वृद्धजन और समाज कार्य - Elderly and Social Work

वृद्धजन और समाज कार्य - Elderly and Social Work

बृद्ध जनसंख्या एक भेद्यतापूर्ण समूह है जिस पर किसी भी प्रकार के संकट का सीधा असर होता है। ऐसे में समाज कार्य इस लक्षित समूह को सहायता देने की क्षमता रखता है। अभ्यास (Practice) के रूप में समाज कार्य ने वृद्धों के कल्याण के लिए काफ़ी पहले से कार्य शुरू किया है जिसके बारे में इस इकाई के शुरुआत में ही हम बात कर चुके हैं। बावजूद इसके पिछले कुछ दशकों में वृद्धों की समस्याओं को देखने का नजरिया बदला है। यही कारण है कि जराविज्ञान जैसी शाखाओं का निर्माण हुआ। समाज कार्य इससे अछूता नहीं रहा, समाज कार्य में हम देखते है कि वह जराविज्ञान समाज कार्य के रूप में एक क्षेत्र धारण कर चुका है। इस क्षेत्र के अंतर्गत इस बात पर जोर दिया गया है कि वृद्धजनों की समस्याएँ सामान्य समस्याएँ नहीं है। उसके समाधान के लिए सामाजिक कार्यकर्ता के पास विशेष कौशला और विशेषज्ञता की आवश्यकता को महसूस किया गया।

सुषमा बत्रा और काकोली भौमिक (2007) द्वारा भारत में किया गया अध्ययन इंटरजनरेशनल रिलेशनशिप: ए स्टडी ऑफ़ श्री जनरेशन के अनुसार भारत के संदर्भ में वृद्धजनों की समस्याओं को लेकर हस्तक्षेप के क्षेत्र निम्नवत है वृद्धजनों की समस्या की वकालत पीयर काउंसेलिंग स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे समुदाय आधारित मुद्दे राज्य का हस्तक्षेप हस्तक्षेप कर को मंति ये वे क्षेत्र हैं, जिनमें हस्तक्षेप कर वृद्धों को सेवा सहयोग प्रदान किया जा सकता है। विद्वानों का मानना है कि वृद्धावस्था की तैयारी कर ले तो वृद्धों के लिए यह अवस्था कठिन नहीं होगी। ऐसे में इन संभावनाओं को रूप देने का कार्य समाज कार्य कर सकता है। जागरूकता शिक्षण तथा क्षमता निर्माण के अंतर्गत समाज कार्य वृद्धजनों को वृद्धावस्था की तैयारी में सहयोग प्रदान कर प्रदाता की भूमिका को बखूबी निभा सकते हैं।


भारतीय परिदृश्य में जराविज्ञान नया उभरता विषय है ऐसे में इसके प्रति जागरूकता और शिक्षण के माध्यम से समाज में इसके विस्तार का कार्य किया जाना अभी बाकी है। वृद्धावस्था की समस्याओं में भी लगातार प्रतिमान परिवर्तन हो रहें है ऐसे में नवीन जानकारी से लैस सामाजिक कार्यकर्ता उनको वृद्धावस्था जैसी दुखद अवस्था को सुखद बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 

वृद्धावस्था की समस्याएं और इसके समाधान के लिए तथा वृद्धजनों के कल्याण के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रमों को समझा। वृद्ध सेवा कोई नई परिघटना नहीं है, किंतु इसके प्रतिमान परिवर्तनों (Paradigm Shift) को समझना एक सामाजिक कार्यकर्ता के लिए अनिवार्य शर्त है। वृद्ध जनसंख्या समाज की रीढ़ की हड्डी होती है। उनके अनुभवों से कोई भी समाज संपन्न हो सकता है किंतु इस धरोहर के प्रति सामाजिक नजरिया दिनों दिन परिवर्तित हो रहा है। एकल परिवार प्रवासन तथा युवाओं की बढ़ती अपेक्षाओं के कारण वृद्धों की समस्याएं विकराल रूप धारण कर रही है।


