भारतीय साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ : वैष्णव काव्य

भारतीय साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ : वैष्णव काव्य


भारतीय वाक्य की सबसे प्रबल प्रवृत्ति है वैष्णव काव्य, जो उतना ही व्यापक भी है। भारतीय साधना पद्धति में भक्ति का बड़ा महत्त्व है। आरम्भ से ही यहाँ भक्ति साहित्य का बड़ा प्राचुर्य रहा है। दक्षिण की भाषाओं में भक्ति भावना का प्राबल्य अपेक्षाकृत अधिक है और वहाँ का भक्ति साहित्य अधिक प्राचीन भी है। तमिल में वैष्णव काव्य का संग्रह नालायिरप्रबन्धम् नाम से प्रसिद्ध है। इसके रचयिता बारह आलवार भक्त हैं और इसमें 4000 छन्द हैं। इनमें परिमाण की दृष्टि से सबसे अधिक योगदान तिरुमगै आलवार और नम्मालवार का है। भावना की विह्वलता के कारण कवयित्री अंदाल का भी अपना पृथक् स्थान है।


उत्तरकाल (1200 से 1750 ई.) में पिल्लै पेरुमाल अय्यंगर प्रसिद्ध वैष्णव कवि हुए हैं। उनकी अष्टप्रभुबन्धनम्' काव्यकृति अत्यन्त प्रसिद्ध है। तेलुगु में वैष्णव काव्य की रामकाव्य और कृष्ण काव्य दोनों ही धाराएँ अत्यन्त समृद्ध हैं। वहाँ रामकथा पर आश्रित छोटी बड़ी डेढ़ सौ से ऊपर काव्य रचनाएँ हैं। वस्तुतः राम की भक्ति का प्रचार यहाँ अन्य प्रदेशों की अपेक्षा अधिक रहा है। प्रसिद्ध गायक और गीतकार त्यागराज ने अपने कीर्तन राम को समर्पित किए हैं। तेलुगु की प्राचीनतम रामायण रंगनाथ रामायण है जिसकी रचना तेरहवीं शती के उत्तरार्द्ध में हुई थी। उसके अतिरिक्त भास्कर रामायण, बुद्धा रेड्डी की रामायण आदि की भी विशेष प्रसिद्धि हैं। रामकाव्य की यह परम्परा बाद तक चलती रही और कुम्मरि मोल्ल ने रामायणम् नामक विशाल काव्य की रचना की जो अपने काव्य-गुण, सरल शैली और आकर्षक वर्णनों के कारण आन्ध्र में बहुत ही लोकप्रिय है। कृष्णकाव्य का अनुपम ग्रन्थ है बम्मेर पोतन रचित 'भागवतम्'। यह संस्कृत भागवत से प्रभावित होते हुए भी अपने मौलिक कवित्व गुण की दृष्टि से उससे हीन नहीं है।


प्रबन्ध युग (1500 से 1750 ई.) में तिम्मन के 'पारिजातापहरणम्' की विशेष ख्याति है। मदुरा-साहित्य के अन्तर्गत शृंगाररसाप्लावित 'सत्यभामा सांत्वनम्' और परवर्ती हासयुग में दाक्षिणात्य कवयित्री मुझलणि की काव्य-कृति 'राधिकासांत्वनम्' कृष्णकाव्य की सरस रचनाएँ हैं। प्राचीन कन्नड़ साहित्य के इतिहास का तृतीय चरण वैष्णव काल के नाम से प्रसिद्ध है। यों तो राम और कृष्ण को लेकर कन्नड़ में अनेक महाकाव्य लिखे गए परन्तु वे वैष्णव काव्य नहीं हैं। शुद्ध वैष्णव काव्य के दर्शन हमें सत्रहवीं शती के पुरन्दरदास, कनकदास आदि भक्त कवियों के असंख्य कीर्तनों में होते हैं जो अपनी भक्ति माधुरी, लोकप्रिय प्रगीत शैली के कारण आज तक जीवित हैं। उधर इसी युग में संस्कृत के अमर ग्रन्थों रामायण और महाभारत के कन्नड़ में अनुवाद किए गए। मलयालम में वैष्णव काव्य का आदिग्रन्थ कृष्णगाथा ( 15वीं शती) है। काव्य की विषयवस्तु कृष्ण के जन्म से स्वर्गारोहण तक की कथा है। इसके अन्तर्गत 47 कथाएँ हैं जिनमें सर्वत्र ही कवि की भक्ति भावना अकुण्ठित रही है। कवि वैसे तो नवरसों का पारंगत है किन्तु शृंगार उसका मुख्य रस है। शृंगार के अतिरिक्त वात्सल्य का चित्रण भी अद्भुत है। इसके उपरान्त 'भास भागवतम्', हरिनामकीर्तनम्' और उधर कृष्ण के जीवन को लेकर 'कृष्णनाट्यम्' आदि अनेक अट्टकथाओं का सृजन हुआ। रामकाव्य की परम्परा यहाँ कदाचित और भी प्राचीन थी।


