प्राकृतिक सौन्दर्य - natural beauty

प्रसादजी काव्य-रचना के प्रारम्भिक काल से एक प्रकार से लताच्छादित पर्वतश्रेणी, नक्षत्रमण्डित गगन, उन्मादकारिणी रात्रि, संध्या सुन्दरी, उषा आदि उपादानों के माध्यम से प्रकृति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म सौन्दर्य का चित्रण करते आ रहे हैं। उस समय भी उन्हें शीतल जल से मुख धोती अलसाई वनस्पतियाँ, स्वर्ण-शालियों की कलमें, सुनहरे तीर बरसती जय लक्ष्मी सी उषा, शिला-सन्धियाँ से टकराते पवन, प्राची में फैलते मधुर राग विश्वकल्पना से उच्च हिमालय,

खिलखिलाती रात्रि, प्राची में फैलते मधुर राग, निर्जन स्थल, बहती सरिता, अरुण जलज के सर से मन बहलाने वाली संध्या आदि में सौन्दर्य छलकता दिखाई पड़ता है। छायावादी परम्परा में मानवीकरण का प्रमुख स्थान है। इस रूप में प्रकृति को चेतन और सप्रमाण मानकर उसकी मानवीय भावनाओं का चित्रण किया जाता है। जल प्लावन के मध्य में पृथ्वी एक टापू सदृश दिखाई पड़ती है। उसका मानवीकरण कितना सरल एवं सजीव है -


सिन्धु सेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी सी; प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये सी ऐंठी सी। 36