हिन्दी के मानक रूप का विकास - Development of standard form of Hindi

हिन्दी के मानक रूप का विकास - Development of standard form of Hindi

अनेक सीमाओं और समस्याओं के बावजूद आज हिन्दी का एक मानक रूप उपलब्ध है। यह मानकता इस भाषा की एक सहज और लम्बी विकास प्रक्रिया के तहत उपलब्ध हुई है। भारतेन्दु युग में भाषा की मानकता की चिन्ता लगभग नहीं दिखाई देती। उस समय उस समय खड़ीबोली पहली बार रचना का माध्यम बन रही थी।


और उस पर क्षेत्रीय बोलियों का सीधा प्रभाव था। व्याकरणसम्बन्धी बहुरूपता, शब्द चयन की अनिश्चयता, य-योजना की शिथिलता एवं अन्वयहीनता भारतेन्दुयुगीन खड़ीबोली में प्रचुरता के साथ मौजूद हैं। वाक्य-खड़ीबोली की मानकता का सवाल द्विवेदी युग में उठा । अपने निश्चय, दृढ़ कठोर अनुशासन और रचनात्मक संकल्पना के बल पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने खड़ीबोली को मानक रूप प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने खड़ीबोली को गद्य के साथ-साथ कविता की भाषा बनाने में भी उल्लेखनीय योगदान किया। उनकी प्रेरणा और प्रयासों से कामताप्रसाद गुरु और किशोरीदास वाजपेयी ने खड़ीबोली के व्याकरण लिखे। इस आलोक में अयोध्याप्रसाद खत्री के योगदान भी महत्त्वपूर्ण है। द्विवेदी युग में मानकता के सन्दर्भ में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ निर्धारित की गई-


1. हिन्दी में किसी भी भाषा के जो शब्द प्रचलित हो गए हैं, उन्हें ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया जाए।


ii. परसर्ग को संज्ञा से पृथक् रखा जाए, यथा गाय का दूध, राम ने पेड़ से आदि ।


iii. सर्वनाम के प्रयोग में परसर्गों को साथ लिया जाए, यथा उनकी मर्जी, आपका भविष्य आदि । -


iv. लिंग निर्धारण का आधार स्वीकृत और प्रचलित मान्यताएँ हों। संस्कृत के अग्नि, आत्मा, वायु, मृत्यु आदि पुल्लिंग हैं लेकिन हिन्दी में इनका प्रयोग स्त्रीलिंग के रूप में होता है। इनके स्त्रीलिंग रूप ही मानक माने जाएँ।


V. लिखित भाषा में एकवचन के लिए 'मैं' और बहुवचन के लिए 'हम' का प्रयोग हो ।


vi. क्रिया में ब्रजभाषा रूपों का परित्याग किया जाए, यथा आवें, जावैं, लीजैं के स्थान पर क्रमशः आएँ, - जाएँ, लीजिए।


vii. विराम चिह्नों को सुव्यवस्थित किया गया।


द्विवेदी युग में जिस मानक स्वरूप की स्थापना हुई, उसी का पालन छायावाद और प्रगतिवाद में हुआ। लेकिन आजादी के बाद जब संविधान में हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया, तब उसकी चुनौतियाँ बढ़ीं। जीवन के अनेक क्षेत्रों में शब्दावली निर्माण की ज़रूरत हुई इसलिए मानकता का सवाल अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया । उच्च शिक्षा, विधि, प्रशासन, विज्ञान आदि क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को सम्भव बनाने के लिए अनेक आयोगों की स्थापना हुई। केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने वर्तनी के मानकीकरण पर काफी बल दिया। स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी के मानकीकरण को तीन आधारों पर व्यवस्थित किया गया, यथा-


(1) वर्तनी के स्तर पर यह व्यवस्था दी गई कि वर्तनी संस्कृत के व्याकरण के नियमों के अनुरूप हो, जैसे- जितेन्द्र, उज्ज्वल, बीभत्स, व्यंग्य आदि । रेफ के कारण जिन शब्दों में विकल्प से द्वित्व होता है, उनमें सरलता की दृष्टि से द्वित्व का निषेध किया जाए, जैसे, आर्य्य आर्य, वम्र्म्मा वर्मा आदि। पंचमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार लिखने का विकल्प मान्य हुआ, जैसे, सन्त संत, ग्रन्थ ग्रंथ, पण्डित - पंडित, - - सम्बन्ध-संबंध आदि ।


(2) देश की अन्य भाषाओं से आए शब्दों का हिन्दी में यथावत स्वीकार करने की सिफारिश की गई, यथा- इडली, डोसा, सांभर आदि। अंग्रेजी से अनूदित पारिभाषिक शब्दों की एकरूपता पर भी बल दिया गया।


(3) खड़ीबोली व्याकरण का जो ढाँचा द्विवेदी युग में निर्मित किया गया था, उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया। उल्लेखनीय है कि समकालीन व्याकरणिक मान्यताएँ श्री कामताप्रसाद गुरु के व्याकरण पर आधारित है।


सारांशतः हिन्दी के मानकीकरण की जो प्रक्रिया बीसवीं सदी में आरम्भ हुई थी, वह एक मुकाम पर पहुँच चुकी है। आज हिन्दी का अधिकांश स्वरूप मानक हो गया है फिर भी कई क्षेत्रों में द्विरूपता बरकरार है। हालाँकि, इनके समाधान के प्रयास निरन्तर जारी हैं। मानकीकरण एक निरन्तर प्रक्रिया है। स्वयं भाषा का स्वभाव परिवर्तनशील है। समकालीन हिन्दी सशक्त और समर्थ है लेकिन नये आर्थिक उपनिवेशवाद के कारण पाश्चात्य देशों का जो हमला हिन्दी पर हो रहा है, उससे हिन्दी की मानकता ही नहीं, बल्कि उसकी गरिमा और आत्मविश्वास को भी ठेस पहुँच रही है। यही वजह है कि मानकता का प्रश्न अब केवल भाषा का प्रश्न नहीं रह गया है अपितु उसका सम्बन्ध हमारी सांस्कृतिक-राष्ट्रीय अस्मिता से भी जुड़ गया है।