पाणिनि के 14 माहेश्वर सूत्र और प्रत्याहार बनाने की विधि




आचार्य पाणिनि के १४ सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार की रचना की जाती हैं

प्रत्याहार में दो वर्ण होते हैं । अन्तिम वर्ण किसी-न-किसी पाणिनि सुत्र का अंतिम हल् वर्ण होता है और प्रथम वर्ण उस हल् वर्ण से पूर्व कहीं-कहीं मौजूद रहता है । प्रथम वर्ण हलु-वर्ण नहीं होता और प्रथम वर्ण से लेकर अन्तम हलु-वर्ण के बीच आने वाले वर्ण प्रत्याहार में आते हैं । हल्-वर्णों को प्रत्याहार में नहीं गिना जाता । 

पाणिनि के १४ सूत्र निम्नलिखित हैं-

१. अइउण् २. ऋलूक्३. एओङ्, ४. ऐऔच् ५. हयवरट् ६. लण् ७. अमङणनम् ८. झभञ् ९. घढधष् १०. जबगडदश् ११. खफछठथ चटतव १२. कपय् १३. शषसर् १४. हल्।।

प्रत्याहार-

कुछ उदाहरण-

अक्-

अ इ उ ऋ लृ क् । प्रथम सूत्र के प्रारम्भ में '' है और द्वितीय सूत्र के अन्त
में हु के ही । इन दोनों के बीच के अक्षर अक् प्रत्याहार के अन्दर आते हैं।

अच् -

अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ।

इक् -

इ उ ऋ लृ ।

यण-

य व र ल ।

शल्-

श प स ह ।

जशु -

ज ब ग ड द ।

इसी प्रकार निम्नलिखित प्रत्याहार बनेंगे-


लट्, अण्, इण्, इक्, एड, एच, चर्, गम्, चर्, वस्, झञ्, झर्, झल्, जश्, इषु
यञ्, शर, हस्, चल्, आदि ४२ प्रत्याहार हैं ।

उच्चारण स्थान-हृदय से निकली हुई प्राणवायु हमारे मुख में उपस्थित ध्वनि-यन्त्रों (कण्ठ, तालुओष्ठ आदि) से टकराती है और विभिन्न ध्वनियों की सृष्टि करती है 

'बि स्थान को यह प्राणवायु स्पर्श करती है; वही वर्ण-विशेष का उच्चारण स्थान है- ये निम्नलिखित हैं-

क-


घ-

च-

छ-


झ-

कण्ठ्य हैं।

अकुहविसर्जनीयानां आ, कवर्ग और विसर्ग का है । इचुयशानां तालु-इ, चवर्ग, य और श का तालु स्थान है । ये तालव्य ऋटुरषाणां मूर्धा-ऋ, र और प का ये मूर्धन्य दन्ताः ल, तवर्ग, ल और स का स्थान है। ये दन्त्य हैं । उपध्मानीय अर्थात फ का ओष्ठ-स्थान हैं। ये ओष्ठ्य हैं। नासिका म, , ण और न का नासिका स्थान है । अत: ये अनुनासिक
वर्ण हैं।

एदैतो:कण्ठ-तालु-ए और ऐ का कण्ठ-तालु स्थान
ओदो कण्ठोष्ठम्-ओ और औ का कंठ-ओष्ठ्य स्थान
वकारस्य दन्त्योष्ठम्-व का दन्त-ओष्ठ स्थान है ।