मलयालम में तमिल सम्प्रदाय की महत्त्वपूर्ण कृति 'रामचरितम्' और उधर निरणम कवि परिवार की 'कण्णश्श रामायणम्' अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। किन्तु इस वर्ग की सबसे प्रमुख रचना है एजुत्तच्चन की ‘अध्यात्मरामायण' । वाल्मीकि ने राम को महापुरुष और उदात्त शासक माना है किन्तु एजुत्तच्चन् ने तुलसीदास की भाँति उनको ईश्वर माना है और कई स्थानों पर भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की है। रामकथा पर आश्रित अनेक चम्पूकाव्यों में 'रामायण चम्पू' सर्वश्रेष्ठ है। उधर अट्टकथाओं में रामनाट्टम् की प्रसिद्धि सर्वाधिक है। मराठी में एकनाथ ने भागवतधर्म को आनन्दवनभुवन नाम से अभिहित किया और अपने लघु आख्यान काव्यों और अभंगों द्वारा आनन्दमयी भक्ति का प्रचार किया। उनके बाद सत्रहवीं शती के आरम्भ में ही तुकाराम के अभंगों में वैष्णव भक्तिभाव को व्यापक अभिव्यक्ति मिली। तुकाराम के अभंगों का प्रभावमहाराष्ट्र में सर्वत्र छा गया। वे वास्तव में भगवत धर्म के अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादक थे। वैष्णव काव्यधारा का सबसे अधिक वेग गुजराती और पूर्वी भाषाओं अर्थात् बांग्ला, असमिया और उड़िया साहित्य में मिलता है। गुजराती काव्य में अपने सगोत्रीय ब्रजभाषा काव्य की भाँति ही कृष्णभक्ति का प्राधान्य है। नरसी मेहता, भालण, नाकर, विष्णुदास, प्रेमानन्द आदि कवि भारतीय कृष्णकाव्य की अमर विभूतियाँ हैं। ये कवि विशेषकर नरसी, भालण और प्रेमानन्द, चंडीदास, सूरदास और नन्ददास की कोटि के कवि हैं। संयोग-वियोग के प्रसंगों, लीलाओं और बाल वर्णन के रमणीय चित्रों से जगमग गुजराती कृष्णकाव्य अपना प्रतियोगी आप ही है। पूर्व की भाषाओं विशेषकर बांग्ला का वैष्णव साहित्य भी कम समृद्ध नहीं है । वैसे तो चैतन्य महाप्रभु से पहले भी वहाँ चंडीदास जैसे भक्त कवि हो चुके थे, किन्तु महाप्रभु के बाद तो भक्तिरस की ऐसी धारा प्रवाहित हुई कि बांग्ला के ही नहीं असमिया और उड़िया के कवि भी उसमें निमग्न हो गए। 16वीं शताब्दी से डेढ़ सौ वर्ष बाद तक बांग्ला में चैतन्य मत के प्रत्यक्ष प्रभाव से अभिभूत होकर जो साहित्य रचा गया उसे मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है- (i) गीति काव्य और (ii) चरित काव्य । चैतन्य के समसामयिक एवं अनुयायी गीतिकारों में मुरारिगुप्त, नरहरि सरकार, वासुदेव घोष और रामानन्द बसु के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। बाद में कवियों का जो पृथुल प्रवाह आया उनमें ज्ञानदास, गोविन्ददास, लोचनदास, बलरामदास और शेखर (कवि शेखर, राय शेखर) का अपनी कविताओं के गुण और परिमाण दोनों के कारण ऊंचा स्थान है। उधर बंगाल का वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय जो प्रेम को अपनी साधना का साध्य भी मानता था और साधन भी वैसे तो वैष्णव मत की ही शाखा प्रतीत होता है पर वस्तुतः वह मूल सहजिया सम्प्रदाय का ही उत्तराधिकारी था। उनके अनुसार हर पुरुष के कायिक रूप के पीछे उसका जो मूल स्वरूप होता है वह कृष्णत्व है, इसी तरह हर स्त्री साक्षात् राधा होती है। साधना में पहले कृष्ण अथवा राधा का साक्षात्कार करना होता है और फिर दोनों के सम्मिलन से अनन्त प्रेम और शाश्वत आनन्द की सिद्धि होती है । इन सहजियामतानुयायियों ने प्रचुर गीत-साहित्य और सैद्धान्तिक निबन्धों का प्रणयन किया है। इस प्रकार बांग्ला के वैष्णव काव्य में कृष्णभक्ति का ही प्रमुख्य रहा है।