वृद्धों के कल्याण हेतु चलाए जाने वाले कार्यक्रमों तक वृद्धों की पहुंच न होने के कारण जागरूकता की कमी तथा लालफीताशाही के कारण कई वृद्ध इन योजनाओं से वंचित है। गरीब तबके के वृद्ध जनसंख्या सड़कों पर भीख माँगने पर विवश है। सरकार द्वारा पेंशन योजनाओं में कटौती के कारण सेवानिवृत्ति के बाद कई सारे वृद्ध घर छोड़ने पर मजबूर हैं। गैर-सरकारी संगठन, स्वयंसेवी संगठन उनकी सहायता के लिए आगे आते हुए दिखाई देते हैं। भारत के परिदृश्व में हेल्पाऐज इंडिया ने इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है। सरकार पर दबाव बनाकर निर्माताओं का इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने का कर्म इस संगठन ने बेहतरी से किया है। बावजूद इसके कई सारे मामले में परिवार के स्तर पर वृद्धों की उपेक्षा लगातार जारी है। इसके लिए जो अधीनियम बनाए गए हैं, उनका उचित क्रियान्वयन अभी बाकी है। भारत में वृद्ध राज्य सरकार के क्षेत्र में आते है। इस कारण भिन्न-भिन्न राज्यों में उनकी स्थितियां भी अलग दिखाई पड़ती है। आँकड़े बताते हैं कि वृद्धों की याएँ जहाँ ज्यादा दर्ज की गई है, वह राज्य विकसित और उच्च शिक्षित है। केरल, तमिलनाडु महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील राज्यों में वृद्धों के प्रति हिंसा में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है।


इस पूरे आंकलन के बाद यह कहा जा सकता है कि भारत में वृद्धावस्था सेवाओं का स्वरूप अभी प्रारंभिक अवस्था में है इसे उचित मुकाम हासिल करने के लिए राजनीतिक पार्टियों सरकारी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, दबाव समूहों स्वैच्छिक संगठनों आदि को एक होकर इस समस्या का समाधान करना होगा। तभी वृद्धजनों को उचित सेवा सुविधाएँ उपलब्ध हो सकती हैं। 


• वर्तमान परिपेक्ष्य में हम बात करें तो अभी तक के विकास में नकारात्मक परिणामों का अनुभव विश्व कर चुका है और लगभग अस्सी के दशक के मध्य से ही लोग विकास की प्रकृति के नकारात्मक प्रभाओं के प्रति सचेत हुए हैं। इसी का परिणाम है कि पर्यावरण विकास और आपदा प्रबंधन पर लगातार चर्चा परिचर्चा हो रही है। रियो द जेनेरियो परिषद्, अंकटाड रिपोर्ट सस्टेनेबल डेवेलपमेंट आदि इसके प्रतिक्रिया के रूप में विश्वभर में चल रहे हैं। बढ़ती जनसंख्या औद्योगीकरण, नगरीकरण तथा नई आर्थिक नीतियों के कारण पिछले सदी में विश्वभर में प्राकृतिक संसाधनों का लगातार दोहन हुआ जिसका नतीजा यह हुआ कि ग्लोबल वार्मिंग, पारिस्थितिकीय बदलाव तथा तापमान में वृद्धि के साथ ऋतु चक्र में असंतुलन आने लगा है।


दूसरी ओर विकास के नाम पर बनाए गए बड़े बांध पुल औद्योगिक परियोजनाओं एवं भूक्षरण के कारण बाढ़, भूकंप तूफान चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि हुई। साथ ही प्राकृतिक आपदाएं, जिसमें महामारी, युद्ध गैस त्रासदी, आण्विक रिसाव, अपघात आदि में भी लगातार वृद्धि हो रही है। ऐसे में इसका असर भी पर्यावरण पर पड़ने लगा। पर्यावरण की होने वाली इस क्षति ने बौद्धिक वर्ग, राजनीतिक नेताओं तथा नागरी समाज का ध्यान आकर्षित कर लिया है इसके परिणाम स्वरूप पर्यावरण शिक्षा, पर्यावरण-विज्ञान, पर्यावरण प्रबंधन, पर्यावरण विकास जैसी ज्ञान शाखाएं सामने आने लगी। हाल में समाज कार्य के अंतर्गत पर्यावरण प्रबंधन एवं विकास तथा आपदा प्रबंधन कार्यक्षेत्र के रूप में विकसित हुआ है। ऐसे में सामाजिक कार्यकर्ता के लिए पर्यावरण का ज्ञान महत्वपूर्ण बन गया है।


इस इकाई में हम भारतीय परिदृश्य में चल रहे पर्यावरण प्रबंधन एवं विकास संबंधी क्रियाकलापों को समझने की कोशिश करेंगे। साथ ही आपदा प्रबंधन के अंतर्गत पर्यावरण विकास कैसे किया जाए इस पर भी चर्चा करेंगे। पर्यावरण विकास करना हो तो उसके लिए आपदा प्रबंधन आवश्यक शर्त है क्योंकि पर्यावरण विकास हमारा साध्य है तो आपदा प्रबंधन इस साध्य को प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन है। ऐसे में हम शुरुआत में पर्यावरण के सभी आयामों को समझने की कोशिश करेंगे तत्पश्चात आपदा प्रबंधन की प्रक्रिया पर चर्चा करते हुए पर्यावरण विकास को समझेंगे।