आधुनिक हिन्दी के आरम्भिक चरण : भारतेन्दु युग से स्वतन्त्रता तक - Early stages of modern Hindi: From Bharatendu era to independence
आधुनिक हिन्दी के आरम्भिक चरण : भारतेन्दु युग से स्वतन्त्रता तक - Early stages of modern Hindi: From Bharatendu era to independence
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को आधुनिक हिन्दी साहित्य का जनक कहा गया है जिन्होंने सभी साहित्यिक विधाओं में हिन्दी के प्रयोग को स्थान दिलाया। इसके पश्चात् द्विवेदी युग में मानकीकरण को प्राप्त करते हुए स्वतन्त्रता- पूर्व तक हिन्दी अधिकाधिक भारतीय जनमानस की भाषा बन जाती है। इस ऐतिहासिक विकास को निम्नलिखित तीन उपशीर्षकों के अन्तर्गत समझा जा सकता है- (i) भारतेन्दु युग, (ii) द्विवेदी युग और (iii) अन्य साहित्यिक गतिविधियाँ ।
भारतेन्दु युग
आधुनिक हिन्दी का आरम्भ सन् 1850 ई. के बाद से माना जाता है जिसकी नींव भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ( 1850- 1885) ने रखी। 1873 ई. में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' का प्रकाशन आरम्भ हुआ जिसमें खड़ीबोली का व्यावहारिक रूप उभरकर सामने आया । हिन्दी में गद्य रचना का वास्तविक आरम्भ इसी काल में हुआ। 'कविवचन सुधा' के प्रकाशन से पत्रकारिता का नया युग आरम्भ हुआ। इसके अतिरिक्त 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' एवं 'बालबोधिनी' आदि पत्रिकाओं में खड़ीबोली का प्रयोग सुदृढ़ हुआ। भारतेन्दु ने विभिन्न साहित्यिक विधाओं जैसे: नाटक, कहानी, निबन्ध आदि में अनेक रचनाएँ की। उनके नाटकों में सत्य हरिश्चन्द्र, भारत दुर्दशा, प्रेम योगिनी, 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' आदि महत्त्वपूर्ण है। उनका निबन्ध 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' बहुत लोकप्रिय रहा है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सहयोगियों ने काव्य को नयी दिशा प्रदान की। यद्यपि भारतेन्दु ने खड़ीबोली में काव्य रचनाएँ नहीं की, किन्तु इस काल के अन्य कवियों ने धीरे-धीरे खड़ीबोली में काव्य रचना आरम्भ की। इस सन्दर्भ में अयोध्याप्रसाद खत्री का खड़ीबोली का आन्दोलन उल्लेखनीय है। इसी क्रम में 1887 ई. में कविताओं का एक संकलन प्रकाशित हुआ।
राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' की अरबी फारसी से युक्त हिन्दी और राजा लक्ष्मणसिंह की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी दोनों का ही भारतेन्दु ने प्रयोग नहीं किया और मध्यम मार्ग निकालते हुए 'साधु शैली का विकास किया। उनका प्रयास यही रहा कि हिन्दी से हिन्दीपन न जाने पाए और खड़ीबोली के संस्कृतनिष्ठ या क्लिष्ट प्रयोगों से भी हिन्दी बची रहे। उन्होंने 1873 ई. में हिन्दी के 'साधु रूप' को 'नये चाल की हिन्दी' नाम दिया। उनके साहित्य में सभी प्रकार की गद्य शैलियाँ देखने को मिलती हैं।
हिन्दी भाषा के विकास में भारतेन्दु के योगदान का अनुमान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निम्नलिखित कथन से लगाया जा सकता है- "जब भारतेन्दु अपनी मँजी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाए तो हिन्दी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ीबोली का प्राकृत साहित्यिक रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न न रह गया। भाषा का स्वरूप स्थिर हो गया । " (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
