कामायनी का महाकाव्यत्व - Kamayani's epic poem
साहित्यशास्त्रों में महाकाव्य के लक्षणों की विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार विशद् व्याख्या की है। महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं-
i. महाकाव्य का आधार विशाल होता है। उसका कथानक पौराणिक अथवा ऐतिहासिक होना चाहिए।
ii. महाकाव्य का नायक धीरोदात्त होना चाहिए। शौर्य, पराक्रम, स्थिरता आदि उसके चरित्र के प्रधान अंग
हों। उसमें चारित्रिक गरिमा एवं औदात्य भी होना चाहिए।
iii. महाकाव्य सर्गबद्ध होना चाहिए। सर्गों की संख्या कम से कम आठ होनी चाहिए। iv. महाकाव्य का प्रमुख रस शृंगार, वीर अथवा शान्त होना चाहिए।
V. प्रकृति के रमणीय दृश्यों यथा प्रातः, संध्या, रजनी, चन्द्रिका, मनोहर स्थलों जैसे सरोवर, -
उपवन के साथ-साथ मृगया, युद्ध आदि कार्यों का भी यथास्थान वर्णन होना चाहिए।
vi. प्रासंगिक कथाएँ मुख्य कथावस्तु से पूर्णरूप से सम्बन्धित तथा संक्षिप्त होनी चाहिए।
vii. महाकाव्य का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनमें से कोई भी होना चाहिए। लौकिक अभ्युदय के साथ- साथ लोक स्वभाव का भी वर्णन होना चाहिए।
पाश्चात्य काव्यशास्त्र के अनुसार महाकाव्य की निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं. -
1. महाकाव्य में महान् कथा होती है। ii. महाकाव्य की मूल घटना महान् होनी चाहिए।
iii. महाकाव्य में महान् घटनाएँ प्रसंग के रूप में होनी चाहिए।
iv. महाकाव्य की महान घटनाओं से जिन पात्रों का सम्बन्ध हो, वे भी महान् हो ।
V. सार्वभौम प्रभाव होना चाहिए।
vi. उसकी वर्णन शैली उत्तम होनी चाहिए।
vii. महाकाव्य का उद्देश्य महान् होना चाहिए।
महाकाव्य के भारतीय तथा पाश्चात्य लक्षणों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों में पर्याप्त साम्य है। डॉ०
नगेन्द्र कामायनी के महाकाव्यत्व पर विचार करते हुए कहते हैं- 'स्वदेश' विदेश के काव्यशास्त्र में निर्दिष्ट महाकाव्य के लक्षणों की गणना प्रस्तुत सन्दर्भ में कदाचित् सार्थक न होगी। इसलिए मैं महाकाव्य के उन्हीं तत्त्वों को लेकर चलूंगा जो देशकाल सापेक्ष नहीं है,
जिसके अभाव में किसी भी देश अथवा युग की कोई रचना महाकाव्य नहीं बन सकती और जिनके सद्भाव में परम्परागत शास्त्रीय लक्षणों की बाधा होने पर भी किसी कृति को महाकाव्य के गौरव से वंचित नहीं किया जा सकता। "24
कामायनी में प्रसादजी ने शास्त्रीय रूढ़ियों का अनुगमन नहीं किया है। उनकी रचना में शास्त्रीय सस्कार तो है किन्तु उसकी आत्मा कवि के मानसिक संगठन एवं जीवनदृष्टि के आधार पर निर्मित हुई है। इसलिए कामायनी के महाकाव्यत्व का मूल्यांकन हम शास्त्रीय लक्षणों के आधार पर न करके उसमें निहित काव्य-तत्त्वों की महनीयता के आधार पर करेंगे। प्रायः महाकाव्यों की रचना में कथानक, नायक, चरित्र चित्रण, प्रकृति-वर्णन, युग चित्रण, भाव और रस तथा शैली आदि उपादानों का संगठन किया जाता है।
कथावस्तु
'कामायनी' की कथावस्तु पौराणिक एवं प्रागैतिहासिक है। कामायनी की कथा ऋग्वेद, पुराणों, शतपथ ब्राह्मण आदि से ग्रहण की गई है। प्रसादजी ने प्राचीन ग्रन्थों की बिखरी हुई कथाओं को समेटकर अपनी कल्पना शक्ति से एक धागे में पिरोकर कामायनी का सृजन किया। इसकी कथा मानव सभ्यता का विकास करने वाले आदि पुरुष मनु और श्रद्धा की कथा है। इस कथा का बहुत महत्त्व है।
