बिम्ब और प्रतीक का अन्तर - difference between image and symbol
बिम्ब और प्रतीक में गहरा सम्बन्ध होता है। प्रत्येक बिम्ब के मूल में एक प्रतीक छुपा होता है और समय के साथ विकसित होते-होते अपना स्वरूप पा जाता है। अर्थात् बिम्ब चाहे जितना भी ऐन्द्रिक हो अन्ततः उसकी परिणति प्रतीकात्मक अर्थ की व्यंजना में ही होती है। जब बिम्ब अपनी ऐन्द्रिय संवेदन की क्षमता को खो देते हैं। और सिर्फ़ अर्थ की ही व्यंजना तक सीमित हो जाते हैं तो वे प्रतीक बन जाते हैं। अर्थात् जब एक ही बिम्ब का प्रयोग बार-बार होने लगे तो उसके प्रतिपादित अर्थ में एक तरह की निश्चतता आ जाती है और उनकी इन्द्रिय संवेदन की क्षमता चुक जाती है। प्रयोग की अधिकता के कारण इन्द्रिय संवेदन की क्षमता में हास होने और अर्थ की निश्चतता स्थापित होने से बिम्ब प्रतीक में बदल जाते हैं।
प्रतीक तीन तरह के होते हैं। पहले प्रतीक तो वे हैं जो कवि को काव्य-परम्परा से प्राप्त होते हैं। जैसे मुख की सुन्दरता को व्यंजित करने के लिए कमल या चाँद का प्रयोग करना । मध्यकाल के कवियों ने ऐसा प्रयोग खूब किया है। दूसरे तरह के प्रतीक वे होते हैं जो कवि द्वारा निर्मित किये जाते हैं। इन्हें वैयक्तिक प्रतीक कहा जा सकता है क्योंकि इनसे इन्हें निर्मित करने वाले कवि की मानसिकता, संस्कार, सौन्दर्यबोध और विशिष्ट अनुभूति के बारे में पता लगाया जा सकता है। जैसे मुक्तिबोध अपनी कविता में सड़क के लिए 'काली जिह्वा' का प्रयोग करते हैं जबकि ज्ञानेन्द्रपति उसी सड़क के लिए 'लुटेरी लम्बी बाँह' का प्रयोग करते हैं।
स्वयं केदारनाथ सिंह की कविताओं में 'आग' शब्द का प्रयोग बार-बार होता है जो सामान्य लोगों की जिजीविषा का प्रतीक है। जैसे उनकी कविता 'पानी में घिरे हुए लोग' में आग शब्द का सर्जनात्मक उपयोग देखा जा सकता है जहाँ चिलम की आग को बचाने का अर्थ है जीवन की आग को बचाना अर्थात् जीवटता या जीवन में संघर्ष के जज्बे को बचाए रखना-
मगर पानी में घिरे हुए लोग
शिकायत नहीं करते
कहीं न कहीं बचा रखते हैं
वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में थोड़ी-सी आग
ये सब व्यक्तिगत प्रतीकों के उदाहरण हैं जो कवियों द्वारा सन्दर्भ और अपने काव्य-संस्कार के अनुरूप निर्मित किये गए हैं। तीसरे तरह के प्रतीक वे होते हैं जो प्रकृति के उपादान होते हैं और कवियों द्वारा स्वतन्त्र रूप से प्रयोग में लाये जाते हैं।
आपस में सम्बन्ध रखते हुए भी बिम्ब और प्रतीक में अन्तर होता है जिसे समझ लेना आवश्यक है। प्रतीक के लिए आवश्यक है कि एक निश्चित अर्थ के लिए उसका प्रयोग बार-बार किया जाए, तभी पाठक उसके प्रतीकात्मक अर्थ की प्रतीति कर पाने में सफल हो सकेगा। यानी प्रतीक के लिए समाज सापेक्ष या परम्परा सापेक्ष होना आवश्यक है।
वह शब्दार्थ के प्रवाह में रहते हुए ही अपने प्रतीकत्व को ग्रहण करता है । निरन्तर प्रयोग में आने से ही उसका अर्थ निश्चित होता है और प्रतीक अपना आकार ग्रहण करता है। यही प्रतीक का विकास होना है जिसका उल्लेख ऊपर की पंक्तियों में किया गया है। इसके ठीक विपरीत बिम्ब आकस्मिक होते हैं। वे ऐतिहासिक प्रवाह में अपना आकार ग्रहण नहीं करते। उनका ऐन्द्रिय संवेदन शब्दार्थ के प्रवाह से स्वतन्त्र और बेहद निजी होता है। प्रतीक और बिम्ब में दूसरा अन्तर यह है कि प्रतीक पाठक के ऐन्द्रिय संवेदन को उद्बुद्ध नहीं करते हैं बल्कि वे वर्ण्य वस्तु की किसी खास विशेषता या अर्थ की ओर संकेत करते हैं और ऐसा करते हुए अपने मूल अर्थ को गौण बना देते हैं।
यानी प्रतीक का मूल अर्थ कविता में महत्त्व नहीं रखता है उसका सांकेतिक अर्थ महत्त्वपूर्ण होता है। प्रतीक अपने सांकेतिक अर्थ के साथ सूक्ष्म और गहरी एकता का बोध कराता है और इसी कारण प्रतीक की योजना में एक किस्म की तार्किक संगति होती है। प्रतीक के अर्थ प्रतिपादन में व्यंजना शब्द शक्ति की भूमिका प्रबल होती है। बिम्ब के साथ ऐसा नहीं है। बिम्ब के लिए अर्थ की अपेक्षा ऐन्द्रिय संवेदन प्रमुख है। अर्थ प्रतिपादन करने के उपरान्त भी बिम्ब की सत्ता का क्षरण नहीं होता है बल्कि वे देर तक पाठक की इन्द्रियों को झंकृत किये रहते हैं। बिम्ब अपनी प्रकृति से ही संश्लिष्ट होते हैं। पाठक उनका ग्रहण भी संश्लिष्ट रूप में ही करता है।
इसीलिए प्रतीक के विपरीत बिम्ब अधिक स्वच्छन्द होते हैं और साथ ही अनेकार्थ व्यंजक भी। प्रतीकों के उलट बिम्बों की संश्लिष्टता ही उनकी अनेकार्थता को जन्म देती है। इस अनेकार्थता के कारण बिम्ब अनेक दिशाओं में संकेत करते हैं। वे इस जीवन और जगत् की अनेकता पर आधृत होते हैं। उनमे तार्किक संगति का अभाव होता है। प्रतीक और बिम्ब में तीसरा अन्तर यह है कि प्रतीक मूर्त और अमूर्त दोनों हो सकते हैं जबकि बिम्ब अनिवार्यतः मूर्त होते हैं। हालाँकि बिम्बों की मूर्तता सिर्फ़ चित्रात्मकता तक ही सीमित नहीं होती है। बिम्बों की मूर्तता ध्वनि, घ्राण और स्वाद से सम्बन्धित भी हो सकती है। इस तरह बिम्ब और प्रतीक में आपसी सम्बन्ध होते हुए भी अन्तर है । अतिप्रयोग के कारण बिम्ब जब अपनी ऐन्द्रियता को खो देते हैं और निश्चित अर्थ की ओर संकेत करने लगते हैं तो प्रतीक बन जाते हैं।
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