भारतेन्दु युग में भारतेन्दु के अलावा अन्य कुछ प्रमुख साहित्यकारों ने भी उनकी ही शैली को अपनाते हुए साहित्यिक रचनाएँ की । इनमें श्रीनिवास दास, पण्डित प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी, राधाचरण गोस्वामी, बालकृष्ण भट्ट, देवकीनन्दन खत्री, गोपालराम गहमरी एवं बालमुकुन्द गुप्त आदि प्रमुख हैं। इनमें से अधिकांश लेखक पत्रकारिता से भी जुड़े हुए थे। इस काल की रचनाओं में सामान्यतः सहज एवं सरल भाषा अपनाई गई। इस कारण खड़ीबोली में ब्रजभाषा और पूर्वी हिन्दी का प्रभाव पूर्णतः समाप्त नहीं हो पाया। शब्दावली की दृष्टि से अरबी- फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग तो यथावश्यक चलता ही रहा, अंग्रेजी के शब्द भी धीरे-धीरे स्थान बना रहे थे ।
19वीं शताब्दी के अन्त तक खड़ीबोली साहित्यिक भाषा के रूप में अपना स्थान बना चुकी थी। इसे हिन्दी के भाषाविद् डॉ. हरदेव बाहरी के शब्दों में देखा जा सकता है- "उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की भाषा-स्थिति का अवलोकन करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके युग के साथी खड़ीबोली की उन्नति के लिए बहुत सक्रिय थे और उन्होंने मौलिक कृतियों तथा अनुवाद द्वारा साहित्य को समृद्ध करने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु भाषा-शैली परिमार्जित नहीं हो पाई थी। अतः सामान्य रूप से भाषा का गठन, शब्दावली प्रयोग, वर्तनी, व्याकरण तथा कथ्य की अव्यवस्था बनी रही। भारतेन्दु भाषा नीति के सम्बन्ध में जागरूक अवश्य थे, उन्होंने राजा शिवप्रसाद सिंह और राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा पद्धति में से एक बीच का मार्ग निकाला तो, परन्तु प्रायः लेखकगण अपने-अपने ढंग से चलते रहे। काव्यभाषा में ब्रजभाषा का प्रयोग चलते रहने के कारण खड़ीबोली साहित्य की वेदी पर प्रतिष्ठित तो हुई परन्तु एक आदर्श की स्थापना नहीं हो पायी।"
इसी दौरान 1893 ई. में काशी में बाबू श्यामसुन्दरदास द्वारा 'नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना की गई। जिसका उद्देश्य साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी को अत्यधिक सबल बनाते हुए इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करना था। इस सभा से पण्डित मदनमोहन मालवीय, अम्बिकादत्त व्यास, राधाचरण गोस्वामी, श्रीधर पाठक, बद्रीनारायण चौधरी आदि सम्बद्ध रहे। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 'हिन्दी शब्द सागर शब्दकोश का प्रकाशन किया गया जिसकी भूमिका के रूप में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' की रचना की।
द्विवेदी युग
द्विवेदी युग जहाँ एक ओर हिन्दी भाषा के गद्य रूप के मानकीकरण का काल है वहीं खड़ीबोली को पूर्ण रूप से काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने वाला युग भी है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से सन् 1900 ई. में 'सरस्वती' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया गया। इस पत्रिका में गद्य-पद्य की सभी विधाओं यथा नाटक, शिल्प, कथा- कौशल एवं साहित्यिक रचनाओं की समालोचना का प्रकाशन होता था। सन् 1903 ई. में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस पत्रिका के सम्पादकत्व का भार सँभाला एवं लगभग 20 वर्षों तक यह कार्य निष्ठापूर्वक करते रहे।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सरल एवं शुद्ध भाषा के प्रयोग पर बल दिया। तद्भव शब्दों के साथ-साथ विषय एवं शैली की आवश्यकता के अनुसार वे संस्कृत और उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग करते थे। 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से उन्होंने हिन्दी भाषा का परिष्कार किया और इसे मानक बनाने में प्रयासरत रहे। इसके लिए वे लेखकों की वर्तनी एवं व्याकरण से सम्बन्धित त्रुटियों का सुधार स्वयं करते थे। किसी भी सामग्री का संशोधन करते समय वे ध्यान रखते थे कि वह सामग्री अन्य लोगों की समझ में आ सके। इस सम्बन्ध में उनका कहना था- "यह न देखना कि यह शब्द अरबी का है या फ़ारसी का या तुर्की का देखना सिर्फ यह कि इस शब्द, वाक्य या लेख का आशय अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नहीं। अल्पज्ञ होकर भी किसी पर विद्वता की झूठी छाप छापने की कोशिश मैंने कभी नहीं की।"
