समरसतावादी दृष्टि - syncretistic approach

दो का मिलकर एक हो जाना समरसता है। एक नदी सागर से मिलकर समरस हो जाती है। "जब योगी को यह प्रतीति होने लगती है कि न तो मैं हूँ, न कोई मुझसे अन्य है; न कोई ध्याता है और न कोई ध्येय है, अपितु सर्वत्र एक शिवरूप ही विद्यमान है, तब उसका मन आनन्द पद-संलीन हो जाता है। योगी की इसी स्थिति को समरसता कहते हैं।" नरहरि स्वामी ने 'बोधसार' में लिखा है "जाते समरसानन्दे द्वैतमप्यमृतोपमम् । मित्रयोरिव दाम्पत्यो जीवात्मपरमात्मनोः ।" अर्थात् जिस प्रकार परस्पर अत्यन्त प्रेम करने वाले दम्पति का द्वैतभाव दोनों के 'समरस' हो जाने पर अत्यन्त आनन्ददायक हो जाता है, उसी तरह जीवात्मा तथा परमात्मा के समरस हो जाने पर अखण्ड आनन्द की अवस्था प्राप्त होती है, उसी अवस्था को 'समरसता' कहते हैं।


"समरसता शैव दर्शन का सिद्धान्त है और वही उपनिषद् में अद्वैत का रूप लेता है। अध्यात्म का केन्द्रीय संघर्ष प्रकृति और पुरुष का है। देवताओं का विनाश इसी कारण हुआ था। सांख्य में प्रकृति पुरुष के इस संघर्ष पर विशेष रोशनी डाली गई है। 42 सांख्यकारिका 10/11 में यह स्पष्ट है कि सत्त्व, तम, रज गुणों में साम्यावस्थारूप प्रकृति के कारण रहित, नित्य, व्यापक, निष्क्रिय, एकाकी, निराश्रित, स्वतन्त्र, विवेकरहित, सामान्य, अचेतन और प्रसवधर्मिणी है। पुरुष इसके विपरीत त्रिगुणातीत, विवेकमय, चेतन, अविकारी और नित्य है। इन दोनों विरोधों के मिलन और समन्वय से सृष्टि होती है। सृजन के लिए विरोध परमावश्यक है क्योंकि उसमें विरोधों का समन्वीकरण होना अनिवार्य है।

कामायनी एक ऐसे आदर्श की स्थापना करती है जिसमें प्रकृति और पुरुष का अन्तर्विरोध नहीं रहता है। श्रद्धा सर्ग में प्रसाद ने लिखा है-


विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पन्दित विश्व महान् यही दुःख-सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान । नित्य समरसता का अधिकार, उमड़ता कारण जलधि समान; व्यथा की नीली लहरों बीच बिखरते सुख मणि गण द्युतिमान !13


'विषमता' शब्द का प्रयोग प्रसाद ने समरसता के विलोम के रूप में किया है। विषमता के अन्तर्गत जीवन मैं सुख-दुःख, पाप-पुण्य का भेद पृथक्-पृथक् बना रहता है। जिसमें सुख-दुःख, ग्राह्य ग्राहक, मूढ भाव आदि उपस्थित रहते हैं। इसके विपरीत समरसता में सुख-दुःख, पाप-पुण्य सब घुल-मिल जाते हैं,

लीन हो जाते हैं। एकमात्र आनन्दरूप परमार्थतत्त्व ही शेष रह जाता है। 'स्पन्दकारिका' के अनुसार "न दुःखं न सुखं यत्र नग्राह्यं ग्राहको न च । न चास्ति मूढभावोऽपि तदस्ति परमार्थतः ॥" प्रसादजी की पंक्तियों में 'भूमा' शब्द का प्रयोग हुआ है जो अतिशयता या बहुत्व का द्योतक है- "अतिशयेन बहु इति भूमा । " छान्दोग्य उपनिषद् में नारद तथा सनत्कुमार के प्रसंग में इस शब्द का प्रयोग हुआ है - "यो वै भूमा तत्सुखम् । नाल्पे सुखमस्ति भूमा वै सुखम्।" जो भूमा है वही सुख है, अल्प में सुख नहीं है। भूमा अल्प के विरुद्ध बहुत्व, विराट् या ब्रह्म का सूचक है। कामायनीकार 'विषमता' को 'भूमा का मधुमय दान' कहते हैं। इस माधुर्यपूर्ण सृष्टि का सृजन विराट् सत्ता द्वारा हुआ है।

इस सृष्टि का निर्माण तब हुआ जब 'भूमा' अपनी साम्यावस्था से हटकर विषमावस्था को प्राप्त हुई। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में कहा गया है यह कार्य उसकी इच्छा के अनुसार हुआ 'स्वेच्छया स्वभितौ विश्वमुन्मीलयति ।' विराट् सत्ता (चित्ति) ने 'विषमता' को इसलिए स्वीकार किया कि वह, उपनिषदों के 'एकोहम् बहुस्यामि' के अनुसार, एक से अनेक होना चाहती थी। इस वैभव सम्पन्न विश्व के सृजन हेतु ही 'भूमा' ने इस 'विषमता' को धारण किया था। इस संसार के प्राणी समरसता के अधिकारी हैं किन्तु तुच्छ सुखों की लालसा के कारण निराश पड़े रहते हैं ।