किन्तु रामकाव्य का भी वहाँ अभाव नहीं रहा । कृत्तिदास ओझा की रामायण अकेली ही भारतीय वाक्य की अमर विभूति है। असमिया भाषा में रामकाव्य के प्रमुख कवि हैं माधव कंदलि, शंकरदेव और माधवदेव (14-15वीं शती) जिन्होंने असमिया रामायण की रचना की है। माधव कंदलि की दूसरी रचना देवजित में वैष्णव काव्य की कृष्णभक्ति धारा का स्पष्ट आभास मिलता है। इसमें उन्होंने विष्णु के अवतारों में श्रीकृष्ण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। पन्द्रहवीं शती में शंकरदेव ने भागवत के आधार पर कीर्तन पदावली की रचना की और उनके शिष्य माधवदेव ने इस संग्रह में अपने सहस्रघोषा (टक) वाले पदों का समावेश कर 'संयुक्त कीर्तन घोषा का सम्पादन किया जो असमिया वैष्णवों का पवित्र धर्मग्रन्थ बन गया। इनका प्रचलित नाम है बड़गीत, जो असमिया का अपना विशिष्ट काव्यरूप है। यों तो बड़गीतों में विनय, आत्मोपदेश तथा कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के समस्त प्रसंग मिलते हैं, परन्तु इनका प्रमुख विषय है बालवर्णन जो काव्य-सौष्ठव में ब्रज़ भाषा कृष्णकाव्य के बाल वर्णन के समकक्ष है। उड़िया में भी कृष्णभक्ति का व्यापक प्रचार हुआ और चैतन्य प्रतिपादित माधुर्य भाव का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उड़िया साहित्य के इतिहासकार उसको आज अमिश्र लाभ मानने को तैयार नहीं हैं। उड़िया कृष्णभक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं- दीन कृष्णदास, अभिमन्यु सामन्त सिंहर कविसूर्य बलदेव, भक्तचरण और गोपालकृष्ण आदि जिनके रचनाकाल का प्रसार सत्रहवीं से उन्नीसवीं शती तक है। इन कवियों ने विनय के अतिरिक्त कृष्ण जीवन की संयोग-वियोगमयी अनेक लीलाओं को लेकर भावविह्वल कविता रची है। रामकाव्य के अन्तर्गत बलरामदास की उड़िया रामायण का मूर्धन्य स्थान है। उर्दू में भी रामकृष्ण को लेकर भक्तिपरक रचनाएँ हुई हैं केवल हिन्दू कवियों ने ही नहीं, नजीर अकबराबादी जैसे मुसलमान कवियों ने भी कृष्ण-भक्ति की नज्में लिखी हैं किन्तु यह कविता उर्दू काव्य की आत्मा से मेल नहीं खाती और वास्तव में गुण और परिमाण दोनों की दृष्टि से नगण्य है। पंजाबी में भी प्रायः यही स्थिति है। वहाँ पहले इस्लाम का और फिर निर्गुण मत से प्रभावित सिख धर्म का व्यापक प्रचार रहा अतः वैष्णव काव्य के विकास के लिए विशेष अवकाश नहीं मिला। यों तो स्वयं सिख गुरु गोविन्द सिंह ने राम और कृष्ण का चरित्र गान किया है, परन्तु उसमें वैष्णव प्राण का स्पन्दन नहीं है। उत्तर-पश्चिमी भाषा वर्ग के अन्तर्गत हिन्दी में वैष्णव काव्य का अनन्त भण्डार मिलता है। यहाँ कृष्णभक्ति के सभी सम्प्रदायों के अन्तर्गत काव्य रचना हुई। वल्लभसम्प्रदाय का तो ब्रज में बहुत बड़ा गढ़ ही था। निम्बार्क, गौड़ीय, माध्व भक्त कवियों की वाणी का विस्तार भी कम नहीं है। इनके अतिरिक्त हितहरिवंश का राधावल्लभ सम्प्रदाय और मधुराभक्ति को लेकर चलने वाले कतिपय अन्य सम्प्रदायों का भी योगदान गुण और परिमाण दोनों की दृष्टि से अत्यन्त श्लाघ्य है। रामकाव्य का क्षेत्र ब्रज से पूर्व में राम की जन्मभूमि अवध था। हिन्दी का रामकाव्य तुलसी की सार्वभौम प्रतिभा के प्रकाश से आलोकित है। भक्ति, दर्शन और कवित्व तीनों की दृष्टि से तुलसी का काव्य अद्वितीय है। हिन्दी के रामकाव्य में दो प्रवृत्तियाँ मिलती हैं पहली, तुलसी द्वारा प्रभावित मर्यादावादी प्रवृत्ति और दूसरी माधुर्य भाव से प्रेरित शृंगारिक प्रवृत्ति जो राम को रसिक नायक के रूप में ग्रहण करती है और इसका साहित्य भी परिमाण में कम नहीं है। वास्तव में मध्ययुग का भारतीय साहित्य प्रधानतः भक्ति साहित्य ही है। भक्ति के क्षेत्र में वैष्णव भावना का प्रचार अधिक रहा और वैष्णव काव्य में भी माधुर्य संचलित कृष्णकाव्य का।