कामायनी में प्रलय से बचे मनु का नये सिरे से याज्ञिक संस्कृति की प्रतिष्ठा, श्रद्धा के साथ दाम्पत्य सूत्र में बँधना, गृहस्थ जीवन के प्रतीक के स्वरूप पशु-पालन, पुत्र-जन्म, श्रद्धा से विरक्ति होने के कारण गृह-त्याग,
सारस्वत प्रदेश में गमन इड़ा के प्रदेश का शासन एवं उनके नगर को पुनः बसाना तथा उनकी उन्नति करना, इडा पर बलात्कार के प्रयत्न के पश्चात् प्रजाजनों से संघर्ष, युद्ध में मूर्च्छित हो जाने पर पुनः श्रद्धा से भेंट फिर उसके साथ कैलाश की यात्रा, नटराज के दर्शन एवं तत्त्वज्ञान के साथ आनन्द की स्थिति प्राप्त करना, इस प्रकार पूर्ण कथा हो गई है। सीमित पात्र होने के कारण उसे अधिकाधिक एवं प्रासंगिक कथाओं में बाँटना सम्भव नहीं है। किरात एवं आकुलि के नेतृत्व में सारस्वत प्रदेश में होने वाला विप्लव पृथक् कथा न होकर मूल कथा का ही एक अंग है क्योंकि उसी युद्ध में वे मारे जाते हैं। वहीं उनकी कथा समाप्त हो जाती है। "कामायनी का कथानक लघु होते हुए भी एक महाकाव्य के अनुकूल है, उसमें मनु और श्रद्धा की जीवन गाथा के सहारे आधुनिक मानव के बौद्धिक एवं भावात्मक चित्र अंकित किये गए हैं,
जिनमें यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया गया है और जो समग्र मानव जीवन के अन्तर्बाह्य स्वरूप की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। "25 डॉ. नगेन्द्र का कथन है- "अन्य महाकाव्य जहाँ मानव सभ्यता के खण्ड चित्र प्रस्तुत कर रह जाते हैं, वहाँ कामायनीकार ने उसका समग्र चित्र प्रस्तुत करने का साहसपूर्ण प्रयास किया है। यह प्रयास पूर्ण नहीं हुआ, किन्तु इसका परिधि-विस्तार इतना अधिक है कि अपनी अपूर्णता में भी यह अद्भुत है असामान्य है। *26 -
नायक
कामायनी महाकाव्य के नायक मनु हैं। वे देव पुरुष हैं। उच्चवंश के हैं। परन्तु उनमें धीरोदात्तता के दर्शन नहीं होते । प्रसाद ने नायक मनु को मानव रूप में दर्शाया है। मनु में मानवीय शक्ति और दुर्बलताएँ दोनों विद्यमान हैं। मनु के प्रतीक भी हैं इसलिए उनके व्यक्तित्व में मानसिक प्रवृत्तियों को दिखाना आवश्यक था ।
कामायनीकार ने पहले मनु की दुर्बलताओं का चित्रण किया है। फिर उत्तरोत्तर उन्हें ऊपर उठाया है। वे दुर्बलताओं पर विजय श्रद्धा के माध्यम से प्राप्त करते हैं। फिर श्रद्धामय हो जाते हैं। अन्ततः श्रद्धा के ही माध्यम से आनन्द भूमि तक पहुँचते हैं। नायक मनु में जातीय गुण विद्यमान हैं। कामायनी नायकप्रधान महाकाव्य न होकर नायिकाप्रधान महाकाव्य है। एक ओर मनु में जहाँ निर्बलता और सबलता दोनों विद्यमान हैं वहीं श्रद्धा में मात्र उच्चगुणों का समावेश है। श्रद्धा में नायिका के समस्त गुण विद्यमान हैं। "वह दया, माया, ममता, मधुरिमा और अगाध विश्वास की प्रतिमूर्ति है। उसमें प्रारम्भ से अन्त तक सभी गुण रहते हैं।"
सर्ग
कामायनी में 'सर्गबद्धो महाकाव्यम्' लक्षणांश सर्वथा घटित होता है। कामायनी में 'चिन्ता' से लेकर 'आनन्द' तक पन्द्रह सर्ग हैं।
प्रकृति-चित्रण
प्रसादजी ने कामायनी में प्रकृति को बड़ी आत्मीयता के साथ देखा है। वे इसके बीच हँसते-खेलते हुए पाए जाते हैं।
