भारतीय- देशी भाषाओं के अन्तर्विरोध की समस्या

भारतीय- देशी भाषाओं के अन्तर्विरोध की समस्या

संस्कृत- प्राकृत भाषातन्त्र से जनपदीय भाषाओं का जो अन्तर्विरोध रहा है, उसके अतिरिक्त देशी भाषाओं में आपसी अन्तर्विरोध भी रहा है। सामन्ती व्यवस्था में राज्यों की सीमाएँ भाषा क्षेत्रों की सीमाओं के अनुरूप नहीं होतीं, इसलिए कोई एक भाषा बोलने वाला दल दूसरी भाषा के क्षेत्र पर अंशतः या पूर्णतः हावी हो जाए, यह स्वाभाविक है। अंग्रेजों ने यहाँ के सामन्तों की सहायता से अपना राज्य कायम किया। उन्होंने इस पुरानी सामन्ती नीति को बहुत जगह नया रूप दिया देशी भाषाओं के ऐसे अन्तर्विरोध प्राचीन काल में थे। इनका नमूना तमिल और मलयालम का अन्तर्विरोध है। ऐसे अन्तर्विरोध तथाकथित मध्यकाल में थे। इनका नमूना मराठी और कन्नड़, मराठी और गुजराती के बीच है। अंग्रेजी राज में इस तरह का अन्तर्विरोध बांग्ला और उड़िया, बांग्ला और असमिया के बीच रहा है। भारतीय साहित्य का अध्ययन करते समय इन अन्तर्विरोधों को ध्यान में रखना आवश्यक है।


जिस भाषा में साहित्य रचना पहले हो, वह भाषा अपने परिवार की प्राचीनतम सदस्य हो, यह आवश्यक नहीं है । द्रविड़ भाषाओं में तमिल का साहित्य सबसे पुराना है, इससे कुछ लोगों को यह मिथ्या धारणा पैदा हुई है।


कि तमिल भाषा द्रविड़ भाषाओं में सबसे पुरानी है। इस धारणा के वशीभूत होकर वे तमिल और मलयालम का सम्बन्ध सही रूप में नहीं देख पाते। तमिल की अपेक्षा प्राचीनता के लक्षण मलयालम में अधिक हैं। हिन्दी आदि आर्य भाषाओं के समान तमिल में क्रियारूप लिंगभेद व्यंजित करते हैं। मलयालम में यह स्थिति नहीं है। बांग्लाके समान मलयालम के क्रियारूप लिंगभेद व्यक्त नहीं करते। इन दोनों भाषाओं में यह लक्षण अत्यन्त प्राचीन हैं, इनमें साहित्य रचना चाहे जितने विलम्ब से हुई हो। केरल के काफी हिस्से पर तमिलनाडु के राजा शासन करते थे। इस कारण मलयालम को साहित्य का माध्यम बनने का अवसर न मिला। एक ओर संस्कृत-प्राकृत का भाषातन्त्र, दूसरी ओर राजभाषा तमिल का दबाब, केरल की इस विशेष स्थिति में वहाँ की भाषा मलयालम में साहित्य रचना का कार्य विलम्ब से हुआ। इस विलम्ब का अर्थ लोग यह मानते हैं कि मलयालम भाषा का जन्म ही विलम्ब से हुआ।


17वीं सदी में जब मराठों ने अपना राज्य विस्तार किया, तब इसका प्रभाव पड़ोसी भाषाओं की स्थिति पर भी पड़ा। कन्नड़ भाषा पर इस प्रभाव की चर्चा करते हुए आर. एस. पंचमुखी ने लिखा है "सत्रहवीं सदी में - कर्नाटक पर मराठा शासन लाया गया। सांस्कृतिक रूप से वह शासन स्वस्थ था, उसकी आत्मा विरोधी नहीं थी, फिर भी किसी प्रदेश के विकास के लिए जो भाषागत एकरूपता आवश्यक है, उसकी उपेक्षा के लिए रास्ता साफ़ हो गया। कुछ ही दशकों में सारे उत्तरी कर्नाटक पर मराठे छा गए। इससे मराठी के लिए आग्रह बढ़ा और वहाँ की धरती की भाषा के पीछे कन्नड़ की उपेक्षा का भाव बढ़ा।


