, श्री सूर्यकरण पारीक और श्री रामसिंह द्वारा किया गया था। 'ढोला मारू रा दूहा' एक प्रेमकथा है। जिसमें ढोला का विवाह मारू के साथ बचपन में ही हो जाता है। किन्तु समय व्यतीत होने के साथ बड़े होते-होते ढोला मारू को भूल जाता है। कालान्तर में उसका दूसरा विवाह मालवणी से हो जाता है। मालवणी मारू के रूप सौन्दर्य से भली-भाँति परिचित है इसलिए वह मारू का कोई भी पत्र या सन्देश ढोला तक नहीं पहुँचने देती। एक बार मारू स्वप्न में अपने पति ढोला को देखकर व्याकुल हो उठती है। अपने बेटी की हालत देखकर मारू के पिता और पूँगल के राजा एक चतुर गायक नरवर को ढोला के यहाँ भेजते हैं जो अपनी गायकी के माध्यम से मारू का सन्देश ढोला तक पहुँचाने में सफल हो जाता है।
नरवर का गायन सुनकर ढोला को अपने बचपन के विवाह की स्मृति हो उठती है और वह अपनी पत्नी मारू को लाने पूँगल की ओर प्रस्थान करता है। इधर मालवणी उसे कई प्रकार से रोकने का प्रयास करती है लेकिन ढोला नहीं मानता। मारू ढोला को देखकर अत्यन्त आनन्दित हो जाती है जिसके बाद ढोला मारू को लेकर अपने राज्य नरवर की ओर प्रस्थान करता है। राह में उमर सूमरा ढोला और मारू के बीच कण्टक बनकर मारू को प्राप्त करने के लिए उनका पीछा करता है परन्तु ढोला अपने ऊँट पर सवार होकर बड़ी ही तेज गति से वहाँ से निकल पाने में कामयाब हो ही जाता है। इस प्रकार वह अपने राज्य नरवर पहुँचकर अपनी पत्नी मालवणी को भी मना लेता है और दोनों ही रानियाँ ढोला के साथ हँसी-खुशी रहने लगती हैं। ढोला को रिझाने के लिए ढाढ़ी (ढोली) द्वारा गाये गए कुछ दोहे उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं-
आँखड़ियाँ डंबर भई, नयण गमाया रोय।
क्यूँ साजण परदेस में, रह्या बिंडाणा होय ॥
दुज्जण बयण न साँभरी मना न वीसारेह कूँझाँ लालबचाह ज्यूँ, खिण खिण चीतारेह ॥
3. लोक-कथाएँ :
राजस्थानी लोक-साहित्य में लोक-कथाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। जनसामान्य के मनोरंजन का साधन होने के साथ ही ये लोक कथाएँ अपनी संस्कृति, सभ्यता तथा इतिहास से परिचित भी कराती हैं।
ये लोक- कथाएँ बच्चों को चिन्तन-मनन हेतु प्रेरित करती हैं। किशोरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के साथ बड़े बुजुर्गों के आनन्द- हर्ष का साधन भी होती हैं। विभिन्न व्रतों, पूजा-पाठ आदि के अवसरों पर लोक कथाएँ कही सुनी जाती हैं । ये लोक-कथाएँ प्रायः प्रत्येक समाज और धर्म में प्रचलित हैं जिनमें किसी विशिष्ट व्यक्ति की उत्कृष्टता के कारण उसे प्राप्त यश पुण्यादि की कथा कहकर, श्रोताओं में अनुकरणीय कार्य करने की प्रवृत्ति विकसित की जाती है। राजा भोज री बात, गोदड़ की कहानी आदि लोक-कथाएँ राजस्थानी लोक-साहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं । इसी प्रकार व्रतों एवं त्योहारों के आयोजन में भी इसी प्रकार की लोक कथाएँ अन्तर्निहित हैं जो जनजीवन और जनमानस को नियन्त्रित और संतुलित रखती हैं।
4. लोक नाट्य :