कामायनी में प्रकृति-चित्रण के सारे रूप पाए जाते हैं परन्तु प्रसाद ने प्रायः प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण किया। जिसमें एक जिज्ञासा भी विद्यमान है जो उनकी अपनी विशेषता है और वह उन्हें रीतिकालीन कवियों से ऊपर उठा देती है। कामायनी में वन, निर्झर, नदी, पर्वत आदि अनेक प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन है साथ ही एक महाकाव्य के लिए अपेक्षित सभी प्रकार के चित्र सुलभ हैं। प्रसाद के प्रकृति-चित्रण की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने उसे मानवीय चेतना से युक्त कर दिया है। शैव दर्शन के प्रभाव से उन्होंने प्रकृति में एक चेतन तत्त्व माना है। "प्रसाद ने प्रकृति-वर्णन करते हुए केवल वस्तुओं की गणना नहीं की है उनका संश्लिष्ट चित्र अंकित किया है। उनकी दृष्टि में प्रकृति के अन्तर्गत एक ऐसी चेतना सम्पन्न विराट् सत्ता विराजमान है,
जिसके उदर में वन, गिरि, नदी, निर्झर सभी समाये हुए हैं, जो समयानुकूल परिवर्तनों द्वारा अद्भुत घटा विकीर्ण किया करती है तथा जो अपने अद्भुत दृश्यों एवं आश्चर्यजनक लीलाओं द्वारा अलौकिक आनन्द प्रदान करती है। "27 प्रसाद का यह दृष्टिकोण उनके सभी प्रकृति चित्रों में लक्षित है। 'चिन्ता' सर्ग में प्रकृति अपने भयंकर रूप में आती है-
दिग्दाहों से धूम उठे, या जलधर उठे क्षितिज तट के ! सघन गगन में भीम प्रकम्पन, झंझा के चलते झटके। 28
भाव एवं रस
कामायनी में सभी रसों का परिपाक हुआ है। इसका प्रधान रस शृंगार है साथ ही शान्त रस से लेकर वात्सल्य रस भी सुनियोजित रूप में मिलते हैं।
प्रासंगिक रूप में आए अंगभूत रसों का निर्वाह उन्हीं स्थलों तक सीमित रहा है। श्रद्धा के साथ मिलन और परिणय-बन्धन एवं उसकी गर्भावस्था तक संयोग शृंगार का परिपाक हुआ है। ईर्ष्या से लेकर मनु के पलायन, श्रद्धा के विरह-वर्णन में वियोग शृंगार है। वियोग शृंगार के मान और प्रवास दो पक्ष इसमें है । शृंगार का स्थायी भाव रति, सौन्दर्य के द्वारा जाग्रत् होता है। प्रसादजी ने श्रद्धा का जो वर्णन किया है, उससे इसमें शृंगार के अंगी रस होने की बात सिद्ध हो जाती है। श्रद्धा सर्ग में देखिए -
घिर रहे थे घुंघराले बाल अंस अवलम्बित मुख के पास; नील घन- शावक से सुकुमार सुधा भरने को विधु के पास और उस मुख पर वह मुसक्यान! रक्त किसलय पर ले विश्राम- अरुण की एक किरण अम्लान अधिक अलसाई हो अभिराम । 29
यज्ञ में पशुवध के कारण श्रद्धा के दुःख में करुण रस है। सारस्वत प्रदेश में हुं कार और युद्ध में वीर रस है । मनु पुत्र के प्रति श्रद्धा की भावकुशलता वात्सल्य का विषय है। दर्शन से आनन्द तक शान्त रस का स्थल है। अद्भुत रस की योजना कवि ने प्रकृति-वर्णन में, श्रद्धा के रूपवर्णन में और बाद में 'दर्शन' सर्ग में की है।
उद्देश्य
कामायनी की रचना में प्रसाद का प्रारम्भिक उद्देश्य था, 'मानव को आध्यात्मिकता की ओर ले जाना।' इसकी पूर्ति के लिए मनु का जीवन हमारे सामने आता है। मनु द्वारा पाक यज्ञ, मैत्रावरुण, यज्ञ के अनुष्ठान में पुरानी याज्ञिक संस्कृति के अनुसार धर्मप्राप्ति है। श्रद्धा और मनु के प्रणय-बन्धन व कामव्यापार में काम की, इड़ा सर्ग से लेकर संघर्ष तक अर्थ की और शेष में मोक्ष की योजना है।
निष्कर्ष