डॉ० द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने विषमता के प्रति प्रसादजी के मानव-जीवन हेतु वरदान स्वरूप दृष्टि की प्रशंसा इन शब्दों में की है - "प्रसादजी ने विषमता को उत्पन्न करने वाले दोनों कारणों का विरोध प्रस्तुत किया अर्थात् जगत् की असत्यता, नश्वरता एवं अनित्यता के स्थान पर श्रद्धा के मुख से जगत् की सत्यता शाश्वतता एवं नित्यता का प्रतिपादन कराया और जीवन की क्षणभंगुरता, अस्थिरता एवं अनित्यता के स्थान पर उसकी अनन्तता, अखण्डता एवं नित्यता का प्रतिपादन कराया। इन दोनों विचारों के जाग्रत होते ही मनु के जीवन में व्याप्त विषमता का उन्हें ज्ञान होने लगा और श्रद्धा जैसी सती-साध्वी के साथ रहकर वे समझने लगे कि उन्हें सारा जगत् मिथ्या एवं असत्य ज्ञान पड़ता है।"


जिस समय प्रसादजी ने अपने साहित्य का सृजन कर रहे थे, उस समय स्त्रियों की दशा बहुत खराब थी। वे शोषित वर्ग से अधिक शोषण का शिकार थीं। जैसे एक पुरुष कई जोड़ी कपड़े रख सकता है वैसे ही एक पुरुष अनेक पत्नियाँ रख सकता था। अनमेल विवाह, बाल-विवाह, और बहु-विवाह ने नारी जीवन नारकीय बना दिया था। प्रसादजी ने मनु के माध्यम से समाज के उन पुरुषों को ललकारा जो नारी को महत्त्व नहीं देते थे-


तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की समरसता है सम्बन्ध बनी अधिकार और अधिकारी की।


यदि जीवन में सामंजस्य नहीं आएगा तो विरोधी शक्तियाँ एक-दूसरे के प्रति सदैव संघर्ष करेंगी। जिससे एक दूसरे की शक्तियाँ क्षीण होती रहेंगी। जब मनु अपने जीवन में संतुलन एवं सामंजस्य को भूल जाते हैं तभी वह घोर संकट में पड़ जाते हैं। वह समन्वय कर लेने की क्षमता भी नहीं रखते। जिससे उनका द्वन्द्व चलता रहता है और श्रद्धा से कहते हैं-


यह क्या! श्रद्धे ! बस तू ले चल, उन चरणों तक दे निज सम्बल, सब पाप पुण्य जिसमें जल जल, पावन बन जाते हैं निर्मल, मिटते असत्य से ज्ञान लेश समरस अखण्ड आनन्द वेश ।


प्रसाद ने अपनी तात्कालिक शक्ति के अनुसार रस की निष्पत्ति की है और उसमें स्वयं भी आनन्दित हुए हैं। और दूसरों को भी आनन्द उठाने दिया है परन्तु आनन्द का दार्शनिक रूप 'कामायनी' में आता है जब संघर्ष, द्वयता और विषमताएँ समाप्त हो जाती हैं तब समरसता स्थापित होती है और उसके फलस्वरूप आनन्द कामायनी के आनन्द सर्ग का अन्तिम छन्द है-


समरस थे जड़ या चेतन सुन्दर साकार बना था; चेतनता एक विलसती आनन्द अखण्ड घना था। 44


शैव दर्शन के अनुसार आनन्द शिव का पर्यायवाची है। इस आनन्द को हर पुराने दर्शन में थोड़ी बहुत मान्यता मिली है।

स्पन्दन शास्त्र के अनुसार सर्वत्र और सर्वकाल आनन्द रहता है जो सृष्टि की गति को अनुप्राणित करता रहता है। शैव दर्शन में आनन्द शिव का साकार रूप है और शिव सर्वत्र व्याप्त है इसलिए आनन्द भी सर्वव्यापक है। ऐसा होने पर आनन्द की प्राप्ति के लिए इधर उधर भटकना नहीं है न किसी वैराग्य की आवश्यकता पड़ती है। बस इस साधना की आवश्यकता है कि व्यक्ति अपने आप को समरसता में डुबो सके। शैव दर्शन में अत्यधिक सरसता है जिससे उसे साहित्य में स्थान मिल सका। शैव दर्शन से आनन्दवाद को ग्रहण करके कामायनीकार ने इस धरा पर मानव कल्याण के लिए उतार कर यहाँ अपनी मौलिकता का परिचय देकर एक नवीन दर्शन प्रस्तुत किया। ज्ञान, इच्छा और कर्म जब तीनों का समन्वय होगा तब वास्तविक आनन्द की प्राप्ति होगी। प्रसाद का आनन्दवाद सर्वव्यापक और मानवतावादी है।



अतः कहा जा सकता है कि प्रेम, प्रकृति और मानवीय सौन्दर्य की स्वानुभूतिमयी रहस्यपरक सूक्ष्म अभिव्यंजना छायावाद है। छायावाद ने हिन्दी काव्य को समृद्ध बनाया और जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानन्दन पन्त तथा महादेवी वर्मा जैसे श्रेष्ठ कवि दिए। इनके अलावा माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', रामनरेश त्रिपाठी, हरिवंश राय बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', रामकुमार वर्मा, जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' आदि कवियों ने भी अपने अपूर्व काव्य-वैभव से इसे समृद्ध किया। छायावाद के प्रमुख कवियों में से जयशंकर प्रसाद के सन्दर्भ में आप प्रस्तुत पाठ्यचर्या के खण्ड 2 की प्रथम इकाई में विस्तृत अध्ययन कर चुके हैं। प्रस्तुत इकाई में आप सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' और उनके द्वारा रचित 'राम की शक्ति- पूजा' का विस्तृत अध्ययन करेंगे।