राजस्थानी लोक-साहित्य में लोकनाटकों का भी अपना विशिष्ट महत्त्व है। नृत्य और संगीत के सान्निध्य के कारण ये अपेक्षाकृत अधिक मनोरंजक होते हैं। विभिन्न पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों की कथाओं पर आधारित ये लोक नाट्य आज भी गाँवों में प्रचलित हैं। लोक नाट्य में सामान्य जनजीवन से सम्बन्धित और लोक संस्कृति में व्याप्त जनकथाओं का ही मंचन किया जाता है जिनमें विशेष तौर पर ऐतिहासिक चरित्रों पर आधारित लोक नाट्य अधिक प्रचलित हैं। इनमें वास्तविकता और कल्पना का अद्भुत समन्वय होता है।
कभी- कभी ऐतिहासिक यथार्थ की तुलना में कल्पना के आधिक्य के कारण इन लोक कथाओं में अतिशयोक्ति का समाहन भी देखने को मिलता है किन्तु अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति अत्यधिक श्रद्धाभाव के कारण इनका वह प्रस्तुतीकरण भी दर्शकों को खूब भाता है। प्रायः मेले, धार्मिक-सामाजिक सम्मेलन आदि आयोजनों के अवसर पर इन लोक-नाटकों का मंचन किया जाता है। धार्मिक घटनाओं, सामाजिक प्रसंगों और ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित ये नाटक जनसामान्य का मनोरंजन करते हैं।
राजस्थान में 'रामलीला', 'पाबूजी री पड़', 'रावलियाँ री रम्मत' आदि लोक नाट्य खूब खेले जाते हैं।
'पाबूजी री पड़' ऐतिहासिक कथावस्तु पर आधारित लोक नाटक है। जिसमें पाबूजी के जीवन पर आधारित विशेष घटनाक्रमों को एक लम्बे से कपड़े पर दिखाया जाता है। पाबूजी की घटनाओं को बताने के लिए भोपा भोपी पात्र हाथ में मशाल लेकर अभिनय करते हुए घटनाओं के चित्र दिखाते हुए उनके जीवनचरित का गान करते हैं। बताया जाता है कि पाबूजी राठौड़ घुड़सवारी के बड़े शौकीन थे। इसी शौक के कारण उन्हें देवल चारण की घोड़ी पसंद आ जाती है। देवल चारण को पाबूजी वचन देते हैं कि वे उसकी गायों की रक्षा करेंगे। पाबूजी के विवाह के दौरान पाबूजी का बहनोई देवल चारण की गायों को घेरकर उन्हें हथियाने का प्रयास करता है।
देवल चारण गायों की रक्षार्थ पाबूजी को पुकारती है। उधर पाबूजी के विवाह की भाँवर चल रही होती है परन्तु देवल चारण की आवाज सुनकर वे व्याकुल होकर अपना वचन निभाने चल पड़ते हैं। पाबूजी के रिश्तेदार उन्हें बहुत समझाते- बुझाते हैं परन्तु अपने प्रण को निभाने के लिए वे उनकी एक नहीं सुनते और विवाह संस्कार को अधूरा छोड़कर प्रस्थान करते हैं। गायों की रक्षार्थ अपने बहनोई जींदराव से भीषण युद्ध के दौरान वे शहीद हो जाते हैं। उनकी इसी कर्त्तव्यपरायणता को इस लोक नाटक में अभिव्यंजित किया जाता है।
रावलियाँ री रम्मत लोक नाट्य का प्रचलन अकबर के जमाने से है। बनिया, किसन गुजरी, बीकाजी, संन्यासी आदि का स्वांग रचते हुए रावलियाँ री रम्मतलोक नाट्य का अभिनय किया जाता है।
5. प्रकीर्ण साहित्य :
विभिन्न लोकोक्तियों और मुहावरों का समावेश प्रकीर्ण साहित्य के अन्तर्गत किया जाता है। कुछ कहावतों के उदाहरण देखिए-
जिसो खावे अन्न विसो हुवे मन्न।
अर्थात् जिस प्रकार की कमाई का अन्न खाया जाता है, व्यक्ति का मन और उसके भाव भी उसी प्रकार के हो जाते हैं।
ऊँचा चढ़ चढ़ देखो, घर घर ओही लेखो।
अर्थात् व्यापक दृष्टि से देखोगे तो पाओगे कि घर-घर की यही कहानी है।
वस्तुतः ये कहावतें दीर्घकाल के अनुभूत सत्यों पर आधारित हैं और इसी कारण इनकी प्रासंगिकता आज भी है। साहित्य में जिन मुहावरों और कहावतों का प्रयोग किया जाता है वह दीर्घकालीन अनुभूत सत्य और संचित ज्ञान का परिणाम है।
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