कामायनी महाकाव्य प्राचीन शास्त्रीय रूढ़ियों से बँधा हुआ नहीं है। इसमें भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों ही काव्यदृष्टियों का संश्लिष्ट विधान के अनुसार एक अभिनव प्रयोग किया गया है। इसमें भौतिक घटनाओं का विकास नहीं हुआ है। मानव चेतना के विकास को लेकर चलने के कारण, भौतिक धरातल पर घटित होने वाली घटनाओं की संकुलता नहीं है। डॉ० द्वारिकाप्रसाद सक्सेना के अनुसार "कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस - महाकाव्य में अधिक विस्तार न होते हुए भी अपनी लघु सीमा में ही मानवता के समग्र रूप, उसकी समस्याओं एवं उसके समाधानों को एक उत्कृष्ट एवं भव्य साहित्यिक शैली में चित्रित करने का जो प्रयत्न हुआ है, वह सर्वथा सराहनीय है, और इन सभी विशेषताओं के आधार पर 'कामायनी' को आधुनिक युग का एक प्रतिनिधि महाकाव्य कहा जा सकता है।
रूपकत्व
'कामायनी' में रूपकत्व का संकेत स्वयं प्रसाद ने उसके आमुख में दो स्थलों पर किया है। एक स्थल पर आपने लिखा है – “यदि श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है, तो भी बड़ा भावमय और श्लाघ्य है। यह मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने में समर्थ हो सकता है।" इसके बाद आपने इड़ा का ऐतिहासिक-पौराणिक इतिवृत्त देते हुए उसे बुद्धि का प्रतीक बताया और उसके बुद्धिवाद को श्रद्धा और मनु के बीच व्यवधान माना। उन्हीं के शब्दों में "यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया । इसलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए, सांकेतिक अर्थ को भी अभिव्यक्त करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का सम्बन्ध क्रमशः श्रद्धा और इड़ा से भी सरलता से लग जाता है।
31 अतः 'कामयानी' में एक ओर मनु श्रद्धा की इतिहाससम्मत कहानी कही गई है दूसरी ओर मानवता का मनोवैज्ञानिक इतिहास भी प्रस्तुत है। कवि ने जिस प्रकार के रूपक तत्त्व की ओर संकेत किया है वह अंग्रेजी के 'एलिगरी' शब्द से अधिक स्पष्ट होता है। 'एलिगरी' शब्द में एक ओर तो अभिधात्मक इतिवृत्त को लेकर ऐतिहासिक कथा चलती है दूसरी ओर किसी दार्शनिक या मनोवैज्ञानिक तत्त्व को लेकर परोक्ष कथा विकसित होती है।
प्रसाद ने कामायनी में आदिपुरुष मनु और आकिसी श्रद्धा के संयोग से मानव सृष्टि का सृजन दर्शाया है। दूसरी तरफ मन के दोनों पक्षों बुद्धि और हृदय के पूर्ण सामंजस्य द्वारा जीव को समरसता की आनन्दमयी स्थिति तक पहुँचाया है। दोनों कथाओं में प्रगाढ़ सम्बन्ध है ।
इतना गहरा सम्बन्ध रूपक तत्त्व में ही विद्यमान रहता है। पात्रों की दृष्टि से कामायनी में मनु, श्रद्धा और इड़ा प्रमुख पात्र हैं। मनु और श्रद्धा का पुत्र कुमार तथा असुर पुरोहित आकुलि और किलात गौण पात्र हैं। काम और लज्जा अशरीरी हैं। केवल इनकी वाणियाँ ही सुनाई देती हैं।
मनु
मनु 'मन' के प्रतीक हैं। स्वयं प्रसादजी ने मनु की 'मनन शक्ति' का निर्देशन आमुख में किया है। मन के प्रतीक होने के कारण मनु मनोमय कोश में स्थित जीव के प्रतीक हो जाते हैं। व्याकरण में 'मन्यते अनेत इति मनु' की निरुक्ति के द्वारा जिससे मनन किया जाय, वही मन या मनु है।
इस प्रकार यहाँ मन और मनु को एकार्थक माना गया है । मन से तात्पर्य उस चेतना से है जो मूलतः अहंकारमयी, चंचल, स्वच्छन्द, संघर्षमयी, असंतुष्ट, चिन्ताशील रहने वाली होती है। मनु प्रारम्भ से ही चिन्ताशील मुद्रा में सामने आते हैं। वे चिन्ता और अहंकार के कारण संकल्प और विकल्प के पलड़े में झूलते रहते हैं। आदि से अन्त तक इनका यह रूप देखने को मिलता है। चिन्ता सर्ग में उनके यह भाव स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं-
चिन्ता - कातर वदन हो रहा पौरुष जिसमें ओत प्रोत, उधर उपेक्षामय यौवन का बहता भीतर मधुमय स्रोत ।
श्रद्धा