कश्मीरी, डोगरी, सिन्धी, कोंकणी, तुरु आदि। इनमें से प्रत्येक का विशेषतः पहली बारह भाषाओं में प्रत्येक का, अपना साहित्य है जो प्राचीनता, वैविध्य, गुण और परिणाम सभी की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। यदि आधुनिक भारतीय भाषाओं के ही सम्पूर्ण वाक्य का संचयन किया जाए तो वह यूरोप के संकलितवाक्य से किसी भी दृष्टि से कम नहीं होगा। भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता पर विचार करते हुए डॉ० नगेन्द्र का कहना है कि- "वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृतों और अपभ्रंशों का समावेश कर लेने पर तो उसका अनन्त विस्तार कल्पना की सीमा को पार कर जाता है- ज्ञान का अपार भण्डार, हिन्द महासागर से भी गहरा, भारत के भौगोलिक विस्तार से भी व्यापक, हिमालय के शिखरों से भी ऊँचा, और ब्रह्म की कल्पना से भी अधिक सूक्ष्म ।" ( नगेन्द्र, भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता, (सं.) मूलचन्द गौतम, (2009) भारतीय साहित्य, दिल्ली, राधाकृष्ण, पृष्ठ 71) इनमें प्रत्येक साहित्य का अपना स्वतन्त्र और प्रखर वैशिष्ट्य हैं, जो अपने प्रदेश के व्यक्तित्व से मुद्रांकित है। पंजाबी और सिन्धी, हिन्दी और उर्दू की प्रदेश सीमाओं के मिले होने पर भी उनके अपने-अपने साहित्य की अपनी विशेषताएँ हैं। इसी प्रकार मराठी और गुजराती का जन-जीवन ओतप्रोत होते भी उनके बीच किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं है। दक्षिण की भाषाएँ द्रविड़ परिवार की विभूतियाँ हैं किन्तु कन्नड़ और मलयालम, या तमिल और तेलुगु के स्वरूप में कोई शंका नहीं होती। यही बात बांग्ला, असमिया और उड़िया के विषय में सत्य है। बांग्ला के गहरे प्रभाव को पचाकर असमिया और उड़िया अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को बनाए हुए हैं।


इन सभी साहित्यों में अपनी अपनी विशिष्ट विभूतियाँ हैं। तमिल का संगम साहित्य, तेलुगु के द्विअर्थी काव्य और उदाहरण तथा अवधान साहित्य, मलयालम के सन्देश काव्य एवं कीर गीत (कलिप्पाट्) तथा मणिप्रवालं शैली, मराठी के पवाड़े, गुजराती के आख्यान और फागु, बांग्ला का मंगल काव्य, असमिया के वडगीत और बरुंजी साहित्य, पंजाबी के रम्याख्यान और वीर गीत, उर्दू की ग़ज़ल और हिन्दी का रीतिकाव्य और छायावाद आदि अपने अपने भाषा साहित्य के वैशिष्ट्य के उज्ज्वल प्रमाण हैं। फिर भी कदाचित् यह पार्थक्य आत्मा का नहीं है। जिस प्रकार अनेक धर्मों, विचारधाराओं और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है इसी प्रकार और इसी कारण से अनेक भाषाओं और अभिव्यंजना-पद्धतियों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का अनुसंधान भी सहज सम्भव है। भारतीय साहित्य का प्राचुर्य और वैविध्य तो अपूर्व है ही, उसकी यह मौलिक एकता और भी रमणीय है। यहाँ इस एकता के आधार तत्त्वों का विश्लेषण करना आवश्यक है।