अपने बृहत् प्रयासों से आचार्य द्विवेदी ने खड़ीबोली हिन्दी के प्रत्येक अंग को परिष्कृत किया तथा इस कार्य के लिए अन्य समकालीन लेखकों को भी प्रेरित किया। उनके कार्यों से अनेक समकालीन कवि एवं रचनाकार प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए। मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, श्रीधर पाठक, लोचनप्रसाद पाण्डेय आदि ने उनके कार्य का समर्थन करते हुए खड़ीबोली में साहित्य रचना का कार्य आरम्भ किया। धीरे-धीरे अन्य रचनाकार भी इस ओर प्रवृत्त हुए और विविध विधाओं में हिन्दी में रचनाएँ हुई। हिन्दी साहित्य में संस्कृत या उर्दू के शब्दों के प्रयोग, विदेशी शब्दावली का ग्रहण एवं भाषा में स्वाभाविकता, प्रवाह तथा मानकता बनाए रखने सम्बन्धी अनेक प्रश्न उठाए गए, उनकी प्रतिक्रिया हुई, टीका टिप्पणी हुई, पत्र-व्यवहार हुआ एवं गोष्ठियाँ हुई। इस प्रकार खड़ीबोली हिन्दी तत्कालीन जनमानस की साहित्यिक अभिव्यक्ति का पूर्णतः माध्यम बन गई तथा ब्रजभाषा साहित्य जगत् से बाहर हो गई।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस युग ने जहाँ एक ओर साहित्यिक हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, वहीं दूसरी ओर खड़ीबोली हिन्दी को गद्य एवं पद्य दोनों ही क्षेत्रों हिन्दीभाषी जनमानस की अभिव्यक्ति की भाषा बना दिया।
अन्य साहित्यिक गतिविधियाँ
द्विवेदी के साथ ही हिन्दी का साहित्यिक और साहित्येतर क्षेत्रों में विविध प्रकार से प्रयोग होने लगे थे। उनमें से प्रमुख को चुनते हुए प्रस्तुत शीर्षक में द्विवेदी युग से स्वतन्त्रता- पूर्व तक के काल को समाहित किया जा रहा है जिसमें मुख्यतः हिन्दी साहित्य के दो युग छायावादी युग (1920 से 1936) एवं प्रगतिवादी युग (1936 से 1946) आते हैं। छायावादी युग को साहित्यिक खड़ीबोली हिन्दी का उत्कर्ष काल कहा जा सकता है। इस युग की रचनाओं में सूक्ष्म एवं अमूर्त भावों जैसे सुख-दुःख, आशा-निराशा, प्रेम की विविध दशाओं एवं विचारों आदि को व्यक्त किया गया है । इस प्रकार, इस युग में हिन्दी में अनेक भाषाई गुणों का समावेश हुआ। इस काल की रचनाओं में भावों के मूर्तीकरण एवं प्रतीकों के विधान से भाषा में मधुरता, सरसता एवं व्यापकता आई । अतः कहा जा सकता है कि इस काल ने हिन्दी के परिमार्जित और श्रेष्ठ रूप को प्रस्तुत किया।
छायावाद के बाद हिन्दी साहित्य के इतिहास में 'प्रगतिवाद' और 'प्रयोगवाद' आते हैं। प्रगतिवादी युग के साहित्यकारों की सहानुभूति निम्नवर्ग के विशाल समुदाय - गरीब किसान, पीड़ित और शोषित मजदूर और सामान्य
लोगों के प्रति जगी जिसे उन्होंने जनभाषा के माध्यम व्यक्त किया। इस काल के लेखकों की भाषा में तद्भव शब्दों का प्रयोग बढ़ा। इन लोगों ने लाक्षणिक की जगह अभिधात्मक (सीधे-सीधे कह देना) शैली को अपनाया। इस कारण इस युग की भाषा सरल और स्वाभाविक दिखाई पड़ती है।
इसी दौरान प्रगतिवाद की एकरसता एवं अभिधात्मकता से अलग होकर कुछ कवि नये विषयों, नये छन्दों, नये प्रतीकों एवं नयी भाषा शैली की खोज करने लगे। इन्हें ही प्रयोगवादी नाम दिया गया जिनमें अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर आदि प्रमुख हैं।
इस प्रकार स्वतन्त्रता- पूर्व की तात्कालिक साहित्यिक गतिविधियों ने न केवल खड़ीबोली हिन्दी को सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति में सक्षम बनाया बल्कि उसमें सरलता, सहजता एवं स्पष्टता लाते हुए उसे आम जनमानस से भी जोड़ने का कार्य किया।
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