श्रद्धा विश्वासमयी है। विश्व हृदय की अनुभूति है। प्रसाद ने श्रद्धा को 'हृदय' का प्रतीक माना है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के 151 वें सूक्त के चतुर्थ मन्त्र में श्रद्धा की महिमा का आख्यान करते हुए लिखा गया है- "श्रद्धां हृदय्याकृत्या श्रद्धया विन्दते वसु।" अर्थात् मनुष्य हृदय में स्थित आकूति (इच्छा-संकल्प) के द्वारा श्रद्धा प्राप्त होती
है और श्रद्धा के द्वारा सब प्रकार की समृद्धि, सम्पत्ति प्राप्त होती है, वह जीवन में सब प्रकार से स्थित और सफल होता है। श्रद्धा कामायनी में दया, माया, ममता, मधुरिमा तथा विश्वास से पूर्ण है। यह सब हृदय की उदात्त वृत्तियाँ हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे विश्वासमयी रागात्मिका वृत्ति कहा है। कामायनी में इसे हम प्रारम्भ से अन्त तक इसी रूप में पाते हैं और मनु रूप मन पूर्ण श्रद्धायुक्त हो जाता है तब उसे आत्मानन्द की प्राप्ति होती है। श्रद्धा ही मनु को इस आत्मानन्द शिवत्व तक पहुँचाती है।
दिया, माया, ममता लो आज, मधुरिमा लो, अगाध विश्वास; हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास।
इड़ा
इड़ा का सम्बन्ध मन की दूसरी वृत्ति बुद्धि से है। जिसमें तर्क, ज्ञान-विज्ञान का समावेश किया गया है। यह अपने बुद्धि-बल से ऐश्वर्य भोग तथा भौतिक सुखों की प्राप्ति कराती है। इसमें हृदय पक्ष का अभाव है। चिन्ता, सर्ग प्रसादजी ने इसे 'बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिन्ता' आदि अनेक नाम-भेद-रूपा कहा है। इस दृष्टि से बुद्धि 'पुण्य सृष्टि में सुन्दर पाप' रूप में मनुष्य के जीवन में उपस्थित रहती है। उसी के कारण 'गृह-कक्ष' में 'हरी भरी दौड़-धूप' प्रारम्भ होती है। मनु के जीवन में इड़ा इसी दौड़-धूप की केन्द्र बनती है।
कुमार
श्रद्धा और मनु का पुत्र कुमार है। वह देव द्वन्द्व का प्रतीक है।
श्रद्धा ने इसे इड़ा से तर्कशीलता अपनाकर, निर्भय कर्म करने, सबका सम्पात हरने, नये ढंग से मानव का भाग्योदय करने एवं सबकी समरसता प्रचार करने का आदेश दिया है। इस प्रकार कुमार (श्रद्धा-मनु-इड़ा से समरस) 'नव मानव' का प्रतीक बनता है।
जल प्लावन
कामायनी में देव जलप्लावन, श्रद्धा का पशु वृषभ, मानसरोवर तथा कैलाश पर्वत भी अपने सांकेतिक अर्थ देते हैं। देव इन्द्रियों के प्रतीक हैं। इन्द्रियाँ सदैव विषयों की ओर जाती हैं। यही स्थिति देवों की है-
अरी उपेक्षा भरी अमरते ! री अतृप्ति ! निर्बाध विलास !
जलप्लावन को वासनामय, अन्नमय कोश माना गया है। जीवन जब आनन्दमय कोश की ओर न जाकर अन्नमय कोश में ही रहता है तब उसकी चेतना माया में लिप्त हो जाती है।
मानसरोवर
कैलाश शिखर पर स्थित यह सरोवर सांसारिक माया से ग्रस्त मानव को निर्मलता प्रदान करता है। जो मन की समरसता का प्रतीक है। 'कैलाश पर्वत' आनन्दमय कोश का प्रतीक है। जहाँ मनु श्रद्धा के साथ पहुँचकर
अखण्ड आनन्द को प्राप्त करते हैं। 'त्रिकोण' इच्छा-ज्ञान एवं क्रियावृत्ति का प्रतीक है।
कामायनी के समस्त प्रतीक अधोलिखित रूप में प्रस्तुत हैं-
मनु
मन
श्रद्धा
हृदय
इड़ा
जल प्लावन
बुद्धि
वासना
मानसरोवर
कैलाश पर्वत
समरसता
अखण्ड आनन्द
आकुलि किरात :
बुरी प्रवृत्तियाँ
सोमलता
वृषभ
भोग
धर्म
देव
इन्द्रियाँ
त्रिकोण
इच्छा, ज्ञान, कर्म प्रवृत्तियाँ
श्रद्धा का पशु
करुणा, अहिंसा की भावना से युक्त निरीह प्राणी
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